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शनिवार, 12 मई 2012

गीत: छोड़ दें थोड़ा... संजीव 'सलिल'

गीत:
छोड़ दें थोड़ा...
संजीव 'सलिल'
*


*
जोड़ा बहुत,
छोड़ दें थोड़ा...
*
चार कमाना, एक बाँटना.
जो बेहतर हो वही छांटना-
मंझधारों-भँवरों से बचना-
छूट न जाए घाट-बाट ना.
यही सिखाया परंपरा ने
जुत तांगें में
बनकर घोड़ा...
*
जब-जब अंतर्मुखी हुए हो.
तब एकाकी दुखी हुए हो.
मायावी दुनिया का यह सच-
आध्यात्मिक कर त्याग सुखी हो.
पाठ पढ़ाया पराsपरा ने.
कुंभकार ने
रच-घट फोड़ा...
*
मेघाच्छादित आसमान सच.
सूर्य छिपा पर भासमान सच.
छतरीवाला प्रगट, न दिखता.
रजनी कहती है विहान सच.
फूल धूल में भी खिल हँसता-
खाता शूल
समय से कोड़ा...
***

9 टिप्‍पणियां:

- pranavabharti@gmail.com ने कहा…

pranavabharti@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara



आ.सलिल जी,
जब-जब अंतर्मुखी हुए हो .............
अंतर्मुखी की यात्रा समय-शूल के कोड़े सहती हुई,बीमार माँ के लिए प्रार्थना करती,
माँ की गोदी में सिमटने को व्याकुल...........|सुंदर बंदों के लिए साधुवाद

[नटखट चंचल भोलापन (तेरा) या (तेरे)जीवन की थाती है.....pl.check the word.
दीप यहाँ मैं,दूर कहीं तू,लेकिन तेरी बाती है.............] सुंदर .....

तुझसे ही पहचान,मेरी माँ !तुझसे ही पहचान,
कोख में रखकर,पाल पाल-पोसकर ,तूने दी है जान....
माँ! तुझसे ही पहचान||

सादर
प्रणव भारती

salil ने कहा…

प्रणव भारती जी!
आपकी गुणग्राहकता को नमन.
नटखट-चंचल भोलापन
तेरा- जीवन की थाती है.
माँ कह रही है- 'बेटी! तेरा नटखट-चंचल भोलेपन मेरे जीवन की थाती है.
दीप यहाँ मैं / दूर कहीं तू-
लेकिन मेरी बाती है.
माँ यहाँ है, बेटी दूर है लेकिन माँ की बाती है, माँ से पायी शिक्षा का प्रकाश वहाँ फैला रही है.
दीपक-बाती साथ रहें कुछ पल
तो तम् मिट जायेगा.
माँ की कामना बेटी घर आये, दीपक-बाती साथ रहें...
अगरु-धूप सा स्मृतियों का
धूम्र सुरभि फैलाएगा.

sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com ने कहा…

sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara


आ० आचार्य जी,
तीन गीत ! तीन विभिन्न स्थितियों पर / एक से एक बढ़ कर
वाह क्या कहना आपकी लेखनी का / बस मन मुग्ध पढ़ कर |
क्या कहूं ? निःशब्द हूँ / स्तब्ध हूँ |
सादर
कमल

- shishirsarabhai@yahoo.com ने कहा…

आदरणीय प्रणव जी,

यह आपने किस कविता पे कमेन्ट लिखा है ? सलिल जी की कविता तो कुछ अलग बात कर रही है और आपकी प्रतिक्रिया कुछ और कह रही है.
समझ नहीं आया. मैं तो कन्फूज सा हो गया हूँ.
सादर,
शिशिर

- shishirsarabhai@yahoo.com ने कहा…

वाह, वाह ...क्या कहने संजीव जी.!
नमन !
सादर,
शिशिर

- shishirsarabhai@yahoo.com ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
salil ने कहा…

प्रणव भारती जी!
आपकी गुणग्राहकता को नमन.
नटखट-चंचल भोलापन
तेरा- जीवन की थाती है.
माँ कह रही है- 'बेटी! तेरा नटखट-चंचल भोलेपन मेरे जीवन की थाती है.
दीप यहाँ मैं / दूर कहीं तू-
लेकिन मेरी बाती है.
माँ यहाँ है, बेटी दूर है लेकिन माँ की बाती है, माँ से पायी शिक्षा का प्रकाश वहाँ फैला रही है.
दीपक-बाती साथ रहें कुछ पल
तो तम् मिट जायेगा.
माँ की कामना बेटी घर आये, दीपक-बाती साथ रहें...
अगरु-धूप सा स्मृतियों का
धूम्र सुरभि फैलाएगा.

- pranavabharti@gmail.com ने कहा…

आ.शिशिर जी
कृपया confuse न हों,स्थितियां भिन्न होने पर भ़ी कहीं न कहीं उनमें आध्यात्मिक जुडाव मुझे नज़र आया| तीनों रचनाओं की फसल अलग है,भूमि एक ही है|
रचनाकार की मनोभूमि पर तीनों रचनाओं के भिन्न स्वरूप हैं|मुझे तीनों में ही कहीं न कहीं एक गंध,एक दृष्टि,एक विचार- साम्यता मिली|
अंतर्मुखी, एकाकी, आध्यात्मिक, पाठ पढ़ाना... ........आध्यात्म
बीमार माँ की कुशलता के लिए प्रार्थना...भौतिक माँ का बिटिया को पुकारना .....भौतिक
हमारी यात्रा कहीं भौतिक से आध्यात्म की ओर बढती है तो कभी आध्यात्म से भौतिक की ओर भ़ी|
"जल में कुंभ,कुंभ में जल है,बाहर भीतर पानी|" सबका लक्ष्य एक ही है |
सब में ही कहीं न कहीं वैचारिक साम्य है|यद्यपि रचनाएँ अलग-अलग हैं|
यह पाठक की मनोभूमि पर भ़ी आधारित होता है कि वह किस दृष्टि से रचना में झाँक रहा है|यह मनोभूमि भ़ी तो प्रतिपल बदलती रहती है |
मैंने तीनों रचनाओं को मिलाकर प्रतिक्रिया देने का प्रयत्न किया है|मैंने अपनी सूक्ष्म बुद्धि से तीनों रचनाओं पर दृष्टिपात किया है|
आ.आचार्य जी ने एक रचना के बारे में खोलकर लिखा है|
घन्यवाद आचार्य जी |
सादर
प्रणव भारती

salil ने कहा…

प्रणव भारती जी!
हमारी यात्रा कहीं भौतिक से आध्यात्म की ओर बढती है तो कभी आध्यात्म से भौतिक की ओर भ़ी... आपने सही अनुमाना है... मेरी अन्य रचनाओं में भी मूलतः एक ही धारा अन्तर्निहित है. माननीया डॉ. मृदुल कीर्ति जी इस तत्व को सराहती रही हैं. सिर्फ भौतिक धरातल पर आकलन से रचनाओं के वास्तविक अर्थ की प्रतीति कठिन है. आपका साधुवाद.