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सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

मुक्तिका: किस्मत को...... ----संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

किस्मत को मत रोया कर.

संजीव 'सलिल'
*
किस्मत को मत रोया कर.
प्रति दिन फसलें बोया कर..

श्रम सीकर पावन गंगा.
अपना बदन भिगोया कर..

बहुत हुआ खुद को ठग मत
किन्तु, परन्तु, गोया कर..

मन-पंकज करना है तो,
पंकिल पग कुछ धोया कर..

कुछ दुनियादारी ले सीख.
व्यर्थ न पुस्तक ढोया कर..

'सलिल' देखने स्वप्न मधुर
बेच के घोड़ा सोया कर..

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3 टिप्‍पणियां:

Yograj Prabhakar ने कहा…

//मन-पंकज करना है तो,
पंकिल पग कुछ धोया कर..//

आचार्य जी दूसरी पंक्ति में "पग+कुछ" में व्यंजन "ग" एवं "क" एक ही वर्ग के होने की वजह से "सकता" (हकलाहट) जैसा दोष आ रहा है, इस पर कृपया दोबारा गौर कीजिये ! सादर !

Divya Narmada ने कहा…

आपने सही कहा है.
इसे- 'पंकिल पग भी धोया कर' कर दूँ क्या?

Yograj Prabhakar ने कहा…

जी हाँ आचार्य जी, 'पंकिल पग भी धोया कर' करने से उस दोष का निवारण हो जाएगा, सादर!