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शनिवार, 26 मई 2012

-- श्री सूर्यमंडलाष्टकं -- हिंदी काव्यानुवाद : संजीव 'सलिल'

-- श्री सूर्यमंडलाष्टकं --
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव 'सलिल'
*


नमः सवित्रे जगदेक चक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थिति नाशहेतवे.
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरंचिनारायण शंकरात्मने..१..

जगत-नयन सविते! नमन, रचें-पाल कर अंत.
त्रयी-त्रिगुण के नाथ हे!, विधि-हरि-हर प्रिय कंत....



यंमन्डलं दीप्तिकरं विशालं, रत्नप्रभं तीव्रमनादि रूपं.
दारिद्र्य-दुःख-क्षय कारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम..२..

आभा मंडल दीप्त सुविस्तृत, रूप अनादि रत्न-मणि-भासित.
दुःख-दारिद्र्य क्षरणकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..२..



यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितं विप्रेस्तुते भावन मुक्तिकोविदं.
तं देवदेवं प्रणमामि सूर्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..३..

आभा मंडल मुक्तिप्रदाता, सुरपूजित विप्रों से वन्दित.
लो प्रणाम देवाधिदेव हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..३..



यन्मण्डलं ज्ञान घनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपं.
समस्त तेजोमय दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..४..

आभा मंडल गम्य ज्ञान घन, त्रिलोकपूजित त्रिगुण समाहित.
सकल तेजमय दिव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..४..


यन्मण्डलं गूढ़मति प्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानां.
यत्सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..५..

आभा मंडल सूक्ष्मति बोधक, सुधर्मवर्धक पाप विनाशित .
नित प्रकाशमय भव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..५..
 

यन्मण्डलं व्याधि-विनाशदक्षं, यद्द्रिग्यजुः साम सुसंप्रगीतं.
प्रकाशितं येन च भूर्भुवः स्व:, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..६..

आभा मंडल व्याधि-विनाशक,ऋग-यजु-साम कीर्ति गुंजरित.
भूर्भुवः व: लोक प्रकाशक!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..६..




यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण सिद्ध्-संघाः.
यदयोगिनो योगजुषां च संघाः, पुनातु मांतत्सवितुर्वरेण्यं..७..

आभा मंडल वेदज्ञ-वंदित, चारण-सिद्ध-संत यश-गायित .
योगी-योगिनी नित्य मनाते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..७..
 

यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादित मर्त्यलोके.
यत्कालकल्पक्षय कारणं च , पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..८..

आभा मंडल सब दिश पूजित, मृत्युलोक को करे प्रभासित.
काल-कल्प के क्षयकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..८.. 
 

यन्मण्डलंविश्वसृजां प्रसिद्धमुत्पत्ति रक्षा पल प्रगल्भं.
यस्मिञ्जगत्संहरतेsअखिलन्च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..९..

आभा मंडल सृजे विश्व को, रच-पाले कर प्रलय-प्रगल्भित.
लीन अंत में सबको करते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..९.
.


यन्मण्डलं सर्वगतस्थ विष्णोरात्मा परंधाम विशुद्ध् तत्वं  .
सूक्ष्मान्तरै योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..१०..

आभा मंडल हरि आत्मा सम, सब जाते जहँ धाम पवित्रित.
सूक्ष्म बुद्धि योगी की गति सम, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..१०..
 

यन्मण्डलं विदविदोवदन्ति, गायन्तियच्चारण सिद्ध-संघाः.   
यन्मण्डलं विदविद: स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..११..

आभा मंडल सिद्ध-संघ सम, चारण-भाटों से यश-गायित.
आभा मंडल सुधिजन सुमिरें, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..११..
 


मण्डलाष्टतयं पुण्यं, यः पथेत्सततं नरः.
सर्व पाप विशुद्धात्मा, सूर्य लोके महीयते..

मण्डलाष्टय पाठ कर, पायें पुण्य अनंत.
पापमुक्त शुद्धतम हो, वर रविलोक दिगंत..



..इति श्रीमदादित्य हृदयेमण्डलाष्टकं संपूर्णं.. 
..अब श्रीमदसूर्यहृदयमंडल अष्टक पूरा हुआ..



*****
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

19 टिप्‍पणियां:

mridulkirti@gmail.com ने कहा…

बहुत ही सार्थक प्रयास है, इस बार काव्य में मात्राएँ कहीं-कहीं अधिक होने के कारण गति भंग है. निर्दोष करने के कारण लिखा कृपया अन्यथा ना लें.--बहुत अच्छा लगा केवल यह भी लिख सकती थी.
मृदुल

sn Sharma ने कहा…

sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara


आ० आचार्य जी
रवि-वरेण्य माता सविता कि स्तुति संस्कृत और हिंदी पद्यानुवाद मंत्रमुग्ध कर गये |

मूल संस्कृत में स्तुति का सस्वर उच्चारण / गायन तो अत्यंत प्रिय लगा और हिंदी पड़ में अर्थ का पुट सोने में सुहागा भर गया|
कितना सुन्दर श्लोक है -
यन्मण्डलं ज्ञान घनं त्वगम्यं,
त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपं.

समस्त तेजोमय दिव्यरूपं,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..४.
.
सादर
कमल

dr. deepti gupta ने कहा…

deepti gupta ✆ drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com kavyadhara


आदरणीय कविवर,

शीश नवा कर, नयन मूँद कर (भय से) आपसे क्षमा माँगते हुए कह रहे है कि कुछ स्थानों पर ऐसे ही अपना अनुवाद टांक दिया है ! आपके साथ -साथ अनुवाद करने का प्रयास किया है ! (संस्कृत एम.ए. के दिन याद आ गए...)
आपने अति सुघड अनुवाद किया है ! तदहेतु आपका वंदन ! हमारे अनुवाद को मानिए ' वन-क्रंदन '.......
सादर,
दीप्ति

-- श्री सूर्यमंडलाष्टकं --
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव 'सलिल'
*


नमः सवित्रे जगदेक चक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थिति नाशहेतवे.
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरंचिनारायण शंकरात्मने..१..

विधि-हरि-हर प्रिय रवि नमन, त्रयी-त्रिगुण के नाथ.
सृज-पालें-नाशें जगत, नित्य नवाऊँ माथ..१.. रचे, पाले, नाशे, हमें, जगत नयन नवाऊँ माथ.. (जगदेक चक्षुषे )




यंमन्डलं दीप्तिकरं विशालं, रत्नप्रभं तीव्रमनादि रूपं.
दारिद्र्य-दुःख-क्षय कारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम..२..

आभा मंडल दीप्त सुविस्तृत, रूप अनादि रत्न-मणि-भासित. मुख मंडल दीपित अनंत, रूप अनादि भासे शतम
दुःख-दारिद्र्य क्षरणकरता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..२.. दुःख-दारिद्र्य का करे अंत, बने श्रेष्ठ तेजोमय आप सम



यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितं विप्रेस्तुते भावन मुक्तिकोविदं.
तं देवदेवं प्रणमामि सूर्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..३..

आभा मंडल मुक्तिप्रदाता, सुरपूजित विप्रों से वन्दित.
सदय रहो देवाधिदेव हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..३.. नमन तुम्हें देवाधिदेव हे ! रवि तेजोमय कर हमें प्रकाशित

salil ने कहा…

दीप्ति जी!
वन्दे मातरम.
विनम्र निवेदन है कि काव्यानुवाद करना वास्तव में मेरी औकात के बाहर का काम है. मैं केवल १० वीं तक संस्कृत पढ़ा हूँ, वह भी १९६८ में. संस्कृत से हिंदी भाषान्तरण, गद्यानुवाद या पद्यानुवाद आजकल कम ही हो रहा है. फलतः नई पीढ़ी इससे वंचित हो रही है. यह विचार मुझे प्रेरित करता है कि कुछ न होने से कुछ हो तो बेहतर होगा. काव्यानुवाद में विशेष कठिनाई छंद के बंधन से भी आती है. ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कई कृतियों के शब्दानुवाद मैंने पढ़े हैं. वे विषय-वस्तु तथा भाषा दोनों के साथ अन्याय करते हैं, अर्थ या भाव दोनों ही स्पष्ट नहीं होते. गूगल का अंग्रेजी-हिंदी अनुवाद उचित नहीं प्रतीत होता.

आप संस्कृत भाषा-साहित्य की विदुषी रत्न हैं. वस्तुतः यह आपके कार्यक्षेत्र में अनधिकृत हस्तक्षेप की तरह है. अपने विशाल हृदयता का परिचय देते हुए अनुवाद की न्यूनताएं इंगित की, आभारी हूँ. निवेदन है कि सकल अनुवाद की गलतियाँ बतायें तो मैं पुनः प्रयास करूँगा कि अर्थ, भाषा और छंद तीनों को साध सकूँ.

पुनः आभार.

dr. deepti gupta ने कहा…

deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com

kavyadhara


आ.संजीव जी,
सच में, अर्थ, भाव, भाषा छंद में करीने से बांध कर, अनुवाद करना कोई सरल कार्य नहीं है ! ऊपर से, जैसा अपने बताया कि आपने हाईस्कूल तक ही संस्कृत पढ़ी है, उस दृष्टि से तो आपकी जितनी भी सराहना की जाए, कम है !
हम अनुवाद में पारंगत नहीं है - दूसरे, संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद करने जैसा विकट कार्य करने का साहस नहीं जुटा पाते ! वो तो आपके सुघड अनुवाद को पढकर , दोबारा अधिक रूचि से पढ़ा तो, कहीं कहीं कुछ महत्वपूर्ण शब्दों का भाव /अनुवाद छुटा हुआ प्रतीत हुआ, सो, उन अपेक्षित शब्दों को हिन्दी में अनूदित कर, समेटने का प्रयास किया , बस ! क्योकि अनुवाद में प्रत्येक शब्द का अनुवाद न करके, जहाँ तक हो सके महत्वपूर्ण भाव को पकडना ज़रूरी होता है - जिससे मूल पाठ की आत्मा बनी रहे ! अनुवाद में छूट एक सीमा तक ही ली जा सकती है ! इन सब को ध्यान में रखना, फिर, छंदोबद्ध करना, आसान नहीं है ! आपने प्रयास किया और कायदे से मूल पाठ के निकटतम रहते हुए अनुवाद किया, यह एक अति प्रशंसनीय बात है !

हम तो एक दो स्थानों पर ही प्रयास करके ढह से गए ! :)) laughing
दिमाग को कितना सचेत रखना पडता है ........! कठिन कार्य...... ! फिर भी आपके निवेदन को ध्यान में रखते हुए, एक बार पुन: पढ़ेगें आपके अनुवाद को जहाँ सम्भव हो सका - कुछ बेहतर शब्द और भाव देने की कोशिश करेगें ! हमारे पास समयाभाव है इसलिए भी हम इतनी मेहनत नहीं कर पाते ! फिर भी कुछ तो करने की सोचेगें !
सादर, दीप्ति

salil ने कहा…

दीप्ति जी
मुझे साहित्यिक अनुवाद में शब्द-शब्द को पकड़ने के स्थान पर भाव और कथ्य को संप्रेषित करना करना अधिक उपयुक्त लगता है.
तकनीकी अनुवाद में यथासंभव नये शब्द जोड़ना टालता हूँ. विधिक अनुवाद में भी जैसे का तैसा कहने की कोशिश होती है.
बंगला या अन्य भाषाओँ से अनुवाद में मूल के अर्थ को समझकर अनुवाद की भाषा की प्रकृति, व्याकरण और पिंगल के अनुरूप नये शब्द-चयन करना होते हैं. हर शब्द का अनुवाद आवश्यक होने पर छंद को छोड़ना होता है.
समय का मेरे पास भी अभव है किन्तु दफ्तर में दो फाइलों के बीच के कुछ क्षण या कार में यात्रा का समय उपयोग करना होता है. देर रात तक तो रोज ही काम करना होता है.

- chandawarkarsm@gmail.com ने कहा…

आचार्य सलिल जी,
अति सुंदर! अति सुंदर!! अति सुंदर!!!
सस्नेह,
सीताराम चंदावरकर

achal verma ✆ekavita ने कहा…

achalkumar44@yahoo.com

सचमुच ही यह अति आकर्षक अनुवाद बन गया है।
आप की प्रतिभा अक्षुण रहे, और हमें ऐसी ही आनंद की अनुभूति कराते रहें ।।

अचल वर्मा

Pranava Bharti ✆ ने कहा…

pranavabharti@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara


आ.आचार्य जी,
आपको शत शत वन्दन |
अनुवाद स्वयं में ही दुरूह कार्य है,तिस पर संस्कृत से और वो भ़ी आध्यात्मिक काव्यात्मक अनुवाद !बहुत अनुभव व साहस की आवश्यकता है|यहाँ कुछ मित्रों ने श्रीमदभगवत गीता का अनुवाद किया है|परन्तु गीता का अनुवाद हम वर्षों से पढ़ते आ रहे हैं अत: बहुत नवीनता प्राप्त नहीं हो पाई |
वर्षों तक गद्य-पद्य अनुवाद करके मैं इस नतीजे पर आई हूँ कि अनुवाद सा कठिन कार्य कोई नहीं है|जैसा दीप्ति जी ने कहा कि बहुत सचेत रहना पड़ता है कि मूल विषय से भटककर उसका वास्तविक रूप कहीं तिरोहित न हो जाए|मैंने तो अब अनुवाद करने का साहस करना ही छोड़ दिया है|
आपने बहुत सूझ बूझ से तथा बहुत शीघ्रता से इसे प्रस्तुत किया है|मैं तो इस योग्य भ़ी नहीं कि इस पर कुछ टिप्पणी कर सकूं|हाँ,माँ -पापा दोनों संस्कृत के शास्त्री थे अत: वातावरण अवश्य गरिमामय प्राप्त हुआ है|
मुझे तो ....लगता है अभी कई बार संस्कृत श्लोकों के साथ हिन्दी-छंद गुनने होंगे तभी गायन की मनोभूमि तैयार हो सकेगी ...............| संस्कृत श्लोक-गायन में एक पावन आनन्दानुभूति होती है,आपने गुनगुनाने का अवसर प्रदान किया है|भविष्य में भ़ी आपसे पावन आनन्दानुभूति की कामना बनी रहेगी|
आपको नमन,वन्दन
सादर
प्रणव भारती

dr. deepti gupta ने कहा…

drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com kavyadhara

आ.संजीव जी,
सविनय निवेदन है कि 'वरेण्य' में 'श्रेष्ठता और तेजोमय'दोनों भाव निहित हैं! इसलिए अनुवाद में यदि आप मूल शब्द'वरेण्य' के स्थान पर उसके उपर्युक्त अर्थों में एक भी अर्थ को रखेगें तो अधिक उपयुक्त रहेगा! दोनों अर्थों में भी'तेजोमय' सूर्य के साथ अधिक सही लगता है,इसलिए मैंने 'हे! रवि तेजोमय कर हमें प्रकाशित' इस तरह करके देखा! चूंकि अनुवाद है तो हम जितना निकटतम अर्थ में, उसे हिन्दी में रूपांतरित कर सके, बेहतर रहेगा! वैसे वरेण्य तो चलेगा ही क्योंकि वह मूल पाठ में है ही!
प्रत्येक स्थान पर, दोनों पंक्तियों के अंत में सम ध्वनि शब्दों को रखा है(भासित,आराधित, समाहित,विनाशित,गुंजारित,प्रभासित,निवारित, स्वरित)शेष आप देख लें!
आपके परिश्रम की भूरि-भूरि सराहना के साथ,

-- श्री सूर्यमंडलाष्टकं --
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव 'सलिल'
*
नमः सवित्रे जगदेक चक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थिति नाशहेतवे.
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरंचिनारायण शंकरात्मने..१..
विधि-हरि-हर प्रिय रवि नमन,त्रयी-त्रिगुण के नाथ
सृज-पालें-नाशें जगत,नित्य नवाऊँ माथ .१. रचे,पाले,नाशे,हमें,जगत नयन नवाऊँ माथ.. (जगदेक चक्षुषे )

यंमन्डलं दीप्तिकरं विशालं, रत्नप्रभं तीव्रमनादि रूपं.
दारिद्र्य-दुःख-क्षय कारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम..२..
आभा मंडल दीप्त सुविस्तृत, रूप अनादि रत्न-मणि-भासित. मुख मंडल दीपित अनंत, रूप अनादि रत्नमणि सम भासित
दुःख-दारिद्र्य क्षरणकरता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..२.. दुःख-दारिद्र्य का करे अंत, हे! रवि तेजोमय कर हमें प्रकाशित
यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितं विप्रेस्तुते भावन मुक्तिकोविदं.
तं देवदेवं प्रणमामि सूर्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..३..
आभा मंडल मुक्तिप्रदाता, सुरपूजित विप्रों से वन्दित. मुक्तिप्रदाता आभा मंडल, सुरपूजित विप्र आराधित
सदय रहो देवाधिदेव हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..३.. नमन तुम्हें देवाधिदेव हे! रवि तेजोमय कर हमें प्रकाशित(प्रणमामि) (आराधित -प्रकाशित)
यन्मण्डलं ज्ञान घनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपं.
समस्त तेजोमय दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..४..
आभा मंडल गम्य ज्ञान घन, त्रिलोकपूजित त्रिगुण स्वरूपा. त्रिलोकपूजित त्रिगुण समाहित. अति तेजोमय दिव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित.४. रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित
स्वरूप के अर्थ को हम समाहित में पकड़ सकते हैं (समाहित.- प्रकाशित)
यन्मण्डलं गूढ़मति प्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानां.
यत्सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..५..
आभा मंडल सूक्ष्म बुद्धिमय, सुधर्मवर्धक पाप विनाशक. आभा मंडल सूक्ष्म बुद्धि प्रबोधक, सुधर्मवर्धक, पाप विनाशित
नित प्रकाशमय भव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..५..प्रकाशित
यन्मण्डलं व्याधि-विनाशदक्षं, यद्द्रिग्यजुः साम सुसंप्रगीतं.
प्रकाशितं येन च भूर्भुवः स्व:, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..६..
आभा मंडल व्याधि-विनाशक,ऋग-यजु-साम कीर्ति गुंजाते. ऋग-यजु-साम कीर्ति गुंजारित
भूर्भुवः स्व: लोक प्रकाशक!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..६.. रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण सिद्ध्-संघाः.
यदयोगिनो योगजुषां च संघाः, पुनातु मांतत्सवितुर्वरेण्यं..७..
आभा मंडल वेदज्ञ-वंदित, चारण-सिद्ध-संत यश गाते .
योगी-योगिनी नित्य मनाते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..७..
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादित मर्त्यलोके.
यत्कालकल्पक्षय कारणं च , पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..८..
आभा मंडल सर्वत्र पूजित, मृत्युलोक को ज्योतित करता. मृत्युलोक उससे प्रभासित
काल-कल्प के क्षयकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..८.. रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित.
यन्मण्डलंविश्वसृजां प्रसिद्धमुत्पत्ति रक्षा पल प्रगल्भं.
यस्मिञ्जगत्संहरतेsअखिलन्च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..९..
आभा मंडल सृजे विश्व को, रच-पाल-रक्षे प्रलय-विलय में.
रच-पाल- रक्षा-कोविद (प्रगल्भ) करता प्रलय निवारित
लीन अंत में सबको करते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..९.. रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित

dr. deepti gupta ने कहा…

deepti gupta
आभा मंडल व्याधि-विनाशक, ऋग-यजु-साम कीर्ति गुंजाते
ऋग- यजु- साम कीर्ति गुंजारित
भूर्भुवः स्व: लोक प्रकाशक!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..६..
रवि तेजोमय कर हमें प्रकाशित
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण सिद्ध्-संघाः.
यदयोगिनो योगजुषां च संघाः, पुनातु मांतत्सवितुर्वरेण्यं..७..

आभा मंडल वेदज्ञ-वंदित, चारण-सिद्ध-संत यश गाते .
योगी-योगिनी नित्य मनाते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..७..



यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादित मर्त्यलोके.
यत्कालकल्पक्षय कारणं च , पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..८..

आभा मंडल सर्वत्र पूजित, मृत्युलोक को ज्योतित करता. मृत्युलोक उससे प्रभासित
काल-कल्प के क्षयकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..८.. रवि तेजोमय कर हमें प्रकाशित.



यन्मण्डलंविश्वसृजां प्रसिद्धमुत्पत्ति रक्षा पल प्रगल्भं.
यस्मिञ्जगत्संहरतेsअखिलन्च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..९..

आभा मंडल सृजे विश्व को, रच-पाल-रक्षे प्रलय-विलय में. रच-पाल- रक्षा-कोविद (प्रगल्भ) करता प्रलय निवारित
लीन अंत में सबको करते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..९.. रवि तेजोमय कर हमें प्रकाशित



यन्मण्डलं सर्वगतस्थ विष्णोरात्मा परंधाम विशुद्ध् तत्वं .
सूक्ष्मान्तरै योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..१०..

आभा मंडल विष्णुधाम सम, विशुद्ध आत्मा सदृश परम सत.
सूक्ष्म बुद्धि योगी की गति सम, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..१०..



यन्मण्डलं विदविदोवदन्ति, गायन्तियच्चारण सिद्ध-संघाः.
यन्मण्डलं विदविद: स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..११..

आभा मंडल विविध भाँति से, वेद-ज्ञान का करता गायन. सूरज की महिमा के ज्ञाता, गान करे सिद्ध संघ स्वरित
आभा मंडल वेद सुमिरते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..११.. उसका गहरा ज्ञान सुमिरते,रवि तेजोमय कर हमें प्रकाशित



मण्डलाष्टतयं पुण्यं, यः पथेत्सततं नरः.
सर्व पाप विशुद्धात्मा, सूर्य लोके महीयते..

मण्डलाष्टतय पाठ जो, करते श्रृद्धायुक्त. मण्डलाष्टतय पाठ जो, करते श्रृद्धायुक्त.
सूर्यलोक पाते अटल, होकर पाप विमुक्त.. अति महिमावान सूर्य से,शुद्धात्मा पाप विमुक्त.(महीयते)
..इति श्रीमदादित्य हृदयेमण्डलाष्टकं संपूर्णं..
..यहाँ श्रीमदसूर्यहृदयमंडल अष्टक पूरा हुआ..



*****

- shishirsarabhai@yahoo.com ने कहा…

आदरणीय दीप्ति जी एवं संजीव जी ,
आप दोनों के प्रयास को सलाम ! संजीव जी , आपने दीप्ति जी को भी लिखने के लिए प्रेरित कर दिया, अत: आपको पंचकोटी नमन ! संजीव जी, आपने अनुवाद उत्तम किया ही था परन्तु दीप्ति जी ने और उसमे चार चाँद लगा दिए . यह मंच धन्य हुआ ऐसी ज्ञानपूर्ण गतिविधियों के चलते ...
आप दोनों की भूरि-भूरि सराहना क साथ,
सादर,
शिशिर

- kanuvankoti@yahoo.com ने कहा…

बहुत खूब !!!!!!

सादर,
कनु

vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.com ने कहा…

vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.com

kavyadhara


आ० ’सलिल’ जी और दीप्ति जी,

आप दोनों को अनुवाद के लिए धन्यवाद

और बधाई । अच्छा ज्ञान दिया है, ऐसे ही

ज्ञान देते रहें ।
विजय

deepti gupta ✆ ने कहा…

deepti gupta ✆

आ.संजीव जी,

आपको हमारा निष्ठापूर्वक किया गया तुच्छ सहयोग काम का नज़र आया - यह आपकी उदारता है ! हम अकेले इतने गुरु कार्य करने का साहस कभी नहीं कर सकते , हाँ आप जैसे विद्वत जन यदि श्रीगणेश करके, हमारा मनोबल बढ़ाएं तो हम हिम्मत करके अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ आपको ज़रूर देना चाहेगें !

एक सुझाव हैं - इसकी आप पुस्तक भी प्रकाशित करवाएं ! इलाहबाद, हरिद्वार या बनारस इन स्थानों से प्रकाशित भी होगी, आदृत होगी और गुणीजनों द्वारा खरीदी भी जायेगी ! मात्र अनुमान है ! इसके विपरीत भी घट सकता है .....:)) laughing दोनों पक्षों को स्वीकार कर चलना चाहिए !
क्यों ठीक है न ?

सादर,
दीप्ति

salil ने कहा…

दीप्ति जी
आपका सुझाव शिरोधार्य. कोई प्रकाशक जानकारी में हो तो बतायें. सूर्य उपासना की पूजन सामग्री, विधि, प्रभाव, तथा स्तोत्र आदि समगे एक साथ प्रकाशित करने के लिये कोई तैयार हो तो आगे बढ़ूँ.

deepti gupta ✆ ने कहा…

इसके लिए, धार्मिक पुस्तके छापने वाले संस्थानों को आप फोन करके पूछे कि वे छापना चाहेगे क्या ? आपक पास धार्मिक पुस्तके होगी - उनमें प्रकाशन स्थान वगैरा देखिए , फोन नंबर भी दिया होगा ! इंदौर में भी कोई हो सकता है ! हम भी कोशिश करते हैं !

- shishirsarabhai@yahoo.com ने कहा…

- shishirsarabhai@yahoo.com

आदरणीय संजीव जी,
आपकी कलम को प्रणाम ! आप धर्म का काम कर रहे हैं, पुन्य कमा रहे हैं , आपके साथ इन श्लोकों को पढ़ कर, हमारे भी पाप धुल जाएगें .
देर सराहना और धन्यवाद के साथ,
सादर,
शिशिर

From

बेनामी ने कहा…

अद्भुत!!