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बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

दोहा सलिला: गाँधी के इस देश में... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

गाँधी के इस देश में...

संजीव 'सलिल'

गाँधी के इस देश में, गाँधी की जयकार.
सत्ता पकड़े गोडसे, रोज कर रहा यार..

गाँधी के इस देश में, गाँधी की सरकार.
हाय गोडसे बन गया, है उसका सरदार..

गाँधी के इस देश में, गाँधी की है मौत.
सत्य अहिंसा सिसकती, हुआ स्वदेशी फौत..

गाँधी के इस देश में, हिंसा की जय बोल.
बाहुबली नेता बने, जन को धन से तोल..

गाँधी के इस देश में, गाँधी की दरकार.
सिर्फ डाकुओं को रही, शेष कहें बेकार..

गाँधी के इस देश में, हुआ तमाशा खूब.
गाँधीवादी पी सुरा, राग अलापें खूब..

गाँधी के इस देश में, डंडे का है जोर.
खेल रहे हैं डांडिया, विहँस पुलिसिए-चोर..

गाँधी के इस देश में, अंग्रेजी का दौर.
किसको है फुर्सत करे, हिन्दी पर कुछ गौर..

गाँधी के इस देश में, बोझ हुआ कानून.
न्यायालय में हो रहा, नित्य सत्य का खून..

गाँधी के इस देश में, धनी-दरिद्र समान.
उनकी फैशन ये विवश, देह हुई दूकान..

गाँधी के इस देश में, 'सलिल 'न कुछ भी ठीक.
दुनिया का बाज़ार है, देश तोड़कर लीक..

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2 टिप्‍पणियां:

shriprakash shukla ✆ ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
यथार्थ का चित्रण करती हुई सुन्दर रचना लेकिन किस से कहें देश तो हमारा ही है.
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल

- mcdewedy@gmail.com ने कहा…

यथार्थ को उजागर करती रचना हेतु बधाई सलिल जी.
महेश चन्द्र द्विवेदी