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रविवार, 7 अगस्त 2022

सुषमा स्वराज,लघुकथा,दोहा सलिला

भावांजलि
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शारद सुता विदा हुई, माँ शारद के लोक
धरती माँ व्याकुल हुई, चाह न सकती रोक
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सुषमा से सुषमा मिली, कमल खिला अनमोल
मानवता का पढ़ सकीं, थीं तुम ही भूगोल
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हर पीड़ित की मदद कर, रचा नया इतिहास
सुषमा नारी शक्ति का, करा सकीं आभास
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पा सुराज लेकर विदा, है स्वराज इतिहास
सब स्वराज हित ही जिएँ, निश-दिन किए प्रयास
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राजनीति में विमलता, विहँस करी साकार
ओजस्वी वक्तव्य से, दे ममता कर वार
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वाक् कला पटु ही नहीं, कौशल का पर्याय
लिखे कुशलता के कई, कौशलमय अध्याय
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राजनीति को दे दिया, सुषमामय आयाम
भुला न सकता देश यह, अमर तुम्हारा नाम
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शब्द-शब्द अंगार था, शीतल सलिल-फुहार
नवरस का आगार तुम, अरि-हित घातक वार
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कर्म-कुशलता के कई, मानक रचे अनन्य
सुषमा जी शत-शत नमन, पाकर जनगण धन्य
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शब्दों को संजीव कर, फूँके उनमें प्राण
दल-हित से जन-हित सधे, लोकतंत्र संप्राण
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महिमामयी महीयसी, जैसा शुचि व्यक्तित्व
फिर आओ झट लौटकर, रटने नव भवितव्य
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चिर अभिलाषा पूर्ति से, होकर परम प्रसन्न
निबल देह तुमने तजी, हम हो गए विपन्न
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युग तुमसे ले प्रेरणा, रखे लक्ष्य पर दृष्टि
परमेश्वर फिर-फिर रचे, नव सुषमामय सृष्टि
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संजीव
७-८-२०१९
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लघुकथा
बेपेंदी का लोटा
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'आज कल किसी का भरोसा नहीं, जो कुर्सी पर आया लोग उसी के गुणगान करने लगते हैं और स्वार्थ साधने की कोशिश करते हैं। मनुष्य को एक बात पर स्थिर रहना चाहिए।' पंडित जी नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे।
प्रवचन से ऊब चूका बेटा बोल पड़ा- 'आप कहते तो ठीक हैं लेकिन एक यजमान के घर कथा में सत्यनारायण भगवान की जयकार करते हैं, दूसरे के यहाँ रुद्राभिषेक में शंकर जी की जयकार करते हैं, तीसरे के निवास पर जन्माष्टमी में कृष्ण जी का कीर्तन करते हैं, चौथे से अखंड रामायण करने के लिए कह कर राम जी को सर झुकाते हैं, किसी अन्य से नवदुर्गा का हवन करने के लिए कहते हैं। परमात्मा आपको भी तो कहता होंगे बेपेंदी का लोटा।'
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लघुकथा
शर संधान
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आजकल स्त्री विमर्श पर खूब लिख रही हो। 'लिव इन' की जमकर वकालत कर रहे हैं तुम्हारी रचनाओं के पात्र। मैं समझ सकती हूँ।
तू मुझे नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा?
अच्छा है, इनको पढ़कर परिवारजनों और मित्रों की मानसिकता ऐसे रिश्ते को स्वीकारने की बन जाए उसके बाद बताना कि तुम भी ऐसा करने जा रही हो। सफल हो तुम्हारा शर-संधान।
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लघुकथा
निज स्वामित्व
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आप लघुकथा में वातावरण, परिवेश या पृष्ठ भूमि क्यों नहीं जोड़ते? दिग्गज हस्ताक्षर इसे आवश्यक बताते हैं।
यदि विस्तार में जाए बिना कथ्य पाठक तक पहुँच रहा है तो अनावश्यक विस्तार क्यों देना चाहिए? लघुकथा तो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की विधा है न? मैं किसी अन्य विचारों को अपने लेखन पर बन्धन क्यों बनने दूँ। किसी विधा पर कैसे हो सकता है कुछ समीक्षकों या रचनाकारों का निज स्वामित्व?
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लघुकथा
दूषित वातावरण
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अपने दल की महिला नेत्री की आलोचना को नारी अपमान बताते हुए आलोचक की माँ, पत्नि, बहन और बेटी के प्रति अपमानजनक शब्दों की बौछार करते चमचों ने पूरे शहर में जुलूस निकाला। दूरदर्शन पर दृश्य और समाचार देख के बुरी माँ सदमें में बीमार हो गयी जबकि बेटी दहशत के मारे विद्यालय भी न जा सकी। यह देख पत्नी और बहन ने हिम्मत कर कुछ पत्रकारों से भेंट कर विषम स्थिति की जानकारी देते हुए महिला नेत्री और उनके दलीय कार्यकर्ताओं को कटघरे में खड़ा किया।
कुछ वकीलों की मदद से क़ानूनी कार्यवाही आरम्भ की। उनकी गंभीरता देखकर शासन - प्रशासन को सक्रिय होना पड़ा, कई प्रतिबन्ध लगा दिए गए ताकि शांति को खतरा न हो। इस बहस के बीच रोज कमाने-खानेवालों के सामने संकट उपस्थित कर गया दूषित वातावरण।
७-८-२०१७

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दोहा सलिला:
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए...
संजीव 'सलिल'
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'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए, 'तुम' जा बैठा दूर.
जो न देख पाया रहा, आँखें रहते सूर..
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'मैं' में 'तुम' जब हो गया, अपने आप विलीन.
व्याप गयी घर में खुशी, हर पल 'सलिल' नवीन..
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'तुम' से 'मैं' की गैरियत, है जी का जंजाल.
'सलिल' इसी में खैरियत, 'हम' बन हों खुशहाल..
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'मैं' ने 'मैं' को कब दिया, याद नहीं उपहार?
'मैं' गुमसुम 'तुम' हो गयी, रूठीं 'सलिल' बहार..
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'मैं' 'तुम' 'यह' 'वह' प्यार से, भू पर लाते स्वर्ग.
'सलिल' करें तकरार तो, दूर रहे अपवर्ग..
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'मैं' की आँखों में बसा, 'तू' बनकर मधुमास.
जिस-तिस की क्यों फ़िक्र हो, आया सावन मास..
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'तू' 'मैं' के दो चक्र पर, गृह-वाहन गतिशील.
'हम' ईधन गति-दिशा दे, बाधा सके न लील..
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'तू' 'तू' है, 'मैं' 'मैं' रहा, हो न सके जब एक.
तू-तू मैं-मैं न्योत कर, विपदा लाईं अनेक..
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'मैं' 'तुम' हँस हमदम हुए, ह्रदय हर्ष से चूर.
गाल गुलाबी हो गये, नत नयनों में नूर..
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'मैं' में 'मैं' का मिलन ही, 'मैं'-तम करे समाप्त.
'हम'-रवि की प्रेमिल किरण, हो घर भर में व्याप्त..
७-८-२०१२
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