कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

गीत: अरे मन ! संजीव 'सलिल'

गीत:
 

अरे मन !
 
संजीव 'सलिल'


*
सहज हो ले रे अरे मन !
*
मत विगत को सच समझ रे.
फिर न आगत से उलझ रे.
झूमकर ले आज को जी-
स्वप्न सच करले सुलझ रे.
 
प्रश्न मत कर, कौन बूझे?
उत्तरों से कौन जूझे?
भुलाकर संदेह, कर-
विश्वास का नित आचमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
उत्तरों का क्या करेगा?
अनुत्तर पथ तू वरेगा?
फूल-फलकर जब झुकेगा-
धरा से मिलने झरेगा.

बने मिटकर, मिटे बनकर.
तने झुककर, झुके तनकर.
तितलियाँ-कलियाँ हँसे,
ऋतुराज का हो आगमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
स्वेद-सीकर से नहा ले.
सरलता सलिला बहा ले.
दिखावे के वसन मैले-
धो-सुखा, फैला-तहा ले.

जो पराया वही अपना.
सच दिखे जो वही सपना.
फेंक नपना जड़ जगत का-
चित करे सत आकलन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*

सारिका-शुक श्वास-आसें.
देह पिंजरा घेर-फांसे.
गेह है यह नहीं तेरा-
नेह-नाते मधुर झाँसे.

भग्न मंदिर का पुजारी
आरती-पूजा बिसारी.
भारती के चरण धो,
कर -
निज नियति का आसवन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*

कैक्टस सी मान्यताएँ.
शूल कलियों को चुभाएँ.
फूल भरते मौन आहें-
तितलियाँ नाचें-लुभाएँ.

चेतना तेरी न हुलसी.
क्यों न कर ले माल-तुलसी?
व्याल मस्तक पर तिलक है-
काल का है आ-गमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*

8 टिप्‍पणियां:

shriprakash shukla ✆ ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
एक टूटे मन को शांति देते हुए,यथार्थ को चित्रित करती हुई अद्वितीय रचना.बधाई हो
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल

sharda arora ने कहा…

शारदा की अर्चना शुभ साध्य है.
भाव ही तो शब्द का आराध्य है..
लिखाता है ब्रम्ह ही निज रूप को-
माध्यम कवि की कलम तो बाध्य है..

achal verma ekavita ने कहा…

हाथ जहां लगजाय आपका ,
वहां स्वर्ण मिल जाता है
कविवर कैसा चमत्कार यह ,
रज विभूति बन जाता है ||
धन्य हुआ इस पारस का
संग पाकर, मैं तो धन्य हुआ
कमल सलिल में, सलिल कमल संग,
देख के मन अब जाय कहाँ ||

Your's ,

Achal Verma

Achal Kumar Verma : ने कहा…

Achal ने लिखा
सुर भी हैं , संगीत भी है
गा रहा एक मीत भी है
यह सुनहरा दिवस कहता
हर तरफ ही शीत भी है

sn Sharma ✆ ekavita ने कहा…

आ० आचार्य जी,
अभिभूत हूँ |
नहीं जानता किन शब्दों में आपका आभार व्यक्त करुँ |
आपकी संवेदना सत्परामर्श शुभाशीर्वचन सम
वरदान वाणी का समझ माथे लगाता हूँ
आपसे सत्पुरुष सतगुरु के समान हैं वन्दनीय
आपके स्नेह औ आत्मीयता को सिर नवाता हूँ
सादर
कमल

Amitabh Tripathi ✆ ekavita ने कहा…

आदरणीय सलिल जी
अच्छी लगीं ये पंक्तियाँ
स्वेद-सीकर से नहा ले.
सरलता सलिला बहा ले.
दिखावे के वसन मैले-
धो-सुखा, फैला-तहा ले.

जो पराया वही अपना.
सच दिखे जो वही सपना.
फेंक नपना जड़ जगत का-
चित करे सत आकलन.
सहज हो ले रे अरे मन !

सादर
अमित

Divya Narmada ने कहा…

भक्त पर हैं सदय फिर भगवान देखो.
सलिल पर है कमल मेहरबान देखो..

Puru Malav ने कहा…

Puru
मन की इतनी दशाएँ और दिशाएँ जानकर कुछ भी कहना शेष नहीँ रह जाता। बधाई।