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रविवार, 28 अगस्त 2022

संगीता भारद्वाज, यादों के पलाश

पुरोवाक्

'यादों के पलाश' : खिलखिलाएँ घोलकर बताश
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

'याद बिन किए, याद आते हैं।   
यादें बनते पलाश भाते हैं।।  
श्वास में आस है बंबुलिया सी-
नेह-नर्मदा नित नहाते हैं।।  

                                   'यादों के पलाश' जिसकी  ज़िन्दगी में हों, उसके सदा सुखी होने में किंचित मात्र भी संदेह नहीं हो सकता। उसकी स्वास 'संगीता' और आस पुनीता  होती है। भवसागर के कुरुक्षेत्र में, कर्म की गीता उसे पढ़नी नहीं पड़ती। स्वप्रेरणा से ही उसे फल की फ़िक्र छोड़कर, कर्म करने का अभ्यास होता जाता है। संसार के सफर में 'मुसाफि'र की तरह, राहों और पड़ावों से बिना मोह किए, 'जस की तस धर दीनी चदरिया' का संतोष पा सके 'पथिक' को, चिर 'तरुण' बनाए रखकर, उसकी स्मृतियों को बताशे की तरह मिठास युक्त 'मधुर' बना देता है। उसकी सहजता, सरलता, सुलभता और सरसता उसके स्नेही जनों को संतोष का पाथेय देकर 'यादों के पलाश' से प्राप्त कुसुंबी रंग में रंगकर 'हर दिन होली, रात दिवाली' की सुखद मनस्थिति में रखती है। आत्म को जय कर 'जयंत' हुआ उसका 'मैं' परमात्म को पाकर भी आत्मजों में जीवित रहा आता है। 'यादों के पलाश' में पृष्ठ-पृष्ठ पर, पंक्ति-पंक्ति में, शब्द-शब्द में उस अक्षर की अनुभूति होती है। तरुणात्मजा संगीता पिता को (सप्रयास) याद नहीं करती, उसकी श्वास, आस, हास और प्यास में तरुणाई के बोल स्वयमेव रास करते प्रतीत होते हैं। 'यादों के पलाश' देखकर अंजुरी में भरने का मोह होना स्वाभाविक है। जिसके स्नेह की स्मृतियाँ संजीवित रखकर सलिलता प्रदान करती हैं, उसे अधरों से अधिक मन की आसंदी सुहाती है-  
 
'याद जिसकी भुलाना मुश्किल है,
याद उसका न आना मुश्किल है। 
याद के पाश है पलाशों से -
याद का रंग; जाना मुश्किल है।। 

                                   'जबलपुर के जवाहर', 'तमसा के दिनकरो नमन' कहते हुए यादों की प्रथम रश्मि बनकर 'आस्था के शतदल' ही नहीं खिलाते, 'ज्वालगीत' भी बन जाते हैं। 'मुक्ताबंध' बने 'जीवन के रंग' 'सुधियों के राजहंस' की तरह कर्म-तरंगों पर 'घर-आँगन के रंग' बनकर नीर-क्षीर विवेक की थाती स्वजनों को सौंपने में नहीं हिचकते। 'उनकी कलम' स्नेह सलिला में डूबती-उतराती' पल-पल 'कृपालु' का स्मरण कर धन्य होती है। राष्ट्रभक्ति के पथ पर बढ़ते कदम 'जन्मों के मीत की तरह' 'ह्रदय के दर्पण में यादों के रूप' बनकर अठखेलियाँ करते हैं। जीवन का हर 'नया मोड़' एक 'नया व्याकरण' सिखाता है। उषा की रतनार 'चितवन' का 'प्रथम स्पर्श' ;ज़िंदगी के खूबसूरत पन्ने' लिखते हुए बार-बार याद दिलाता है कि हर 'साँझ नई भोर ले आती है'। 'मन की सरिता' में तैरते 'सपन के फूल' 'धरती की उमंग' को 'प्रकृति के रूप' में चित्रित करती है और 'स्नेह का बदलता स्वरूप' 'अर्पण-समर्पण' के नए अध्याय रच देता है। 'नयन कलश के अर्ध्य' 'ख़ामोशी' से 'इंतजार' करते हैं, 'सारा जग मौन' होकर कह उठता हैं 'कोई तो साज उठाओ' 'धूप ये चाँदनी बन जाएगी'। अनंत हो गए' 'रूप का आकर्षण' कह उठता है भले ही 'यादें कंवल हो गईं' हैं किंतु 'तुम्हारे जीवन का राग हूँ मैं'। 'स्वयंसिद्धा नारी स्वयं शक्ति स्वरूपा' है; यह सनातन 'जीवन सत्य' जानते हुए भी 'मन की अभिलाषा' तन की मुँडेर पर बैठी गौरैया की तरह 'आशा और विश्वास' की 'भावभूमि' में 'सद्यस्नाता चाँदनी' के 'सवाल' सुन 'प्यासी बरसात' में कह उठती है 'आज मैं 'आकाश हो गई'। 'ज़िंदगी और मैं'  'तेरा नाम' लेते-लेते 'कोरा भ्रम' पाल बैठे हैं कि 'शायद तुम पास नहीं हो' पर 'तुम बसंत से आते हो', 'मन का कोना', 'बावरा बादल' बनकर; 'उदासी चाँद की' 'प्यासी रेत पर' उड़ेलकर; 'ख़ामोशी और दर्द' के 'अहसास' जगाते हो और हम संकल्प लेते हैं कि 'अवनि को आकाश बनाएँगे'। 

                                   'माँ' के रूप में 'तेरी याद ज्यों किरण की तरह' गले लगा लेती है। तुम्हारा हर गीत 'खामोश कथन' बनकर 'यात्राओं की तलाश' करता है। किताब के पन्ने 'पीले हो गए है' पर उन पर छपे गीत अब भी 'जीवन सच होता सपना' का उद्घोष करते हैं। 'तुम! जीवन के गीत मेरे'  'दर्द का कथन', 'अश्रु के भाव' तुम्हें समर्पित हैं। आशीषित करो कि नव पीढ़ी 'युवा शक्ति - एक आह्वान' कर सके, तुम्हारे गीतों में अंतर्निहित दिव्यता से अपना जीवन आलोकित कर सके। 'उनकी कलम' 'विरासत का परचम लिए', 'कभी धानी-बासंती चूनर ओढ़ती, कभी सपनों को तमाम रात जागकर अपनी आँखों में समेटती, कभी दरीचों से झाँकती, कभी माँ नर्मदा की लय और तरलता में कुछ तलाशती, कभी जिद्दी बच्चे सी मचल जाती, कभी पाषाण में प्राण का संचार करती। संगीता के भावोद्गारों को पढ़कर प्रतीति होती है कि कलम से आशीषित हो पाना भाग नहीं सौभाग्य का विषय है। 'यादों के पलाश' जितने सुर्खरू होते हैं, खोए को पाने की तलब उतनी ज्यादा होती है और तब यादें कँवल हो जाती हैं -

'एक प्राचीन जर्जर इमारत थी मैं 
उनकी केवल छुअन से नवल हो गई।।

                                  अनुभूत को अभिव्यक्त करने की कला ही कविता करना है। काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी लय-खण्ड द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छांदस विधानों में ढाली गई हो। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो अर्थात् वह जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है। 'अर्थ की रमणीयता' के अंतर्गत शाब्दिक रमणीयता (शब्दलंकार आदि) मान्य हैं। 'अर्थ' की 'रमणीयता' बहुआयामी है। साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ के अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है'। रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है। काव्यप्रकाश में काव्य के तीन प्रकार ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र कहे गए हैं। ध्वनि में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो। गुणीभूत ब्यंग्य वह जिसमें व्यंजना गौण हो। चित्र या अलंकार में बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो। काव्य के दो अन्य भेद  महाकाव्य और खंड काव्य हैं। काव्य को दृश्य और श्रव्य में भी वर्गीकृत किया गया है। दृश्य काव्य नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने सुनने योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य के दो प्रकार गद्य और पद्य हैं। गद्य काव्य के दो भेद कथा और आख्यायिका हैं। चंपू, विरुद और कारंभक तीन प्रकार के काव्य और माने गए है। 'यादों के पलाश' केवल काव्य संग्रह नहीं है, इसमें संगीता के चित्रों के साथ उसके जीवन साथी जयंत जी के बनाए सुंदर रेखाचित्र तथा सुंदर हस्तलिपि 'सोने में सुहागा' की तरह हैं। इस तरह यह श्रव्य-दृश्य काव्य का रमणीय सम्मिश्रण हो गया है। संगणक के वर्तमान दौर में हस्तलिपि में पुस्तक प्रकाशन का ऐसा प्रयोग हिंदीभूषण अभियंता देवकीनंदन 'शांत' लखनऊ ने अपने ग़ज़ल संग्रह 'तलाश' में भी किया है। रचनाओं और रेखाचित्रों के मणिकांचनी संयोग की यह परंपरा आगे बढ़ती रहनी चाहिए। कलम और कागज़ से नाता तोड़कर चलभाषा और लैपटॉप की गुलाम होती नई पीढ़ी को लिखने के प्रति आकर्षित कर सकते हैं ऐसे प्रयास।   

                                  संगीता किताबी नहीं स्वाभाविक प्राकृतिक-कवयित्री है। वह अनुभूतियों को मात्राओं-वर्णों का बंदी न बनाकर उन्हें भावाकाश में मुक्त उड़ान भरने देती है और फिर शब्द बद्धकर लेती है। इसलिए 'यादों के पलाश' के गीत किसी उद्यान में माली द्वारा काँट-छाँट कर उगाई गई पौधाकृतियों की तरह दिखावटी न होकर वन प्रांतर में पुरवैया और पछुआ के साथ झूलते-झूमते विटप कुंजों की तरह महकते-चहकते हैं। स्वाभाविक है कि ये गीत उसे 'जन्मों के मीत से लगे'। वह कहती है - 'तुममें खुद को पा जाऊँ मैं / तुम ही तुम में छा जाऊँ मैं प्रीत की सच्ची रीत यही है....'। 'हृदय के दरपन में यादों का रूप' 'नया मोड़' आते ही बिटिया की भोली 'चितवन' में नवशा देखती है-

वह कदम-दर-कदम आगे बढ़ रही है 
नए-नए अपनी कला के कसीदे गढ़ रही है 

                                  जीवन के संबंधों का नया व्याकरण पढ़ती-गढ़ती कवयित्री समुन्दर की रेत के समीकरण हल करते-करते मन मोहते प्रात: अलंकरण तथा खिलखिलाते मुक्तकों के आचरण की जयकार गुँजाती है। 'काँटों के बियाबान' में 'फूलों के गाँव का प्रथम स्पर्श' पाकर 'साँझ' नई भोर ले आती है और 'ज़िंदगी के कुछ खूबसूरत पन्ने', 'मन की सरिता' में प्रवाहित होते 'सपन के फूल' 'धरती के उमंग के साक्षी बन जाते हैं। राजधानी निवासी कवयित्री की रग-रग में संस्कारधानी और नेह नर्मदा रची-बसी है। उसे प्रकृति के सौंदर्य का रसपान कर स्वर्गिक आनंद की प्रतीति होती है-

एक मीठी सी सुगंध छाई है अंग-अंग 
वसुंधरा के तरंग, है नभ के संग-संग 
इस भीगे मौसम में छिपी कहीं आग है 
इन पास ब्वॉयंडों में जीवन का राग है 
मधु भीने रस के फुहार यूँ चल रहे 
सुरभित से पुष्पों में नव स्वप्न पल रहे 

                                  स्नेह का बदलता स्वरूप देखकर साँसों और आसों का, अरमान और मुस्कान का पलाश हो जाना स्वाभाविक है-

उलझी सी अलकों में खुलती सी लड़ियाँ 
सुलझी सी पलकों में खिलती सी कलियाँ 
आधरों में छिपे-छिपे आप ज्यों हँसे 
मारक मुस्कान ही पलाश हो गई 

                                  'सारा जग मौन' रहकर 'इन्तिज़ार' करने के बाद मनमीत का संग-साथ पाकर 'स्व' को बिसर कर 'सर्व' की प्राप्ति की प्रतीति कर सके, जीवन की सार्थकता इसी में है। तभी यह अनंत की अनुभूति होती है और मन संत हो जाता है- 

गुलाबी कपोल हो उठे लाल
टेसू खिलते ज्यों मधुवन में 
जग की खुशियाँ सिमट गईं जब 
प्रिय के मधु अंकित चुंबन में 
लहराया खुशियों का सागर 
सृष्टि-सृजन जब एक हो गए 
तृप्त हुई तृष्णा की गागर 
मन देह प्राण अनंत हो गए 

                                  'अर्पण-समर्पण' के पल 'नयन कलश के अर्ध्य' लिए प्रणयाभूतिक सघनता के पलों में धूप को चाँदनी बनते देखती है- 

लटों से उलझ गई जो धूप कहीं
छनते-छनते धूप ये चाँदनी बन जाएगी 

                                  'रूप का आकर्षण', प्रतिबिंबित हो तुम', 'मन की अभिलाषा', 'प्यासी बरसात', 'जीवन सत्य', 'आशा और विश्वास', 'सद्यस्नाता चाँदनी', भाव भूमि', तुम बसंत से आते हो, बावरा बादल, शायद तुम पास नहीं हो आदिरचनाओं में कवयित्री की कलम श्रृंगार सलिला में डूबती-उतराती विविध भाव भंगिमाओं को शब्दित करती है। श्रृंगार गीतों को काल-बाह्य मानवले कवियों और समीक्षकों को यह कृति आइना दिखाकर घोषणा करती है कि श्रृंगार मानव जीवन का उत्स है जो कभी काल-बाह्य नहीं हो सकता। कृति में श्रृंगार के दोनों पक्ष मिलन-और विरह का सम्यक-सरस समावेश है। 

 जब वो दूर जाते हैं अकसर 
उन्हें रागिनी में ढलते देखा है 
उदासी का अँधेरा है फिर भी 
हर नज़र में खवाब पलते देखा है 

                                  गीतों, कविताओं और मुक्तिकाओं (हिंदी ग़ज़लों) के साथ कथ्यानुरूप नयनाभिराम रेखाचित्र भाव-प्रवाह में सहायक हैं। संगीता चंद पारंपरिक छंदों की कैद में अपने कथ्य को विस्तारित होने से नहीं रोकती,  कथ्य के अनुरूप छंद को अपनाती है। वह पदभार की समानता को अनिवार्य न मानकर कथ्यानुरूप शब्द-चयन को वरीयता देती है। यह शैली कहीं-कहीं मात्रा या वर्ण भार की असमानता को सहजता के साथ ग्रहण करती है किन्तु उससे लय भंग नहीं होती। संगीता तत्सम-तद्भव, देशज-अदेशज (अन्य भाषाओँ के) शब्दों के चयन के प्रति दुराग्रही नहीं है। उसके लिए भाव की अभिव्यक्ति प्रधान है। शब्द किस जमीन से, किस भाषा से, किस देश से, किस काल से आया है यह महत्वहीन है। भाषिक शुद्धता के प्रति दुराग्रही, संकीर्ण दृष्टि संपन्न अंधभक्त नाम-भौं सिकोड़ेंगे, कवयित्री इसकी चिंता नहीं करती। यह स्वस्थ्य सुपुष्ट सृजन परंपरा उसे अपने पितामह और पिता श्री से विरासत में पाई है। 'मन का कोना' का 'छायादार दरख्त', 'चटाई', सुगंधित पुष्प बेल, तुलसी का बिरवा, सूर्य को अर्ध्य आदि उस सनातन जीवन पद्धति को पुष्ट करते हैं जिससे हम मुँह मोड़कर पछता रहे हैं किंतु नई पीढ़ी को उससे जोड़ भी नहीं पा रहे हैं। जड़ों से जुड़ने की ऐसी सारस्वत समिधाओं के लिए संगीता साधुवाद की पात्र है। 

                                  ख़ामोशी और दर्द, प्यासी रेत, दर्द का कथन, कोरा भरम आदि रचनाएँ इस कृति को गंगो-जमुनी धूप-छाँव से समृद्ध करती हैं। 'युवा शक्ति एक आह्वान' जैसी सन्देशवाही रचनाएँ, माँ और दादी को समर्पित की गई पारिवारिक नातों को जीती रचनाएँ अनेकता में एकता की प्रतीति कराती हैं। ये यादों के पलाश स्मृतियों की सुगंध से सराबोर हैं। इन्हें समर्पित करता हूँ अपनी कुछ पंक्तियाँ-     

नवगीत : पलाश 
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खिल-खिलकर
गुल झरे
पलाशों के...
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ऊषा के
रंग में
नहाए से,
संध्या को
अंग से
लगाए से। 
खिलखिलकर
हँस पड़े
अलावों से...
.
लजा रहे
गाल हुए
रतनारे,
बुला रहे
नैन लिये
कजरारे। 
लुक-छिपकर
मिल रहे
भुलावों से...
.
नयनों में 
अश्रु लिए 
मौन रहें,
पीर सहें 
धीर धरें 
पर न बहें। 
गले मिलें 
बचपनी 
लगावों से....

                                  'यादों के पलाश' की रचनाएँ गूँगे के गुड़ की तरह बार-बार याद गुनगुनाई जाएँगी, मौके-बेमौके फिर-फिर याद आएँगी केवल कवयित्री को नहीं; पाठकों को भी। रचनाओं की मर्मस्पर्शिता, निश्छलता। मोहकता और मौलिकता पाठकों को उस परिवेश से जोड़ सके जिसे स्मरण कर इन्हें रचा गया है। 
***
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com 

 
 

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