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शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

मुक्तिका: जा रहे हैं... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

जा रहे हैं...

संजीव 'सलिल'
*
वे पादुका पुरानी, पुजते ही जा रहे है.
ये नव सड़क के राही, घटते ही जा रहे हैं.

कमरे-जमीं यथावत, इंसान बढ़ रहे हैं.
मन दूर जा रहे, तन सटते ही जा रहे हैं..

जितनी हुई पुरानी उतना नशा बढ़ा है.
साक़ी न मीना, कविता पढ़ते ही जा रहे हैं..

जाना कहाँ न मालूम?, क्यों जा रहे?, न पूछा.
निज आँख मूँद, चुप सब, चलते ही जा रहे हैं..

प्रभु पर नहीं भरोसा, करते-कराते पूजा.
कितना चढ़ा चढ़ावा, गिनते ही जा रहे हैं...

आये हैं खाली हाथों, जायेंगे खाली हाथों.
मालूम पर तिजोरी भरते ही जा रहे हैं..

रोके न अहम् रुकता, तनता न वहम झुकता.
तम सघन 'सलिल' दीपक बुझते ही जा रहे हैं..

*******************

5 टिप्‍पणियां:

dr. m. c. gupta 'khalish' ने कहा…

सलिल जी,

मज़रूह के एक १९५७ के नग़्मे में यह लाइन आती है--
"वल्लाह जवाब तुम्हारा नहीं"

आपकी आशु रचना पर उसीको दोहराने को मन कर रहा है.

याद न आ रहा हो तो बताइयेगा, लिंक या बोल भेज दूँगा. अभी इसलिए नहीं कि कुछ आदरणीयों को फ़िल्मी गाने नागवार गुज़रते हैं.

[वैसे मेरा मानना है कि शैलेन्द्र, इन्दीवर, मज़रूह, साहिर, नीरज, प्रदीप आदि ने हिंदी को फ़िल्मों के माध्यम से पूरे देश में और विदेशों में भी लोकप्रिय करने का जो काम किया है, जिसका रोना हिंदी वाले रोते रहते हैं, वह कम नहीं है. रोने वालों को यही चिंता रहती है कि जब संदर्भ शब्द हिंदी में है तो रेफ़रेंस / रेफ़ का इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है. अगर उन्हें इससे संस्कृत के रेफ़, जो वास्तव में रेफ है, उसका भ्र्म होता है तो उनकी बुद्धि की बलिहारी है. संस्कृत तो वह भाषा है जिसमें हरि शब्द १०-२० अर्थों में प्रयुक्त हुआ है--कपि से विष्णु तक. Ref: को रेफ़: लिखना कोई जघन्य अपराध नहीं है. यह दूसरी बात है कि इसे अपराध मानने वाले ह अपने आप को हिन्दी के प्रो० [Prof. के लिए ] लिखते हैं, आचार्य नहीं; पी०जी० [PG के लिए] लिखते हैं, स्नातकोत्तर नहीं. दिल्ली में तो बाकायदा एक पी०जी० डी०ए०वी० कालिज है--स्नातकोत्तर द०आं०वै० महाविद्यालय नहीं. "पार्टी के चार ठो एम०पी० आए हुए थे" कहते हैं, "दल के चार ठो सं० स०" नहीं कहते. "हम कल एम०पी० के सी०एम० से मिले" कहने में लाज नहीं आती, सीना तन जाता है.]


निम्न विशेष पसंद आए--


जितनी हुई पुरानी उतना नशा बढ़ा है.
साक़ी न मीना, कविता पढ़ते ही जा रहे हैं..

प्रभु पर नहीं भरोसा, करते-कराते पूजा.
कितना चढ़ा चढ़ावा, गिनते ही जा रहे हैं...

आये हैं खाली हाथों, जायेंगे खाली हाथों.
मालूम पर तिजोरी भरते ही जा रहे हैं..

रोके न अहम् रुकता, तनता न वहम झुकता.
तम सघन 'सलिल' दीपक बुझते ही जा रहे हैं..


-ख़लिश

Divya Narmada ने कहा…

आत्मीय!
ज़र्रा नवाजी का तहेदिल से शुक्रिया....
क्या करूँ शुक्र के अलावा अन्य दिनों में नाम पर शनीरिया या बुधरिया कहने की परंपरा नहीं है वरना वह भी अदा करता.
हौसला अफजाई भी एक कला है और आपको इसमें भी महारत हासिल है.
मैंने ऐसा तो कुछ नहीं किया कि 'माना जनाब ने पुकारा नहीं' कहा जा सके. यह नाचीज़ तो आपके दरे दौलत पर सलाम बजा लाने को खुशी का वायस मानता है. 'खलिश का साथ गवारा नहीं' यह कहने की नादानी तो नादाँ होने के बावजूद नहीं की जा सकती क्योंकि 'अवर स्वीटेस्ट सोंग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थोट' / हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं.
बकौल ग़ालिब 'वो खलिश कहाँ से होती जी जिगर के पार होता.' खलिश के बिना कविता हो ही नहीं सकती. खलिश अश'आर जिगर के पार नहीं होते, दिल में घर कर जाते हैं और अपनी तारीफ में कुछ न कुछ कहलवा लेते हैं. इसलिए काबिले-तारीफ तो खिश साहब और उनका कलम है... मेरी खुशनसीबी है कि खलिश की नज़रे-इनायत हुई.

Divya Narmada ने कहा…

सलिल जी,

आज आपको एक सच्ची बात बताता हूँ. लगभग ८ महीने पहले की बात है. आप इस मंच पर नए आए थे. आचार्य शब्द से कुछ मानसिक समस्या होती थी. आचार्य मतलब कोई उपाधि या फिर प्रोफ़ेसर का हिंदी रूप. उपाधि दी तो किसने? प्रोफ़ेसर हैं तो कहाँ. ऐसे सवाल खोद-खोद कर नहीं पूछे जाते पर उत्तर न मिले तो मन को परेशान करते रह्ते हैं. कुछ अन्य सदस्यों को भी, मेरी व्यक्तिगत ज्जनकारी में, यह समस्या थी.

अब वो समा गुज़र चुका है. बादल छँट चुके हैं. जहाँ न पहुँचे कवि, वहाँ पहुँचे रवि को चरितार्थ करता हुआ आपका कवित्व सूर्य प्रभृति चमक रहा है. आपके हुज़ूर में एक तुकबंदी पेश है--






२९४४. प्रश्न प्रश्न न रहा कुछ सवाल न रहा —ईकविता-- १ अक्तूबर २०१०



प्रश्न प्रश्न न रहा कुछ सवाल न रहा
आप पर हमें कोई शक-शुबाह न रहा

उलाहने अजीब से मन ही मन दिए थे जो
खुद-ब-खुद खतम हुए अब मलाल न रहा

अब न कोई उलझनें, अब न गल्तफ़हमियाँ
कारवाँ गुज़र गया, अब गुबार न रहा

आपका ही नाम बस रहे है अब ज़ुबान पर
दिल जो ग़म से था भरा अब उदास न रहा

जानते हैं हम कि आप में वफ़ा नहीं है कम
न कहेंगे अब ख़लिश राज़दार न रहा.



महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

१ अक्तूबर २०१०

Divya Narmada ने कहा…

आत्मीय!
आपने इस ओर एक बार और इंगित किया था... उस समय कलम से निम्न पंक्तियाँ उतरीं किन्तु मैंने टंकित नहीं कीं कि निरर्थक चर्चा है.
मैं नाम के साथ उपाधियाँ सामान्यतः नहीं लगाता. प्रारंभ में रचनाओं में उपनाम भी नहीं रखता था किन्तु अपनी ही रचनाएँ अन्यों के नाम से छपी देखीं तो उपनाम जोड़ा... प्रभु-कृपा से बिना कोई प्रचार किये देश के विविध अंचलों से अनेक संस्थाओं ने शताधिक विविध सम्मानोपधियों और अलंकरणों से नवाज़ा.
अंतरजाल पर आया तो तकनीक से परिचित नहीं था. कुछ स्थानों पर रचनाएँ भेजीं तो उपेक्षा ही हाथ लगी. अन्यों की प्रकाशित हुई रचनाओं में भाषिक और पिन्गलीय त्रुटियाँ इंगित कीं तो खेमेबाजी का शिकार हुआ. चतुर्दिक आक्रमण झेलते देख किसी मित्र ने नाम के साथ इसका उल्लेख कर दिया फिर तो नज़ारा ही बदल गया. टिप्पणियों और रचनाओं की कद्र होने लगी. पाठक इस शब्द से ही संबोधित करने लगे, यह पते में भी जोड़ दिया गया. मैंने सहजता से स्वीकार कर लिया. हिन्दयुग्म पर 'दोहा गाथा सनातन' शीर्षक से ६४ लेखों में दोहे लेखन के शिल्प की चर्चा करने पर गंभीरता से लिया जाने लगा. साहित्यशिल्पी पर 'काव्य का रचनाशास्त्र' शीर्षक से ७४ लेखों में अलंकारों की चर्चा चर्चित हुई. इस शब्द का प्रयोग मैं सामान्यतः नहीं करता. आज भी मैं यह सच जनता और मानता हूँ कि साहित्य समुद्र के किनारे रेत में शंख बीनते बच्चे से अधिक मेरी औकात नहीं है. पूज्य बुआश्री के श्री चरणों के नख की धूल का कण भी नहीं हूँ. आप सबका स्नेहाशीष ही जीवन की पूंजी है. वे पंक्तियाँ आज आपके माध्यम से उन सभी को समर्पित जिन्हें उत्सुकता हो:

मुक्तिका:

आत्मालाप

आप जैसे ही किसी ने, प्यार से आशीष देकर
दे दिया उपहार जिसके था न है, काबिल सलिल यह..

कर रहे उत्साहवर्धन, बालकोचित लिखा पढ़कर
है बहुत औदार्य, नादां हैं- नहीं फाजिल सलिल यह..

कलम घिस्सू कुछ न जाने, स्याह करता व्यर्थ कागज़.
आप सहते पर न कहते, क्यों हुआ नाज़िल सलिल यह?

पीठ ठोंकें, कान खीचें, जो करें हक आपको है.
मुकद्दर यह कह रहा है, ले हुआ हासिल सलिल यह.

कुछ नहीं औकात इसकी, ढाई आखर पढ़ न पाया.
ज्यों की त्यों चादर न रख पाया, रहा जाहिल सलिल यह..

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शकुन्तला बहादुर ने कहा…

वाह! वाह!! सलिल जी, क्या ख़ूब कहा है!!!

आपके अंदाज़े बयाँ को नमन।