श्रद्धांजलि
सुषमा गईं, डूबा अरुण भी, शोक का है यह समय।
गौरव बढ़ाया देश का, देगा गवाही खुद समय।।
जन से सदा रिश्ते निगाहे, थे प्रभावी दक्ष भी-
वाक्पटुता-विद्वता अद्भुत रही कहता समय।।
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दल से उठे ऊपर, कमाया जन-समर्थन नाम भी।।
दृढ़ता-प्रखरता-अभयता का त्रिवेणी दोनों रहे-
इतिहास लेगा नाम दोनों ने किए सत्कार्य भी।।
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छंद सलिला
नवाविष्कृत मात्रिक दंडक
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विधान-
प्रति पद ५६ मात्रा।
पदांत-भगण।
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अवस्था का बहाना मत करें, जब जो बने करिए, समय के साथ भी चलिए, तभी होगा सफल जीवन।
गिरें, उठकर बढ़ें मंजिल मिले तब ही तनिक रुकिए, न चुकिए और मत भगिए, तभी फागुन बने सावन।
न सँकुचें लें मदद-दें भी, न कोई गैर है जग में, सभी अपने न सच तजिए, कहें सच मन न हो उन्मन-
विरागी हों या अनुरागी, करें श्रम नित्य तज आलस, न केवल मात्र जप करिए, स्वेद-सलिला करे पावन।।
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टीप-छंद लक्षणानुसार नाम सुझाएँ।
संजीव
२४-८-२०१९
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व्यंग्य लेख
अफसर, नेता और ओलंपिक
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ओलंपिक दुनिया का सबसे बड़ा खेल कुंभ होता है। सामान्यत:, अफसरों और नेताओं की भूमिका गौड़ और खिलाडियों और कोचों की भूमिका प्रधान होना चाहिए। अन्य देशों में ऐसा होता भी है पर इंडिया में बात कुछ और है। यहाँ अफसरों और नेताओं के बिना कौआ भी पर नहीं मार सकता। अधिक से अधिक अफसर सरकारी अर्थात जनगण के पैसों पाए विदेश यात्रा कर सैर-सपाट और मौज-मस्ती कर सकें इसलिए ज्यादा से ज्यादा खिलाडी और कोच चुने जाने चाहिए। खिलाडी ऑलंपिक स्तर के न भी हों तो कोच और अफसर फर्जी आँकड़ों से उन्हें ओलंपिक स्तर का बता देंगे। फर्जीवाड़ा की प्रतियोगिता हो तो स्वर्ण, रजत और कांस्य तीनों पदक भारत की झोली में आना सुनिश्चित है। यदि आपको मेरी बात पर शंका हो तो आप ही बताएं की इन सुयोग्य अफसरों और कोचों के मार्गदर्शन में जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर श्रेष्ठ प्रदर्शन और ओलंपिक मानकों से बेहतर प्रदर्शन कर चुके खेलवीर वह भी एक-गो नहीं सैंकड़ों अपना प्रदर्शन दुहरा क्यों नहीं पाते?
कोई खिलाडी ओलंपिक तक जाकर सर्वश्रेष्ठ न दे यह नहीं माना जा सकता। इसका एक ही अर्थ है कि अफसर अपनी विदेश यात्रा की योजना बनाकर खिलाडियों के फर्जी आँकड़े तैयार करते हैं जिसमें इन्डियन अफसरशाही को महारत हासिल है। ऐसा करने से सबका लाभ है, अफसर, नेता, कोच और खिलाडी सबका कद बढ़ जाता है, घटता है केवल देश का कद। बिके हुई खबरिया चैनल किसी बात को बारह-चढ़ा कर दिखाते हैं ताकि उनकी टी आर पी बढ़े, विज्ञापन अधिक मिलें और कमाई हो। इस सारे उपक्रम में आहत होती हैं जनभावनाएँ, जिससे किसी को कोई मतलब नहीं है।
रियो से लौटकर रिले रेस खिलाडी लाख कहें कि उन्हें पूरी दौड़ के दौरान कोई पेय नहीं दिया गया, वे किसी तरह दौड़ पूरी कर अचेत हो गईं। यह सच सारी दुनिया ने देखा लेकिन बेशर्म अफसरशाही आँखों देखे को भी झुठला रही है। यह तय है कि सच सामने लानेवाली खिलाड़ी अगली बार नहीं चुनी जाएगी। कोच अपना मुँह बंद रखेगा ताकि अगली बार भी उसे ही रखा जाए। केर-बेर के संग का इससे बेहतर उदाहरण और कहाँ मिलेगा? अफसरों को भेज इसलिए जाता है की वे नियम-कायदे जानकार खिलाडियों को बता दें, आवश्यक व्यवस्थाएं कर दें ताकि कोच और खिलाडी सर्वश्रेष्ठ दे सकें पर इण्डिया की अफसरशाही आज भी खुद को खुदमुख्तार और बाकि सब को गुलाम समझती है। खिलाडियों के सहायक हों तो उनकी बिरादरी में हेठी हो जाएगी। इसलिए, जाओ, खाओ, घूमो, फिरो, खरीदी करो और घरवाली को खुश रखो ताकि वह अन्य अफसरों की बीबीयों पर रौब गांठ सके।
रियो ओलंपिक में 'कोढ़ में खाज' खेल मंत्री जी ने कर दिया। एक राजनेता को ओलंपिक में क्यों जाना चाहिए? क्या अन्य देशों के मंत्री आते है? यदि नहीं, तो इंडियन मंत्री का वहाँ जाना, नियम तोडना, चेतावनी मिलना और बेशर्मी से खुद को सही बताना किसी और देश में नहीं हो सकता। व्यवस्था भंग कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करने की दयनीय मानसिकता देश और खिलाडियों को नीच दिखती है पर मोटी चमड़ी के मंत्री को इस सबसे क्या मतलब?
रियो ओलंपिक के मामले में प्रधानमंत्री को भी दिखे में रख गया। पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने खिलाडियों का हौसला बढ़ाने के लिए उनसे खुद पहल कर भेंट की। यदि उन्हें बताया जाता कि इनमें से किसी के पदक जीतने की संभावना नहीं है तो शायद वे ऐसा नहीं करते किन्तु अफसरों और पत्रकारों ने ऐसा माहौल बनाया मानो भारत के खलाड़ी अब तक के सबसे अधिक पदक जीतनेवाले हैं। झूठ का महल कब तक टिकता? सारे इक्के एक-एक कर धराशायी होते रहे।
अफसरों और कर्मचारियों की कारगुजारी सामने आई मल्ल नरसिह यादव के मामले में। दो हो बाते हो सकती हैं। या तो नरसिंह ने खुद प्रतिबंधित दवाई ली या वह षड्यन्त्र का शिकार हुआ। दोनों स्थितियों में व्यवस्थापकों की जिम्मेदारी कम नहीं होती किन्तु 'ढाक के तीन पात' किसी के विरुद्ध कोइ कदम नहीं उठाया गया और देश शर्मसार हुआ।
असाधारण लगन, परिश्रम और समर्पण का परिचय देते हुए सिंधु, साक्षी और दीपा ने देश की लाज बचाई। उनकी तैयारी में कोई योगदान न करने वाले नेताओं में होड़ लग गयी है पुरस्कार देने की। पुरस्कार दें है तो पाने निजी धन से दें, जनता के धन से क्यों? पिछले ओलंपिक के बाद भी यही नुमाइश लगायी गयी थी। बाद में पता चला कई घोषणावीरों ने खिलाडियों को घोषित पुरस्कार दिए ही नहीं। अत्यधिक धनवर्षा, विज्ञापन और प्रचार के चक्कर में गत ओलंपिक के सफल खिलाडी अपना पूर्व स्तर भी बनाये नहीं रख सके और चारों खाने चित हो गए। बैडमिंटन खिलाडी का घुटना चोटिल था तो उन्हें भेजा ही क्यों गया? वे अच्छा प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकीं लंबी शल्यक्रिया के लिए विवश भी हो गयीं।
होना यह चाइये की अच्छा प्रदर्शन कर्नेवले खिलाडी अगली बार और अच्छा प्रदर्शन कर सकें इसके लिए उन्हें खेल सुविधाएँ अधिक दी जानी चाहिए। भुकमद, धनराशि और फ़्लैट देने नहीं सुधरता। हमारा शासन-प्रशासन परिणामोन्मुखी नहीं है। उसे आत्मप्रचार, आत्मश्लाघा और व्यक्तिगत हित खेल से अधिक प्यारे हैं। आशा तो नहीं है किन्तु यदि पूर्ण स्थिति पर विचार कर राष्ट्रीय खेल-नीति बनाई जाए जिसमें अफसरों और नेताओं की भूमिका शून्य हो। हर खेल के श्रेष्ठ कोच और खिलाडी चार सैलून तक प्रचार से दूर रहकर सिर्फ और सिर्फ अभ्यास करें तो अगले ओलंपिक में तस्वीर भिन्न नज़र आएगी। हमारे खिलाडियों में प्रतिभा और कोचों में योग्यता है पर गुड़-गोबर एक करने में निपुण अफसरशाही और नेता को जब तक खेओं से बाहर नहीं किया जायेगा तब तक खेलों में कुछ बेहतर होने की उम्मीद आकाश कुसुम ही है।
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हिंदी दिवस पर विशेष
मुहावरा कौआ स्नान
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कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
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पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
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पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
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नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
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निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
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घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
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जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
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पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी देखो आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
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रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
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गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
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उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
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बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
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दोहा सलिला:
शिक्षक पारसमणि सदृश...
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शिक्षक पारसमणि सदृश, करे लौह को स्वर्ण.
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सत-शिव-सुंदर साध्य है, साधन शिक्षा-ज्ञान.
सत-चित-आनंद दे हमें, शिक्षक गुण-रस-खान..
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शिक्षक शिक्षा दे सदा, सकता शिष्य निखार.
कंकर को शंकर बना, जीवन सके सँवार..
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शिक्षक वह जो सिखा दे, भाषा गुण विज्ञान.
नेह निनादित नर्मदा, बहे बना गुणवान..
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प्रतिभा को पहचानकर, जो दिखलाता राह.
शिक्षक उसको जानिए, जिसमें धैर्य अथाह..
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जान-समझ जो विषय को, रखे पूर्ण अधिकार.
उस शिक्षक का प्राप्य है, शत शिष्यों का प्यार..
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शिक्षक हो संदीपनी, शिष्य सुदामा-श्याम.
बना सकें जो धरा को, तीरथ वसुधा धाम..
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विश्वामित्र-वशिष्ठ हों, शिक्षक ज्ञान-निधान.
राम-लखन से शिष्य हों, तब ही महिमावान..
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द्रोण न हों शिक्षक कभी, ले शिक्षा का दाम.
एकलव्य से शिष्य से, माँग अँगूठा वाम..
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शिक्षक दुर्वासा न हो, पल-पल दे अभिशाप.
असफल हो यदि शिष्य तो, गुरु को लगता पाप..
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राधाकृष्णन को कभी, भुला न सकते छात्र.
जानकार थे विश्व में, वे दर्शन के मात्र..
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महीयसी शिक्षक मिलीं, शिष्याओं का भाग्य.
करें जन्म भर याद वे, जिन्हें मिला सौभाग्य..
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शिक्षक मिले रवीन्द्र सम, शिष्य शिवानी नाम.
मणि-कांचन संयोग को, करिए विनत प्रणाम..
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ओशो सा शिक्षक मिले, बने सरल-हर गूढ़.
विद्वानों को मात दे, शिष्य रहा हो मूढ़..
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हो कलाम शिक्षक- 'सलिल', झट बन जा तू छात्र.
गत-आगत का सेतु सा, ज्ञान मिले बन पात्र..
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ज्यों गुलाब के पुष्प में, रूप गंध गुलकंद.
त्यों शिक्षक में समाहित, ज्ञान-भाव-आनंद..
२४-८-२०१६
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मंदिर अलंकार
हिंदी पिंगल ग्रंथों में चित्र अलंकार की चर्चा है. जिसमें ध्वज, धनुष, पिरामिड आदि के शब्द चित्र की चर्चा है. वर्तमान में इस अलंकार में लिखनेवाले अत्यल्प हैं. मेरा प्रयास मंदिर अलंकार
ॐ
हिंदी
जन-मन में बसी
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर छा रहा कैसा अद्भुत नूर
जन आकांक्षा गीत है,जनगण-हित संतूर
२४-८-२०१५
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नवगीत:
मस्तक की रेखाएँ …
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कहें कौन बाँचेगा?
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आँखें करतीं सवाल
शत-शत करतीं बवाल।
समाधान बच्चों से
रूठे, इतना मलाल।
शंका को आस्था की
लाठी से दें हकाल।
उत्तर न सूझे तो
बहाने बनायें टाल।
सियासती मन मुआ
मनमानी ठाँसेगा …
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अधरों पर मुस्काहट
समाधान की आहट।
माथे बिंदिया सूरज
तम हरे लिये चाहत।
काल-कर लिये पोथी
खोजे क्यों मनु सायत?
कल का कर आज अभी
काम, तभी सुधरे गत।
जाल लिये आलस
कोशिश पंछी फाँसेगा…
२४-८-२०१४
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