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गुरुवार, 31 मई 2012

नवगीत: गर्मी के दिन... संजीव 'सलिल'

नवगीत:
गर्मी के दिन...
संजीव 'सलिल'
*
बतियाते-इठलाते
गर्मी के दिन..
*
ठंडी से ठिठुर रहे.
मौसम के पाँव.
सूरज ले उषा किरण
आया हँस गाँव.
नयनों में सपनों ने
पायी फिर ठाँव.
अपनों की पलकों में
खोज रहे छाँव.
महुआ से मदिराए
पनघट के दिन.
चुक जाते-थक जाते
गर्मी के दिन..
*
पेड़ों का कत्ल देख
सिसकता पलाश.
पर्वत का अंत देख
नदी हुई लाश.
शहरों में सीमेंटी
घर हैं या ताश?
जल-भुनता इंसां
फँस यंत्रों के पाश.
होली की लपटें-
चौपालों के दिन.
मुरझाते झुलसाते
गर्मी के दिन..
*

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



2 टिप्‍पणियां:

drdeepti25@yahoo.co.in ने कहा…

deepti gupta ✆

sanjiv ji,

आपकी कविता में महत्वपूर्ण मुद्दे आये है - पेड़ों का क़त्ल, पहाडो का अंत , नदी का भी मरना आदि ! लेकिन पहले हिस्से में सर्दी का ज़िक्र है - गरमी के दिन बतिया रहे हैं .......इसका ज़रा सन्दर्भ स्पष्ट करें, तो हम कुछ लिखें !

pranav bharti ने कहा…

आ.आचार्य जी,
एक तो गर्मी के दिन ने झुलसाया......
पेड़ों का कत्ल देख सिसकता पलाश........बहुत सुंदर चित्र
चुक जाते,थक जाते गर्मी के दिन.......सच में थकान महसूस हो रही है|
यहाँ तक तो ठीक था|कुछ ऎसी व्यस्तता हुई कि आपको उत्तर न दे सकी........अब घंटे भर से बैठी हूँ आपकी वो मेल नहीं मिल रही है जिसमें आपने "बन्धूक पुष्प " की बात की थी |अब मैं थक गई हूँ और
थककर इस रचना में उत्तर प्रेषित कर रही हूँ|
किसी ने आपको उसका उत्तर दिया भ़ी था ......याद नहीं किसने....
पर उसमें भ़ी " दुपहरिया" था|यही 'दुपहरिया' बन्धूक के लिए प्रचलित शब्द है|
यह वह फूल है जो न तो सुबह ,न ही शाम को खिलता है|केवल दोपहर में ही खिलता है तथा सूर्य की दोपहर की रश्मियों के रंग के समान लाल होता है|गहरे लाल रंग का पुष्प है|
एक मित्र ने यह बताया कि इसकी बेल को 'बिच्छू की बेल' भ़ी कहा जाता है,पर वह बहुत ऊंची नहीं होती|मालूम नहीं कितना सही है|
सादर
प्रणव भारती