गर्मी के दोहे
आनंद कृष्ण
*
भीषण
गर्मी पड़ रही है ......... इस मौके पर सात दोहे प्रस्तुत हैं. ये सभी
दोहे अपने आप में स्वतंत्र हैं किन्तु समेकित रूप में ये ग्रीष्म ऋतु के एक
पूरे दिन का चित्रण करने का प्रयास हैं...... प्रयास की सफलता का
मूल्यांकन आप करेंगे ना-??????
निकल पड़ा था भोर से पूरब का मजदूर.
दिन भर बोई धूप को लौटा थक कर चूर.
पिघले सोने सी कहीं बिखरी पीली धूप.
कहीं पेड़ की छाँव में इठलाता है रूप.
कहीं पेड़ की छाँव में इठलाता है रूप.
तपती धरती जल रही, उर वियोग की आग.
मेघा प्रियतम के बिना, व्यर्थ हुए सब राग.
मेघा प्रियतम के बिना, व्यर्थ हुए सब राग.
झरते पत्ते कर रहे, आपस में यों बात-
जीवन का यह रूप भी, लिखा हमारे माथ.
जीवन का यह रूप भी, लिखा हमारे माथ.
क्षीणकाय निर्बल नदी, पडी रेट की सेज.
"आँचल में जल नहीं-" इस, पीडा से लबरेज़.
"आँचल में जल नहीं-" इस, पीडा से लबरेज़.
दोपहरी बोझिल हुई, शाम हुई निष्प्राण.
नयन उनींदे बुन रहे, सपनों भरे वितान.
नयन उनींदे बुन रहे, सपनों भरे वितान.
उजली-उजली रात के, अगणित तारों संग.
मंद पवन की क्रोड़ में, उपजे प्रणय-प्रसंग.
मंद पवन की क्रोड़ में, उपजे प्रणय-प्रसंग.
सादर-
आनंदकृष्ण, जबलपुर
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