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सोमवार, 1 अगस्त 2022

तारकेश्वरी तरु 'सुधि',बसंत शर्मा,बुधिया, दोहे,मुक्तक, लघुकथा,नागपंचमी, कायस्थ,नवगीत,सॉनेट,तिलक

सॉनेट 
तिलक 
*
तिलक आज होते; क्या करते?
क्या सत्ता सम्मुख झुक जाते?
मनमानी को शीश नवाते?
या चारण बन जय-जय गाते?

तिलक लोक में घुल-मिल जाते
लोक प्रथाओं को अपनाते 
नहीं तंत्र से डर झुक जाते  
रण की भेरी आप बजाते  

तिलक माथ पर तिलक लगाते 
जन जागृति का पथ अपनाते 
नित 'सुराज' का पाठ पढ़ाते 
दे 'स्वराज्य' को जीवन जाते 

तिलक न भय खाते-बिक जाते 
तिलक न निज सरकार गिराते  
१-८-२०२२ 
***
सॉनेट 
जनमत 
*
जनमत सिसके पीटो बाजा 
कर मनमानी हँस दिन-रात 
ठठा उठा अँगुली बेबात 
अंधेर नगरी चौपट राजा 

जनमत को ठेंगा दिखलाओ 
हो आराध्य-साध्य अब सत्ता 
शेष सभी का काटो पत्ता  
चुनी हुई सरकार गिराओ 

जनमत भौजाई गरीब की 
खींचो चीर न चिथड़ा छोड़ो 
सजा सुना दो झट सलीब की 

जनमत मारे, मरा न करता 
अवसर पाकर फिर जी जाता 
सत्ता को पग तल में धरता
१-८-२०२२  
*** 
सॉनेट 
उलट-पलट 
*
उलट-पलट दो सब सरकारें
उन्हें नहीं रहने का हक़ है 
जिनको तुम पर रहता शक है 
जो न तुम्हारी जय उच्चारें 

चीखो ऊँगली उठा-उठाकर 
आक्रामकता को अपनाकर 
निज गिरोह की जय-जय गाकर 
बिना बात आरोप लगाकर 

समय साथ है आज तुम्हारे 
साथ न हरदम कभी रहा रे!
जब बदले तब शीश धुंआ रे!

औरों ने अब तेरी बारी 
सम्हल, न फिर पीछे पछता री!
कहे बनती बात बिगारी 
१-८-२०२२ 
***
समीक्षा
सुधियों की देहरी पर - दोहों की अँजुरी



















*
[कृति विवरण: सुधियों की देहरी पर, दोहा संग्रह, तारकेश्वरी तरु 'सुधि', प्रथम संस्करण २०१९, आई.एस.बी.एन. ९७८९३८८४७१४८०, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ९५, मूल्य २००/-, अयन प्रकाशन दिल्ली,दोहाकार संपर्क : ९८२९३८९४२६, ईमेल tarkeshvariy@gmail.com]
*
दोहा के उद्यान में, मुकुलित पुष्प अशेष
तारकेश्वरी तरु 'सुधि', परिमल लिए विशेष
*
प्रथम सुमन अंजुरी लिए, आई पूजन ईश
गुणिजन दें आशीष हों, इस पर सदय सतीश
*
दोहा द्विपदी दूहरा, छंद पुरातन ख़ास
जीवन की हर छवि-छटा, बिम्बित लेकर हास
*
तेरह-ग्यारह कल बिना, दोहा बने न मीत
गुरु-लघु रखें पदांत हो, लय की हरदम जीत
*
लिए व्यंजना बन सके, दोहा सबका मित्र
'सलिल' लक्षणा खींच दे, शब्द-शब्द में चित्र
*
शब्द शक्ति की कर सके, दोहा हँस जयकार
अलंकार सज्जित छटा, मोहक जग बलिहार
*
'सुधि' गृहणी शिक्षिका भी, भार्या-माता साथ
कलम लिए दोहा रचे, जाने कितने हाथ
*
एक समय बहु काम कर, बता रही निज शक्ति
छंद-राज दोहा रुचे, अनुपम है अनुरक्ति
*
सुर वंदन की प्रथा का, किया विनत निर्वाह
गणपति-शारद मातु का, शुभाशीष ले चाह
*
करे विसंगति उजागर, सुधरे तनिक समाज
पाखंडों का हो नहीं, मानव-मन पर राज
*
"अंदर से कुछ और हैं, बाहर से कुछ और।
किस पर करें यकीन अब, अजब आज का दौर।।" पृष्ठ १७
*
नातों में बाकी नहीं, अपनापन-विश्वास
सत्य न 'तरु' को सुहाता, मन पाता है त्रास
*
"आता कोई भी नहीं, बुरे वक़्त में पास।
रंग दिखाएँ लोग वे, जो बनते हैं खास।।" पृष्ठ २०
*
'तरु' को अपने देश पर, है सचमुच अभिमान
दोहा साक्षी दे रहा, कर-कर महिमा-गान
*
उन्नत भाषा सनाकृति, मूल्य सोच परिवेश।
इनसे ही है विश्व गुरु अपना भारत देश।। पृष्ठ २२
*
अलंकार संपन्नता दोहों का वैशिष्ट्य
रूपक उपमा कथ्य से, कर पाते नैकट्य
*
उपवन में विचरण करे, मन-हिरणा उन्मुक्त।
ख्वाहिश बनी बहेलिया, करती माया मुक्त।। पृष्ठ २३
*
समता नहीं समाज में, क्यों? अनबूझ सवाल
सबको सम अवसर मिलें, होंगे दूर बवाल
*
ऊँच-नीच औ' जन्म पर, क्यों टिक गया विवाद।
करिए मन-मस्तिष्क को समता से आबाद।। पृष्ठ २४
*
कन्या भ्रूण न हननिए, वह जग जननी जान
दोहा दे संदेश यह, कहे कर कन्या का मान
*
करो न हत्या गर्भ में, बेटी तेरा वंश।
रखना है अस्तित्व में उसे किसी का वंश।। पृष्ठ २७
*
त्रुटि हो उसे सुधारिए, छिपा न करिए भूल
रोगों का उपचार हो, सार्थक यही उसूल
*
करती हूँ मैं गलतियाँ, होती मुझसे भूल।
गिरकर उठ जाना सदा मेरा रहा उसूल।। पृष्ठ २८
*
साँस न जब तक टूटती, सीखें सबक सदैव
खुद को ज्ञानी समझना, करिए दूर कुटैव
*
किसी मोड़ पर तुम नहीं, करो सीखना बंद।
जीवन को परवाज़ ही, देता ज्ञान स्वछंद ।। पृष्ठ ३०
*
पंछी चूजे पालते, बढ़ होते वे दूर
मनुज न चाहे दूर हों, सहते हो मजबूर
*
खून-पसीना एक कर, बच्चे किए जवान।
बसे मगर परदेस में, घर करके वीरान ।। पृष्ठ ३३
*
घर की रौनक बेटियाँ, वे घर का सम्मान।
उन्हें कलंकित मत करो, 'देना' सीखो मान।। पृष्ठ ३५
*
'देना' सीखो मान या, 'करना' सीखो मान?
जो 'देते' हो 'दूर' वह, 'करते' 'पास' निदान
*
गली-गली में खोलकर, अंग्रेजी स्कूल । पृष्ठ ३५
नौ मात्रिक दूजा चरण, फिर न करें यह भूल
*
कर्म आपका आपको, दे जाए सम्मान।
ऐसे क्रिया कलाप से, खींचो सबका ध्यान।। पृष्ठ २६
*
सम्मानित है 'आप' पर, 'खींचो' आज्ञायुक्त।
मेल न कर्ता-क्रिया में, शब्द चुनें उपयुक्त।।
*
आनेवाले वक़्त का, उसे न था कुछ भान।
जल में उत्तरी नाव फिर, लड़ी संग तूफ़ान ।। पृष्ठ १९
*
'नाव' नहीं 'नाविक' लड़े, यहाँ तथ्य का दोष
'चेतन' लड़ता 'जड़' नहीं, लें सुधार बिन रोष
*
अब बेटी के वास्ते, हुआ जागरूक देश। पृष्ठ १७
कल बारह-बारह यहाँ, गलती यहाँ विशेष
*
खुद को करो समर्थ यह, है उपयुक्त निदान
बनें बेटियाँ शक्तिमय, भारत की पहचान
*
चलो ध्यान से बेटियों, कदम-कदम पर गिद्ध।
तुम भी रखकर हौसला, करो स्वयं को सिद्ध ।। पृष्ठ ३६
*
'कर्म योग' का उचित है, देना शुभ संदेश
'भाग्य वाद' की जय कहें, क्यों हम साम्य न लेश
*
जिसका जितना है लिखा, देंगे दीनानाथ। पृष्ठ ४०
सत्य यही तो कर्म क्यों, कभी करेगा हाथ?
*
जिस घर भी पैदा हुई, खुशियाँ बसीं अपार।
बेटी से ही सृष्टि को, मिलता है विस्तार।। पृष्ठ ४०
*
अर्ध सत्य ही है यहाँ, बेटे से भी वंश
बढ़ता- संतति में रहे, मात-पिता का अंश
*
बेटी से सपने जुड़े, वो है मेरी जान।
जुडी उसे से भावना, वही सुखों की खान ।। पृष्ठ ६६
*
अतिरेकी है सोच यह, एकाकी है कथ्य
बेटे-बेटी सम लगें, मात-पिता को- तथ्य
*
रगड़-रगड़ कर धो लिए, तन के वस्त्र मलीन।
मन का कैसे साफ़ हो, गंदा जो कालीन ।। पृष्ठ ८०
*
बात सही तन-मन रखें, दोनों ही हम साफ़
वरना कभी करें नहीं, प्रभु जी हमको माफ़
*
शब्द न कोई भी रहे, दोहे में बिन अर्थ
तब सार्थकता बढ़े हो, दोहाकार समर्थ
*
भाषा शैली सहज है, शब्द चयन अनुकूल
पहली कृति में क्षम्य हैं, यत्र-तत्र कुछ भूल
*
'तरु' में है संभावना, दोहा ज्यों हो सिद्ध
अधिक सारगर्भित बने, भाव रहें आबिद्ध
*
दोहा-'तरु' में खिल सकें, सुरभित पुष्प अनेक
'सलिल' सींच दें 'सुधि' सहित, रख 'संजीव' विवेक
*
'तारकेश्वरी' ने किया, सार्थक सृजन प्रयास
बहुत बधाई है उन्हें, सिद्धि बहुत है पास
*
अगला दोहा संकलन, शीघ्र छपे आशीष
दोहा-संसद मिल कहे, दोहाकार मनीष ४९
*
होती है मुश्किल बहुत, कहना सच्ची बात।
बुरी बनूँ सच बोलकर, लेकिन करूँ न घात।। ।। पृष्ठ ९५
*
यही समीक्षक-धर्म है, यथाशक्ति निर्वाह
करे 'सलिल' मत रूठ 'सुधि', बहुत ढेर सी 'वाह'
***
बुधिया लेता टोह : चीख लगे विद्रोह



















स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य छायावादी रूमानियत (पंत, प्रसाद, महादेवी, बच्चन), राष्ट्रवादी शौर्य (मैथिली शरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी) और प्रगतिवादी यथार्थ (निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध) के संगुफन का परिणाम है। गीत के संदर्भ में परंपरा और नवता के खेमों में बँटे मठाधीश अपनी सुविधा और दंभ के चलते कुछ भी कहें और करें, यह सौभाग्य है कि हिंदी का बहुसंख्यक नव रचनाकार उन पर ध्यान नहीं देता, अनुकरण करना तो दूर की बात है। अपनी आत्म चेतना को साहित्य सृजन का मूलाधार मानकर, वरिष्ठों के विमर्श को अपने बौद्धिक तर्क के धरातल पर परख कर स्वीकार या अस्वीकार करने वाले बसन्त कुमार शर्मा ऐसे ही नव-गीतकार हैं जो नव-गीत और नवगीत को भारत पकिस्तान नहीं मानते और वह रचते हैं जो कथ्य की आवश्यकता है। नर्मदा तीर पर चिरकाल से स्वतंत्र चिंतन-मनन-सृजन की परंपरा रही है। रीवा नरेश रघुराज सिंह से लेकर गुजराती कवि नर्मद तक की यह परंपरा वर्तमान में भी निरंतर गतिमान है। बसन्त कुमार शर्मा राजस्थान की मरुभूमि से आकर इस सनातन प्रवाह की लघुतम बूँद बनने हेतु यात्रारंभ कर रहे हैं।
गीत-प्रसंग में तथाकथित प्रगतिवादी काव्य समीक्षकों द्वारा गीत को नकारने ही नहीं गीत के मरने की घोषणा करने और नवान्वेषण के पक्षधरों द्वारा गीत-तत्वों के पुनरावलोकन और पुनर्मूल्यांकन के स्थान पर निजी मान्यताओं को आरोपित करने ने नव रचनाकारों के समक्ष दुविधा उपस्थित कर दी है। 'मैं इधर जाऊँ कि उधर जाऊँ?' की मन:स्थिति से मुक्त होकर बसन्त ने शीत-ग्रीष्म के संक्रांति काल में वैभव बिखेरने का निर्णय किया तो यह सर्वथा उचित ही है। पारंपरिक गीत-तनय के रूप में नवगीत के सतत बदलते रूप को स्वीकारते हुए भी उसे सर्वथा भिन्न न मानने की समन्वयवादी चिंतन धारा को स्वीकार कर बसन्त ने अपनी गीति रचनाओं को प्रस्तुत किया है। नवगीत के संबंध में महेंद्र भटनागर के नवगीत: दृष्टि और सृष्टि की भूमिका में श्रद्धेय देवेंद्र शर्मा ने ठीक ही लिखा है "वह रचना जो बहिरंग स्ट्रक्चर के स्तर पर भले ही गीत न हो किन्तु वस्तुगत भूमि पर नवोन्मेषमयी हो उसे नवगीतात्मक ही कहना संगत होगा.... गीत के लिए जितना छंद आवश्यक है, उतनी लय। लय यदि आत्मा है तो छंद उसको धारण करने वाला कलेवर है। प्रकारांतर से लय यदि जनक है तो छंद उसको धारण करने वाला कलेवर है। कविकर्म के संदर्भ में कहा गया है- "छंदोभंग न कारयेत" और छंदोभंग की स्थिति जब रचनाकार का 'लय' पर अभीष्ट अधिकार न हो।... नवगीत विद्वेषी पारम्परिक (मंचीय) गीतकारों और नयी कविता के पक्षपाती इधर एक भ्रामक प्रचार करते नहीं थक रहे कि नवगीत में जिस बोध-पक्ष और चेतना-पक्ष का उन्मेष हुआ वह प्रयोगवाद और नयी कविता का ही 'उच्छिष्ट' है। ऐसी सोच पर हँसा या रोया ही जा सकता है।...'नवगीत' नयी 'कविता' का 'सहगामी' तो है, 'अनुगामी' कतई नहीं है।"
कवि बसन्त ने परंपरानुपालन करते हुए शारद-स्तवनोपरांत उन्हें समर्पित इन रचनाओं में 'लय' के साथ न्याय करते हुए 'निजता', 'तथ्यपरकता', 'सोद्देश्यता' तथा 'संप्रेषणीयता' के पंच पुष्पों से सारस्वत पूजन किया है। इनमें 'गीत' और 'नवगीत' गलबहियाँ कर 'कथ्य' को अभिव्यक्त करते हैं। नर्मदांचल में गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान की तरह भिन्न और विरोधी नहीं नीर-क्षीर की तरह अभिन्न और पूरक मानने की परंपरा है। जवाहर लाल चौरसिया तरुण, यतीन्द्र नाथ राही, संजीव वर्मा 'सलिल', राजा अवस्थी, विजय बागरी की श्रृंखला में बसन्त कुमार शर्मा और अविनाश ब्योहार अपनी निजता और वैशिष्ट्य के साथ जुड़े हैं। बसन्त की रचनाओं में लोकगीत की सुबोधता, जनगीत का जुड़ाव, पारम्परिक गीत का लावण्य और नागर गीत की बदलाव की चाहत वैयक्तिक अभिव्यक्ति के साथ संश्लिष्ट है। वे अंतर्मन की उदात्त भावनाओं को काल्पनीयक बिम्ब-प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करते हुए देते हैं । यथार्थ और कल्पना का सम्यक सम्मिश्रण इन गीतों-नवगीतों को सहज ग्राह्य बना देते हैं।
धौलपुर राजस्थान में जन्मे बसन्त जी भारतीय रेल सेवा में चयनित होकर परिचालन प्रबंधन के सिलसिले में देश के विभिन्न भागों से जुड़े रहे हैं। उनके गीतों में ग्रामीण उत्सवधर्मिता और नागर विसंगतियाँ, प्रकृति चित्रण और प्रशासनिक विडम्बनाएँ, विशिष्ट और आम जनों का मत-वैभिन्न्य रसमयता के साथ अभिव्यक्त होता है। गौतम बुद्ध कहते हैं 'दुःख ही सत्य है।' आंग्ल उपन्यासकार थॉमस हार्डी के अनुसार 'हैप्पीनेस इज ओनली एन इण्टरल्यूड इन द जनरल ड्रामा ऑफ़ पेन.' अर्थात दुःखपूर्ण जीवन नाटक में सुख केवल क्षणिक पट परिवर्तन है। इसीलिये शैलेन्द्र लिखते हैं 'दुनिया बनाने वाले काहे को दुनिया बनाई?' बसन्त इनसे पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उनका हीरो 'बुधिया' बादलों की टोह लेते हुए साहब को विद्रोह लगने पर भी चीख-पुकार करता है क्योंकि उसे अपने पुरूषार्थ पर भरोसा है-
आये बादल, कहाँ गए फिर,
बुधिया लेता टोह ...
... आढ़तियों ने मिल फसलों की
सारी कीमत खाई
सूख गयी तुलसी आँगन की
झुलस गयी अमराई
चीख पुकार कृषक की लगती
साहब को विद्रोह
परम्परा से कृषि प्रधान देश भारत को बदल कर चंद उद्योगपतियों के हित साधन हेतु किसानी को हानि का व्यवसाय बनाने की नीति ने किसानों को कर्जे के पाश में जकड़कर पलायन के लिए विवश कर दिया है-
बैला खेत झौंपडी गिरवी
पर खाली पॉकेट
छोड़ा गाँव आज बुधिया ने
बिस्तर लिया लपेट ....
... रौंद रहीं खेतों को सड़कें
उजड़ रहे हैं जंगल
सूख गया पानी झरनों का
कैसे होगा मंगल?
आदम ने कर डाला नालों-
नदियों का आखेट
प्रकृति और पर्यावरण की चिंता 'बुधिया' को चैन नहीं लेने देती। खाट को प्रतीक बनाकर कवि सफलतापूर्वक गीत नायक की विपन्नता 'कम कहे से ज्यादा समझना' की तर्ज पर उद्घाटित करता है-
जैसे-तैसे ढाँक रही तन,
घर में टूटी खाट
बैठा उकड़ू तर बारिश में
बुधिया जोहे बाट
गाँव से पलायन कर सुख की आस में शहर आनेवाला यह कहाँ जानता है कि शहर की आत्मा पर भी गाँव की तरह अनगिन घाव हैं। अपनी जड़ छोड़कर भागने वाले पूर्व की जड़ पश्चिम के मूल्यों को अपनाकर भी जम नहीं पातीं-
पछुआ हवा शहर से चलकर,
गाँवों तक आई
देख सड़क को पगडंडी ने
ली है अँगड़ाई
बग्घी घोड़ी कार छोड़कर
मटक रहा दूल्हा
नई बहुरिया भागे होटल
छोड़ गैस-चूल्हा
जींस पहनकर नाच रही हैं
सासू - भौजाई
ठौर-ठिकाना ढूँढते गाँव झाड़-पेड़-परिंदों के बिना निष्प्राण हैं। कोढ़ में खाज है- "संबंधों के मुख्य द्वार पर / शक कठोर प्रहरी।" सरकारी लाल-फीताशाही की असलियत कवि से छिप नहीं पाती-
"बजता लेकिन कौन उठाये
सच का टेलीफून?"
पैसे लिए बिना कोई भी
कब थाने में हिलता
बिना दक्षिणा के पटवारी
कब किसान से मिलता
लगे वकीलों के चक्कर तो
उतर गई पतलून
जीवन केवल दर्द-दुःख का दस्तावेज नहीं है, सुख के शब्द भी इन पर अंकित-टंकित हैं। इन गीतों का वैशिष्टय दुःख के साथ सुख को भी समेटना है। इनमें फागुन मोहब्बतों की फसल उगाने आज भी आता है
गीत-प्रीत के हमें सुनाने
आया है फागुन
मोहब्बतों की फसल उगाने
आया है फागुन
सरसों के सँग गेहूं खेले,
बथुआ मस्त उगे
गौरैया के साथ खेत में
दाने काग चुने
हिल-मिलकर रहना सिखलाने
आया है फागुन
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत वाले देश को श्रम की महत्ता बतानी पड़े इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है-
रिद्धि-सिद्धि तो वहीं दौड़तीं,
श्रम हो जहाँ अकूत
बसन्त जी समय के साथ कदमताल करते हुए तकनीक को इस्तेमाल ही नहीं करते, उसे अपनी नवगीत का विषय भी बनाते हैं-
वाट्स ऐप हो या मुखपोथी
सबके अपने-अपने मठ हैं
रहते हैं छत्तीस अधिककतर
पड़े जरूरत तो तिरसठ हैं
रंग निराले, ढंग अनोखे
ओढ़े हुए मुखौटे अनगिन
लाइक और कमेंट खटाखट
चलते ही रहते हैं निश-दिन
छंद हुए स्वच्छंद युवा से
गीत-ग़ज़ल के भी नव हठ हैं
कृति नायक 'बुधिया' उसी तरह बार-बार विविध बिम्बों-प्रतीकों के साथ भिन्न-भिन्न भावनाओं को शब्दित करता है जैसे मेरे नवगीत संग्रहों "काल है संक्रांति का" में 'सूर्य' तथा "सड़क पर" में 'सड़क' में गया है। हो सकता है शब्द-युग्म प्रयोगों की तरह यह चलन भी नए नवगीतकारों में प्रचलित हो। आइये, बुधिया की अर्जी पर गौर करें-
अर्जी लिए खड़ा है बुधिया
दरवाजे पर खाली पेट
राजाजी कुर्सी पर बैठे
घुमा रहे हैं पेपरवेट
कहने को तो 'लोकतंत्र' है,
मगर 'लोक' को जगह कहाँ है?
मंतर सारे पास 'तंत्र' के
लोक भटकता यहाँ-वहाँ
रोज दक्षिणा के बढ़ते हैं
सुरसा के मुँह जैसे रेट
राजाजी प्रजा को अगड़ी-पिछड़ी में बाँट कर ही संतुष्ट नहीं होते, एक-एक कर सबका शिकार करना अपन अधिकार मानते हैं। प्यासी गौरैया और नालों पर लगी लंबी लाइन उन्हें नहीं दिखती लेकिन बुढ़िया मिट्टी के घड़े को चौराहे पर तपते और आर ओ वाटर को फ्रिज में खिलवाड़ करते देखता है-
घट बिन सूनी पड़ी घरौंची
बुधिया भरता रोज उसासी
इन रचनाओं में देश-काल समाज की पड़ताल कर विविध प्रवृत्तियों को इंगित सम्प्रेषित किया गया है। कुछ उदाहरण देखें-
लालफीताशाही-
फाइलों में सज रही हैं / दर्द दुःख की अर्जियाँ/ चीख-पुकार कृषक की लगती / साहब को विद्रोह।
भ्रष्टाचार-
दाम है मुश्किल चुकाना / ऑफिसों में टीप का, पैसे लिए बिना कोई भी / कब थाने में हिलता, बिना दक्षिणा के पटवारी / कब किसान से मिलता।
न्यायालय-
लगे वकीलों के चक्कर तो / उतर गई पतलून।
कुंठा-
सबकी चाह टाँग खूँटी पर / कील एक ठोंके।
गरीबी-
जैसे-तैसे ढाँक रही तन / घर में टूटी खाट / बैठा उकड़ूँ तर बारिश में / बुधिया जोहे बाट, बैला खेत झोपड़ी गिरवी / पर खाली पॉकेट, बिना फीस के, विद्यालय में / मिला न उसे प्रवेश।
राजनैतिक-
जुमले लेकर वोट माँगने / आते सज-धज नेता।
जन असंतोष- कहीं सड़क पर, कहीं रेल पर / चल रास्ता रोकें रोकें।
पर्यावरण-
कूप तड़ाग बावली नदियाँ / सूखीं, सूने घाट, खड़ा गाँव से दूर सूखता / बेबस नीम अकेला, चहक नहीं अब गौरैया की / क्रंदन पड़े सुनाई।
किसान समस्या- पानी सँग सिर पर सवार था / बीज खाद का चक्कर, रौंद रहीं खेतों को सड़कें / उजड़ रहे हैं जंगल, आढ़तियों ने मिल फसलों की / सारी कीमत खाई।
सामाजिक-
उड़े हुए हैं त्योहारों से / अपनेपन के रंग, हुई कमी परछी-आँगन की / रिश्तों का दीवाला, सूख गई तुलसी आँगन की / झुलस गई अमराई अमराई, जींस पहनकर नाच रही हैं / बड़की भौजाई, संबंधों के मुख्य द्वार पर / शक कठोर प्रहरी।
जनगण की व्यथा-कथा किन्ही खास शब्दों की मोहताज नहीं होती। नीरज भले ही 'मौन ही तो भावना की भाषा है' कहें पर आज जब चीत्कार भी अनसुना किया जा रहा है, नवगीत को पूरी शिद्दत के साथ वह सब कहना ही होगा जो वह कहना चाहता है। बसन्त जी नवगीतों में शब्दों को वैसे ही पिरोते हैं जैसे माला में मोती पिरोये जाते हैं। इन नवगीतों में नोन, रस्ता, बैला, टोह, दुबारा, बहुरिया, अँगनाई, पँखुरियाँ, फिकर, उजियारे, पसरी, बिजूका, भभूका, परजा, लकुटी, घिरौंची, उससे, बतियाँ रतियाँ, निहारत जैसे शब्दों के साथ वृषभ, आरोह, अवरोह, तृषित, स्वप्न, अट्टालिकाएँ, विपदा, तिमिर, तृष्णा, संगृहीत, ह्रदय, गगन, सद्भावनाएँ, आराधनाएँ, वर्जनाएँ, कलुष, ग्रास जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों को पूरी स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करते हैं। इन गीतों में जितनी स्वाभाविकता के साथ साहब, फाइलों, ऑफिसों, पॉकेट, लैपटॉप, रॉकेट, जींस, बार्बी डॉल, मोबाईल, रेस, चैटिंग, सैटिंग, चेन, स्विमिंग पूल, डस्टबिन, बुलडोजर, गफूगल, रेट, जैकेट, वेट, वाट्स ऐप, लाइक, कमेंट, फ्रिज, आर ओ वाटर, बोतल, इंजीनियरिंग, होमवर्क आदि अंगरेजी शब्द प्रयोग में लाए गए हैं, उतने ही अपनेपन के साथ उम्र, अर्जियां, लबों, रिश्तों, हर्जाने, कर्जा, मूरत, कश्मकश, ज़िंदगी, दफ्तर, कोशिश, चिट्ठी, मंज़िल, साजिश, सरहद, इमदाद, रियायत समंदर, अहसान जैसे अरबी-फ़ारसी-तुर्की व् अन्य भाषाओँ के प्रचलित शब्द भी बेहिचक-बखूबी प्रयोग किये गए हैं।
नवगीतों में पिछले कुछ वर्षों से निरंतर बढ़ रही शब्द-युग्मों को प्रयोग करने की प्रवृत्ति बसन्त जी के नवगीतों में भी हैं। नव युग्मों के विविध प्रकार इन गीतों में देखे जा सकते हैं यथा- दो सार्थक शब्दों का युग्म, पहला सार्थक दूसरा निरर्थक शब्द, पहला निरर्थक दूसरा सार्थक शब्द, दोनों निरर्थक शब्द, पारिस्थितिक शब्द युग्म, संबंध आधारित शब्द युग्म, मौलिक शब्द युग्म, एक दूसरे के पूरक, एक दूसरे से असम्बद्ध, तीन शब्दों का युग्म आदि। रोटी-नोन, जैसे-तैसे, चीख-पुकार, हरा-भरा, ठौर-ठिकाना, मुन्ना-मुन्नी, भाभी-भैया, काका-काकी, चाचा-ताऊ, जीजा-साले, दादी-दादा, अफसर-नेता, पशु-पक्षी, नाली-नाला, मंदिर-मस्जिद, सज-धज, गम-शूम, झूठ-मूठ, चाल-ढाल, खाता-पीता, छुआ-छूत, रोक-थाम, रात-दिन, पाले-पोज़, आँधी-तूफ़ान, आरोह-अवरोह, गिल्ली-डंडा, सर-फिरी, घर-बाहर, तन-मन, जाती-धर्म, हाल-चाल, साँझ-सकारे, भीड़-भड़क्का, कौरव-पांडव, आस-पास, रंग-बिरंगे, नाचे-झूमे, टैग-तपस्या, बग्घी-घोडा, खेत-मढ़ैया, निश-दिन, नाचो-गाओ, पोखर-कूप-बावड़ी, ढोल-मँजीरा, इसकी-उसकी-सबकी, रिद्धि-सिद्धि, तहस-नहस, फूल-शूल, आदि।
बसन्त जी शब्दावृत्तियों के प्रयोग में भी पीछे नहीं हैं। हर-हर, हँसते-हँसते, मचा-मचा, दाना-दाना, खो-खो, साथ-साथ, संग-संग, बिछा-बिछा, टुकुर-टुकुर, कटे-कटे, हँस-हँस, गली-गली, मारा-मारा, बारी-बारी आदि अनेक शब्दावृत्तियाँ विविध प्रसंगों में प्रयोग कर भाषा को मुहावरेदार बनाने का सार्थक प्रयास किया गया है।
अलंकार
अन्त्यानुप्रास सर्वत्र दृष्टव्य है। यमक, उपमा व श्लेष का भी प्रयोग है। विरोधाभास- जितने बड़े फ़्लैट-कारें / मन उतना ज्यादा छोटा। व्यंजना- बहुतई अधिक विकास हो रहा।
मुहावरे
कहीं-कहीं मुहावरों के प्रयोग ने रसात्मकता की वृद्धि की है- दिल ये जल जाए, मेरी मुर्गी तीन टाँग की आदि।
आव्हान
इस कृति का वैशिष्ट्य विसंगतियों के गहन अन्धकार में आशा का दीप जलाए रखना है। संकीर्ण मानसिकता के पक्षधर भले ही इस आधार पर नवता में संदेह करें पर गत कुछ दशकों से नवगीत का पर्याय अँधेरा और पीड़ा बना दिए जाने के काल में नवता उजाले हुए हर्ष का आव्हान करना ही है। ''आइये, मिलकर बनायें / एक भारत, श्रेष्ठ भारत'' के आव्हान के साथ गीतों-नवगीतों की इस कृति का समापन होना अपने आप में एक नवत्व है। छंद और लय पर बसन्त जी की पकड़ है। व्यंजनात्मकता और लाक्षणिकता का प्रभाव आगामी कृतियों में और अधिक होगा। बसन्त जी की प्रथम कृति उनके उज्जवल भविष्य का संकेत करती है। पाठक निश्चय ही इन गीतों में अपने मन की बात पाएँगे हुए कहेंगे- ''अल्लाह करे जोरे-कलम और जियादा।''
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मुक्तक
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गाँठ अहं की खुल जाए तो सलिल-धार नर्मदा बने।
सुलभ सके झट सारी उलझन, भौंह न कोई रही तने।।
अपने गैर न हो पाएँगे, गैर सभी अपने होंगे-
नेह नर्मदा नित्य नहाओ, भले बचाओ चार चने।।
१-८-२०१९
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लेख-
लघु कथा - नव विधान और मूल्यों की आवश्यकता
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पारंपरिक लघुकथा का उद्गम व् उपयोगिता -
लघु कथा का मूल संस्कृत वांग्मय में है। लघु अर्थात देखने में छोटी, कथा अर्थात जो कही जाए, जिसमें कहने योग्य बात हो, बात ऐसी जो मन से निकले और मन तक पहुँच जाए। यह बात कहने का कोई उद्देश्य भी होना चाहिए। उद्देश्य की विविधता लघु कथा के वर्गीकरण का आधार होती है। बाल कथा, बोध कथा, उपदेश कथा, दृष्टान्त कथा, वार्ता, आख्यायिका, उपाख्यान, पशु कथा, अवतार कथा, संवाद कथा, व्यंग्य कथा, काव्य कथा, गीति कथा, लोक कथा, पर्व कथा आदि की समृद्ध विरासत संस्कृत, भारतीय व विदेशी भाषाओँ के वाचिक और लिखित साहित्य में प्राप्त है। गूढ़ से गूढ़ और जटिल से जटिल प्रसंगों को इन कथन के माध्यम से सरल-सहज बनाकर समझाया गया। पंचतंत्र, हितोपदेश, बेताल कथाएँ, अलीबाबा, सिंदबाद आदि की कहानियाँ मन-रंजन के साथ ज्ञानवर्धन के उद्देश्य को लेकर कही-सुनी और लिखी-पढ़ी गयीं। धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवचनों में गूढ़ सत्य को कम शब्दों में सरल बनाकर प्रस्तुत करने की परिपाटी सदियों तक परिपुष्ट हुई।
दुर्भाग्य से दुर्दांत विदेशी हमलावरों ने विजय पाकर भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक संस्थाओं का विनाश लगातार लंबे समय तक किया। इस दौर में कथा साहित्य धार्मिक पूजा-पर्वों में कहा-सुना जाकर जीवित तो रहा पर उसका उद्देश्य भयभीत और संकटग्रस्त जन-मन में शुभत्व के प्रति आस्था बनाये रखकर, जिजीविषा को जिलाये रखना था। बहुधा घर के बड़े-बुजुर्ग इन कथाओं को कहते, उनमें किसी स्त्री-पुरुष के जीवन में आये संकटों-कष्टों के कारन शक्तियों की शरण में जाने, उपाय पूछने और अपने तदनुसार आचरण में सुधार करने पर दैवीय शक्तियों की कृपा से संकट पर विजयी होने का संदेश होता था। ऐसी कथाएँ शोषित-पीड़ित ही नहीं सामान्य या सम्पन्न मनुष्य में भी अपने आचरण में सुधार, सद्गुणों व पराक्रम में वृद्धि, एकता, सुमति या खेती-सड़क-वृक्ष या रास्तों की स्वच्छता, दीन-हीन की मदद, परोपकार, स्वाध्याय आदि की प्रेरणा का स्रोत बनता था। ये लघ्वाकारी कथाएँ महिलाओं या पुरुषों द्वारा अल्प समय में कह-सुन ली जाती थीं, बच्चे उन्हें सुनते और इस तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जीवन मूल्य पहुँचते रहते। देश, काल, परिस्थिति, श्रोता-वक़्ता, उद्देश्य आदि के अनुसार कथावस्तु में बादलाव होता रहता और देश के विविध भागों में एक ही कथा के विविध रूप कहे-सुने जाते किन्तु सबका उद्देश्य एक ही रहता। आहत मन को सांत्वना देना, असंतोष का शमन करना, निराश मन में आशा का संचार, भटकों को राह दिखाना, समाज सुधार या राष्ट्रीय स्वाधीनता के कार्यक्रमों हेतु जन-मन को तैयार करना कथावाचक और उपदेशक धर्म की आड़ में करते रहे। फलत:, राजनैतिक पराभव काल में भी भारतीय जन मानस अपना मनोबल, मानवीय मूल्यों में आस्था और सत्य की विजय का विश्वास बनाये रह सका।
आधुनिक हिंदी का उद्भव
कालान्तर में आधुनिक हिंदी ने उद्भव काल में पारंपरिक संस्कृत, लोक भाषाओँ और अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य की उर्वर विरासत ग्रहण कर विकास के पथ पर कदम रखा। गुजराती, बांग्ला और मराठी भाषाओँ का क्षेत्र हिंदी भाषी क्षेत्रों के समीप था।विद्वानों और जन सामान्य के सहज आवागमन ने भाषिक आदान-प्रदान को सुदृढ़ किया। मुग़ल आक्रांताओं की अरबी-फ़ारसी और भारतीय मजदूर-किसानों की भाषा के मिलन से लश्करी का जन्म सैन्य छवनियों में हुआ जो रेख्ता और उर्दू के रूप में विकसित हुई। राजघरानों, जमींदारों तथा समृद्ध जनों में अंग्रेजी शिक्षा तथा विदेश जाकर उपाधियाँ ग्रहण करने पर अंग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण बढ़ा। शासन की भाषा अंग्रेजी होने से उसे श्रेष्ठ माना जाने लगा।अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों के मन में अपने विरासत के प्रति हीनता का भाव सुनियोजित तरीके से पैदा किया गया। स्वतंत्रता के संघर्ष काल में साम्यवाद युवा वर्ग को आकर्षित कर सका। स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र तथा अहिंसक दोनों तरीकों से प्रयास किये जाते रहे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आकस्मिक रूप से लापता होने पर स्वन्त्रता प्राप्ति का पूर्ण श्रेय गाँधी जी के नेतृत्व में चले सत्याग्रह को मिला। फलत:, कोंग्रेस सत्तारूढ़ हुई। श्री नेहरू के व्यक्तित्व में अंग्रेजी राजतंत्र और साम्यवादी व्यवस्था के प्रति विकट सम्मोहन ने स्वातंत्र्योत्तर काल में इन दोनों तत्वों को सत्ता और साहित्य में सहभागी बना दिया जबकि भारतीय सनातन परंपरा में विश्वास करने वाले तत्व पारस्परिक फूट के कारण बलिपंथी होते हुए भी पिछड़ गए।
सत्ता और साहित्य की बंदरबाँट
सत्ता समीकरणों को चतुरता से साधते हुए आम चुनावों में विजयी कोंग्रेस ने सरकार बनायी। सरकार निर्विघ्न चले इस हेतु हिंसा में विश्वास रखने वाले साम्यवादियों को शिक्षा प्रतिष्ठानों में स्थान दिया गया। इस केर-बेर के संग ने समाजवादियों तथा तत्कालीन हिंदुत्ववादी शक्तियों को सत्ता से बाहर रखने में सफलता पा ली। साम्यवादी अपने बल पर कभी सत्ता-केंद्र में नहीं आ सके किन्तु शिक्षा संस्थानों और साहित्य में अपना प्रभुत्व स्थापित कर साम्यवादी विचारों के अनुरूप सृजन और समीक्षा के मानक थोपने में कुछ काल के लिए सफल हो गए। उन्होंने लघु कथा, व्यंग्य लेख, नवगीत, फिल्म निर्माण आदि क्षेत्रों में सामाजिक वर्गीकरण, विभाजन, शोषण, टकराव, वैषम्य, पीड़ा, दर्द, दुःख और पतन को केंद्र में रखकर रचनाकर्म किया ताकि समाज के विविध वर्ग आपस में लड़ें और वे हँसिया-हथौड़ा चलकर सत्ता पा सकें। विधि का विधान कि कुछ प्रान्तों को छोड़ साम्यवादी साहित्यकार और राजनेता सफल नहीं हुए किंतु शिक्षा और साहित्य में अपनी विचारधारा के अनुरूप मानक निर्धारित कर, साहित्य प्रकाशित करने, पुरस्कृत होने में सफल हो गए। परोक्षतः: कोंग्रेस ने इस कार्य में उन्हें समर्थन दिया और अपनी सत्ता बनाये रखने में उनका समर्थन लिया। गैर कॉंग्रेसवादी सरकार आते ही इस वर्ग ने शिक्षा संस्थानों में अराजकता, अभारतीयता और राष्ट्रीयता का उद्गोष किया और प्रतिबंधित होते ही आवेदन कर येन-केन-प्रकारेण जुगाड़े गए सम्मान वापसी की नौटंकी की।
साम्यवादी रचना विधान
यह निर्विवाद है कि भारतीय जन मानस चिरकाल से सात्विक, आस्थावान, अहिंसक, सहिष्णु, उत्सवधर्मी तथा रचनात्मक प्रवृत्तिवाला है। अशिक्षाजनित सामाजिक प्रदूषण काल में छुआछूत, सती प्रथा, पर्दा प्रथा और ब्राम्हणों द्वारा धर्म की आड़ में खुद को सर्वश्रेष्ठ बनाये रखने के प्रयास में दलितवर्ग को निम्न बताने जैसी बुराइयों के पनपने पर उनके निराकरण के प्रयास सतत होते रहे किंतु विदेशी शासन ने इन्हें असफल कर समाज विभाजित किया। स्वतंत्रता के पश्चात बहुमत पाने में असफल साम्यवादियों ने यही तरीका अपनाया और एक ओर नक्सलवाद जैसे आंदोलन और दूसरी ओर अपनी विचारधारा के साहित्यिक मानक बनाकर उनके अनुरूप साहित्य की रचना कर समाज को पराभव में लेने का कुचक्र रचा पर पूरी तरह सफल न हो सके। ऐसे साहित्यकारों और समीक्षकों ने भारतीय वांग्मय की सनातन विरासत और परंपरा को हीन, पिछड़ा, अवैज्ञानिक और अनुपयुक्त कहकर अंग्रेजी साहित्य की दुहाई देते हुए, उसकी आड़ में साम्यवादी विचारधारा के अनुकूल जीवनमूल्यों को विविध विधाओं का मानक बता दिया। फलत:, रचनाकर्म का उद्देश्य समाज में व्याप्त शोषण, टकराव, बिखराव, संघर्ष, टूटन, फुट, विसंगति, विडंबना, असंतोष, विक्षोभ, कुंठा, विद्रोह आदि का शब्दांकन मात्र हो गया। उन्होंने देश में हर क्षेत्र में हुई उल्लेखनीय प्रगति, सद्भाव, एकता, साहचर्य, सहकारिता, निर्माण, हर्ष, उल्लास, उत्सव आदि की जान-बूझकर अनदेखी और उपेक्षा की। इन तथाकथित साहित्यकारों की पृष्ठभूमि देखें तो अपने छात्र जीवन में ये साम्यवादी छात्र संगठनों से जुड़े मिलेंगे। कोढ़ में खाज यह कि इस वैचारिक पृष्ठभूमि के अनेक जन उच्च प्रशासनिक पदों पर जा बैठे और उन्होंने 'अपने लोगों' को न केवल महिमामण्डित किया अपितु भिन्न विचारधारा के साहित्यकारों का दमन और उपेक्षा भी की।
लघुकथा और शार्ट स्टोरी
अंग्रेजी साहित्य में गद्य (प्रोज) के अंतर्गत उपन्यास (नावेल), निबन्ध (एस्से), कहानी (स्टोरी), व्यंग्य (सैटायर), लघुकथा (शार्ट स्टोरी), गल्प (फिक्शन), संस्मरण (मेमायर्स), आत्मकथा (ऑटोबायग्राफी) आदि प्रमुख हैं। अंग्रेजी की कहानी लघु उपन्यास की तरह तथा शार्ट स्टोरी सामान्यत:६-७ पृष्ठों तक की हो सकती है। हिंदी लघु कथा का आकार सामान्यत: कुछ वाक्यों से लेकर एक-डेढ़ पृष्ठ तक होता है। स्पष्ट है कि शार्ट स्टोरी और लघुकथा सर्वथा भिन्न विधाएँ हैं। 'शॉर्ट स्टोरी' छोटी कहानी हो सकती है पर वह 'लघुकथा' नहीं हो सकती। हिंदी साहित्य में विधाओं का विभाजन आकारगत नहीं अन्तर्वस्तु या कथावस्तु के आधार पर होता है। उपन्यास सकल जीवन या घटनाक्रम को समाहित करता है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, वातावरण, भाषा शैली आदि हैं। कहानी जीवन के काल विशेष या घटना विशेष से जुड़े प्रभावों पर केंद्रित होती है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र चित्रण, कथोपकथन, उद्देश्य तथा भाषा शैली हैं। लघुकथा किसी क्षण विशेष में घटित प्रसंग और उसके प्रभाव पर केंद्रित होती है। प्रसिद्ध समीक्षक लक्ष्मीनारायण लाल ने लघु कथा और कहानी में तात्विक दृष्टि से कोई अंतर न मानते हुए व्यावहारिक रूप से आकारगत अंतर स्वीकार किया है। उनके अनुसार 'लघुकथा में भावनाओं का उतना महत्व नहीं है जितना किसी सत्य का, किसी विचार का विशेषकर उसके सारांश का महत्व है।'
लघुकथा क्या है?, अंधों का हाथी ?
सन १९८४ में सारिका के लघु कथा विशेषांक में राजेंद्र यादव ने 'लघुकथा और चुटकुला में साम्य' इंगित करते हुए लघुकथा लेखन को कठिन बताया। मनोहरश्याम जोशी ने' लघु कथाओं को चुटकुलों और गद्य के बीच' सर पटकता बताया। मुद्राराक्षस के अनुसार 'लघु कथा ने साहित्य में कोई बड़ा स्थान नहीं बनाया'। शानी भी 'लघुकथाओं को चुटकुलों की तरह' बताया। इसके विपरीत पद्म श्री लक्ष्मीनारायण लाल ने लघुकथा को लेखक का 'अच्छा अस्त्र' कहा है।
सरला अग्रवाल के शब्दों में 'लघुकथा में किसी अनुभव अथवा घटना की टीस और कचोट को बहुत ही गहनता के साथ उद्घाटित किया जाता है।' प्रश्न उठता है कि टीस के स्थान पर रचना हर्ष और ख़ुशी को उद्घाटित करे तो वह लघु कथा क्यों न होगी? गीत सभी रसों की अभिव्यक्ति कर सकता है तो लघुकथा पर बन्धन क्यों? डॉ. प्रमथनाथ मिश्र के मत में लघु कथा 'सामाजिक बुराई के काले-गहरे बादलों के बीच दबी विद्युल्लता की भाँति है जो समय-बेसमय छटककर पाठकों के मस्तिष्क पर एक तीव्र प्रभाव छोड़कर उनके सुषुप्त अंत:करण को हिला देती है।' सामाजिक अच्छाई के सफेद-उजले मेघों के मध्य दामिनी क्यों नहीं हो सकती लघुकथा? रमाकांत श्रीवास्तव लिखते हैं 'लघुकथा का नि:सरण ठीक वैसे ही हुआ है जैसे कविता का। अत: वह यथार्थपरक कविता के अधिक निकट है, विशेषकर मुक्त छंद कविता के।' मुक्तछंद कविता से हिंदी पाठक के मोहभंग काल में उसी पथ पर ले जाकर लघुकथा का अहित करना ठीक होगा या उसे लोकमंगल भाव से संयुक्त रखकर नवगीत की तरह नवजीवन देना उपयुक्त होगा? कृष्णानन्द 'कृष्ण' लघुकथा लेखक के लिए 'वैचारिक पक्षधरता' अपरिहार्य बताते हैं। एक लघुकथा लेखक के लिए किसी विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्ध होना जरूरी क्यों हो? कथ्य और लक्ष्य की आवश्यकतानुसार विविध लघुकथाओं में विविध विचारों की अभिव्यक्ति प्रबंधित करना कैसे ठीक हो सकता है? एक रचनाकार को किसी राजनैतिक विचारधारा का बन्दी क्यों होना चाहिए? रचनाकार का लक्ष्य लोक-मंगल हो या राजनैतिक स्वार्थपूर्ति?
'हिंदी लघुकथा को लेखन की पुरातन दृष्टान्त, किस्सा या गल्प शैली में अवस्थित रहना है या कथा लेखन की वर्तमान शैली को अपना लेना है- तय हो जाना चाहिए' बलराम अग्रवाल के इस मत के सन्दर्भ में कहना होगा कि साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा के स्वरूप में अंतिम निर्णय करने का अधिकार पाठक और समय के अलावा किसी का नहीं हो सकता। तय करनेवालों ने तो गीत के मरण की घोषणा कर दी थी किंतु वह पुनर्जीवित हो गया। समाज किसी एक विचार या वाद के लोगों से नहीं बनता। उसमें विविध विचारों और रुचियों के लोग होते हैं जिनकी आवश्यकता और परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, तदनुसार साहित्य की हर विधा में रचनाओं का कथ्य, शल्प और शैली बदलते हैं। लघुकथा इसका अपवाद कैसे हो सकती है? लघुकथा को देश, काल और परिस्थिति सापेक्ष्य होने के लिए विविधता को ग्रहण करना ही होगा। पुरातन और अद्यतन में समन्वय से ही सनातन प्रवाह और परंपरा का विकास होता है।
अवध नारायण मुद्गल उपन्यास को नदी, कहानी को नहर और लघुकथा को उपनहर बताते हुए कहते हैं कि जिस बंजर जमीन को नहरों से नहीं जोड़ा जा सकता उसे उपनहरों से जोड़कर उपजाऊ बनाया जा सकता है। यदि उद्देश्य अनछुई अनुपजाऊ भूमि को उर्वर बनाना है तो यह नहीं देखा जाता कि नहर बनाने के लिए सामग्री कहाँ से लाई जा रही है और मजदूर किस गाँव, धर्म राजनैतिक विचार का है? लघुकथा लेखन का उद्देश्य उपन्यास और कहानी से दूर पाठक और प्रसंगों तक पहुँचना ही है तो इससे क्या अंतर पड़ता है कि वह पहुँच बोध, उपदेश, व्यंग्य, संवाद किस माध्यम से की गयी? उद्देश्य पड़ती जमीन जोतना है या हलधर की जाति-पाँति देखना?
लघुकथा के रूप-निर्धारण की कोशिशें
डॉ. सतीश दुबे मिथक, व्यंग्य या संवेदना के स्तरों पर लघुकथाएँ लिखी जाने का अर्थ हर शैली में अभिव्यक्त होने की छटपटाहट मानते हैं। वे लघुकथा के तयशुदा स्वरूप में ऐसी शैलियों के आने से कोई खतरा नहीं देखते। यह तयशुदा स्वरूप साध्य है या साधन? यह किसने, कब और किस अधिकार से तय किया? यह पत्थर की लकीर कैसे हो सकता जिसे बदला न जा सके? यह स्वरूप वही है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप और पाठक की रूचि के अनुसार लघुकथा का जो स्वरूप उपयुक्त होगा वह जीवित रहेगा, शेष भुला दिया जाएगा। लघुकथा के विकास के लिए बेहतर होगा कि हर लघुकथाकार को अपने कथ्य के उपयुक्त शैली और शिल्प का संधान करने दिया जाए। उक्त मानक थोपने के प्रयास और मानकों को तोडनेवाले लघुकथाकारों पर सुनियोजित आक्रमण तथा उनके साहित्य की अनदेखी करने की विफल कोशिशें यही दर्शाती हैं कि पारंपरिक शिल्प और शैली से खतरा अनुभव हो रहा है और इसलिए विधान के रक्षाकवच में अनुपयुक्त और आयातित मानक थोपे जाते रहे हैं। यह उपयुक्त समय है जब अभिव्यक्ति को कुंठित न कर लघुकथाकार को सृजन की स्वतंत्रता मिले।
सृजन की स्वतंत्रता और सार्थकता
पारंपरिक स्वरूप की लघुकथाओं को जन स्वीकृति का प्रमाण यह है कि समीक्षकों और लघुकथाकारों की समूहबद्धता, रणनीति और नकारने के बाद भी बोध कथाओं, दृष्टान्त कथाओं, उपदेश कथाओं, संवाद कथाओं आदि के पाठक श्रोता घटे नहीं हैं। सच तो यह है कि पाठक और श्रोता कथ्य को पढ़ता और सराहता या नकारता है, उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि समीक्षक उस रचना को किस खाँचे में वर्गीकृत करता है। समय की माँग है कि लघुकथा को स्वतंत्रता से सांस लेने दी जाए। नामवर सिंह भारतीय लघुकथाओं को पश्चात्य लघुकथाओं का पिछलग्गू नहीं मानते तथा हिंदी लघुकथाओं को निजत्व और विराट भावबोध से संपन्न मानते हैं। हिंदी भाषा जिस जमीन पर विकसित हुई उसकी लघुकथा उस जमीन में आदि काल से कही-सुनी जाती लघुकथा की अस्पर्श्य कैसे मान सकती है?
सिद्धेश्वर लघुकथा को सर्वाधिक प्रेरक, संप्रेषणीय, संवेदनशील और जीवंत विधा मानते हुए उसे पाठ्यक्रम में स्थान दिए जाने की पैरवी करते है जिससे हर लघुकथाकार सहमत होगा किन्तु जन-जीवन में कही-सुनी जा रही देशज मूल्यों, भाषा और शिल्प की लघुकथाओं की वर्जना कर केवल साम्यवादी विचारधारा को प्रोत्साहित करती लघुकथाओं का चयन पाठ्यक्रम में नहीं किया जा सकता। इसलिए लघुकथा के रूढ़ और संकीर्ण मानकों को परिवर्तित कर हिंदी भाषी क्षेत्र की सभ्यता-संस्कृति और जन मानस के आस्था-उल्लास-नैतिक मूल्यों के अनुरूप रची तथा राष्ट्रीयता को बढ़ावा देती लघु कथाओं को हो चुना जाना उपयुक्त होगा। तारिक असलम 'तनवीर' लिजलिजी और दोहरी मानसिकता से ग्रस्त समीक्षकों की परवाह करने के बजाय 'कलम की ताकत' पर ध्यान देने का मश्वरा देते हैं।
डॉ. कमलकिशोर गोयनका, कमलेश भट्ट 'कमल' को दिए गए साक्षात्कार में लघुकथा को लेखकविहीन विधा कहते हैं। कोई बच्चा माँ विहीन कैसे हो सकता है। हर बच्चे का स्वतंत्र अस्तित्व और विकास होने पर भी उसमें जीन्स माता-पिता के ही होते हैं। इसी तरह लघुकथा भी लघुकथाकार तथा उसके परिवेश से अलग होते हुए भी उसका प्रतिनिधित्व करती है। लघुकथाकार रचना में सतही तौर पर न दिखते हुई भी पंक्ति-पंक्ति में उसी तरह उपस्थित होता है जैसे रोटी में नमी के रूप में पानी या दाल में नमक। अत:, स्पष्ट है कि हिंदी की आधुनिक लघुकथा को अपनी सनातन पृष्ठभूमि तथा आधुनिक हिंदी के विकास काल की प्रवृत्तियों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करते हुए भविष्य के लिए उपयुक्त साहित्य सृजन के लिए सजग होना होगा। लघुकथा एक स्वतंत्र विधा के रूप में अपने कथ्य और लक्ष्य पाठक वर्ग को केंद्र में रखकर लिखी जाय और व्यवस्थित अध्ययन की दृष्टि से उसे वर्गीकृत किया जाए किन्तु किसी वर्ग विशेष की लघुकथा को स्वीकारने और शेष को नकारने की दूषित प्रथा बन्द करने में ही लघुकथा और हिंदी की भलाई है। लघुकथा को उद्यान के विविध पुष्पों के रंग और गन्ध की तरह विविधवर्णी होने होगा तभी वह जी सकेगी और जीवन को दिशा दे सकेगी।
लघुकथा के तत्व
कुंवर प्रेमिल कथानक, प्रगटीकरण तथा समापन को लघुकथा के ३ तत्व मानते हैं। वे लघुकथा को किसी बंधन, सीमा या दायरे में बाँधने के विरोधी हैं। जीवितराम सतपाल के अनुसार लघुकथा में अमिधा, लक्षणा व व्यंजना शब्द की तीनों शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है। वे लघुकथा को बरसात नहीं फुहार, ठहाका नहीं मुस्कान कहते हैं। गुरुनाम सिंह रीहल कलेवर और कथनीयता को लघुकथा के २ तत्व कहते हैं। मोहम्मद मोइनुद्दीन 'अतहर' के अनुसार भाषा, कथ्य, शिल्प, संदर्भगत संवेदना से परिपूर्ण २५० से ५०० शब्दों का समुच्चय लघुकथा है। डॉ. शमीम शर्मा के अनुसार लघुकथा में 'विस्तार के लिए कोई स्थान नहीं होता। 'थोड़े में अधिक' कहने की प्रवृत्ति प्रबल है। सांकेतिक एवं ध्वन्यात्मकता इसके प्रमुख तत्व हैं। अनेक मन: स्थितियों में से एक की ही सक्रियता सघनता से संप्रेषित करने का लक्ष्य रहता है।'
बलराम अग्रवाल के अनुसार कथानक और शैली लघुकथा के अवयव हैं, तत्व नहीं। वे वस्तु को आत्मा, कथानक को हृदय, शिल्प को शरीर और शैली को आचरण कहते हैं। योगराज प्रभाकर लघु आकार और कथा तत्व को लघुकथा के तत्व बताते हैं। उनके अनुसार किसी बड़े घटनाक्रम में से क्षण विशेष को प्रकाशित करना, लघुकथा लिखना है। कांता रॉय लघुकथा के १५ तत्व बताती है जो संभवत: योगराज प्रभाकर द्वारा सुझाई १५ बातों से नि:सृत हैं- कथानक, शिल्प, पंच, कथ्य, भूमिका न हो, चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्त, बोध-नीति-शिक्षा न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो, शैली तथा सामाजिक महत्व । नया लघुकथाकार और पाठक क्या करे? बलराम अग्रवाल कथानक को तत्व नहीं मानते, कांता रॉय मानती हैं।
डॉ. हरिमोहन के अनुसार लघुकथा विसंगतियों से जन्मी तीखे तेवर वाली व्यंग्य परक विधा है तो डॉ. पुष्पा बंसल के अनुसार 'घटना की प्रस्तुति मात्र'। अशोक लव 'संक्षिप्तता में व्यापकता' को लघुकथा का वैशिष्ट्य कहते हैं तो विक्रम सोनी 'मूल्य स्थापन' को। कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। यही स्थिति लघुकथा और लघुकथाकारों की है 'जितने मुँह उतनी बातें'।
लघुकथा के तत्व
मेरे अनुसार उक्त तथा अन्य सामग्री का अध्ययन से स्पष्ट होता है कि लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३.तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इन में से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है। घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुडी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी। इस ३ तत्वों का प्रयोग कर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है। योगराज प्रभाकर तथा कांता रॉय इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं।
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग घटते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघ्यकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो।
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों के चरित्र-चित्रण नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है। शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं।
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है। एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है। कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है। सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है। व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा? व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है। *:
सन्दर्भ-
१. सारिका लघुकथा अंक १९८४
२. अविरल मंथन लघुकथा अंक सितंबर २००१, संपादक राजेन्द्र वर्मा
३. प्रतिनिधि लघुकथाएं अंक ५, २०१३, सम्पादक कुंवर प्रेमिल
४. तलाश, गुरुनाम सिंह रीहल
५. पोटकार्ड, जीवितराम सतपाल
६. लघुकथा अभिव्यक्ति अक्टूबर-दिसंबर २००७
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जबलपुर में लघुकथाकार
१. संजीव वर्मा 'सलिल', २. डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', ३. कुँवर प्रेमिल, ४. प्रदीप शशांक, ५. गीता गीत, ६. सुरेश कुशवाहा 'तन्मय', ७. ओमप्रकाश बजाज, ८. सनातन कुमार बाजपेयी, ९. विजय तिवारी 'किसलय', १०. दिनेश नंदन तिवारी, ११. धीरेन्द्र बाबू खरे, १२. गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, १३ सुरेंद्र सिंह सेंगर, १४. विजय बजाज, १५. रमेश सैनी, १६. प्रभात दुबे, १७. पवन जैन, १८. नीता कसार, १९. मधु जैन, २० शशि कला सेन, २१. प्रकाश चंद्र जैन, २२. अनुराधा गर्ग, २३. सुनीता मिश्र, २४. आशा भाटी, २५. राकेश भ्रमर, २६.अशोक श्रीवास्तव 'सिफर', २७. आरोही श्रीवास्तव, २८ छाया त्रिवेदी, २९.रामप्रसाद अटल, ३०.अविनाश दत्तात्रेय कस्तूरे, ३१. अर्चना मलैया, ३२ बिल्लोरे, ३३. अरुण यादव, ३४. आशा वर्मा, ३५, मिथलेश बड़गैयां, ३६. सुरेंद्र सिंह पवार, ३७. मनोज शुक्ल, ३८ आचार्य भगवत दुबे, ३९. गार्गीशरण मिश्र ४०. विनीता श्रीवास्तव, ४१. डॉ. वीरेंद्र कुमार दुबे, ४२. बसंत शर्मा,
दिवंगत लघुकथाकार- सर्व स्वर्गीय- हरिशंकर परसाई, विजय कृष्ण ठाकुर, राम ठाकुर 'दादा', गुरुनाम सिंह रीहल, मनोहर शर्मा 'माया', गायत्री तिवारी, मो. मोईनुद्दीन 'अतहर', श्रीमती लक्ष्मी शर्मा,
१-८-२०१८
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विचारोत्तेजक लेख:
कायस्थों का महापर्व नागपंचमी
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कायस्थोंके उद्भव की पौराणिक कथाके अनुसार उनके मूल पुरुष श्री चित्रगुप्तके २ विवाह सूर्य ऋषिकी कन्या नंदिनी और नागराजकी कन्या इरावती हुए थे। सूर्य ऋषि हिमालय की तराईके निवासी और आर्य ब्राम्हण थे जबकि नागराज अनार्य और वनवासी थे। इसके अनुसार चित्रगुप्त जी ब्राम्हणों तथा आदिवासियों दोनों के जामाता और पूज्य हुए। इसी कथा में चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों नागराज वासुकि की १२ कन्याओं से साथ किये जाने का वर्णन है जिनसे कायस्थों की १२ उपजातियों का श्री गणेश हुआ।
इससे स्पष्ट है कि नागों के साथ कायस्थॉ का निकट संबंध है। आर्यों के पूर्व नाग संस्कृति सत्ता में थी। नागों को विष्णु ने छ्ल से हराया। नाग राजा का वेश धारण कर रानी का सतीत्व भंग कर नाग राजा के प्राण हरने, राम, कृष्ण तथा पान्ड्वों द्वारा नाग राजाओं और प्रजा का वध करने, उनकी जमीन छीनने, तक्षक द्वारा दुर्योधन की सहायता करने, जन्मेजय द्वारा नागों का कत्लेआम किये जाने, नागराज तक्षक द्वारा फल की टोकनी में घुसकर उसे मारने के प्रसंग सर्व ज्ञात हैं।
यह सब घट्नायें कयस्थों के ननिहाल पक्ष के साथ घटीं तो क्या कायस्थों पर इसका कोई असर नहीं हुआ? वास्तव में नागों और आर्यों के साथ समानता के आधार पर संबंध स्थापित करने का प्रयास आर्यों को नहीं भाया और उन्होंने नागों के साथ उनके संबंधियों के नाते कायस्थों को भी नष्ट किया। महाभारत युद्ध में कौरव और पांडव दोनों पक्षों से कायस्थ नरेश लड़े और नष्ट हुए। बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना....
कालान्तर में शान्ति स्थापना के प्रयासों में असंतोष को शांत करने के लिए पंचमी पर नागों का पूजनकर उन्हें मान्यता तो दी गयी किन्तु ब्राम्हण को सर्वोच्च मानने की मनुवादी मानसिकता ने आजतक कार्य पर जाति निर्धारण नहीं किया। श्री कृष्ण को विष्णु का अवतार मानने की बाद भी गीता में उनका वचन 'चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुण कर्म विभागष:' को कार्य रूप में नहीं आने दिया गया।
कायस्थों को सत्य को समझना होगा तथा आदिवासियों से अपने मूल संबंध को स्मरण और पुनर्स्थापित कर खुद को मजबूत बनाना होगा। कायस्थ और आदिवासी समाज मिलकर कार्य करें तो जन्मना ब्राम्हणवाद और छद्म श्रेष्ठता की नींव धसक सकती है। सभी सनातन धर्मी योग्यता वृद्धि हेतु समान अवसर पायें, अर्जित योग्यतानुसार आजीविका पायें तथा पारस्परिक पसंद के आधार पर विवाह संबंध में बँधने का अवसर पा सकें तो एक समरस समाज का निर्माण हो सकेगा। इसके लिए कायस्थों को अज्ञानता के घेरे से बाहर आकर सत्य को समझना और खुद को बदलना होगा।
नागों संबंध की कथा पढ़ने मात्र से कुछ नहीं होगा। कथा के पीछे का सत्य जानना और मानना होगा। संबंधों को फिर जोड़ना होगा। नागपंचमी के समाप्त होते पर्व को कायस्थ अपना राष्ट्रीय पर्व बना लें तो आदिवासियों और सवर्णों के बीच नया सेतु बन सकेगा।
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नवगीत
*
तन पर
पहरेदार बिठा दो
चाहे जितने,
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
तनता-झुकता
बढ़ता-रुकता
तन ही हरदम।
हारे ज्ञानी
झुका न पाये
मन का परचम।
बाखर-छानी
रोक सकी कब
पानी चूता?
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
ताना-बाना
बुने कबीरा
ढाई आखर।
ज्यों की त्यों ही
धर जाता है
अपनी चादर।
पैर पटककर
सना धूल में
नाहक जूता।
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
*
चढ़ी शीश पर
नहीं उतरती
क़र्ज़ गठरिया।
आस-मदारी
नचा रहा है
श्वास बँदरिया।
आसमान में
छिपा न मिलता
इब्नबतूता।
मन पाखी को
कैद कर सके
किसका बूता?
***
लघुकथा:
काल की गति
'हे भगवन! इस कलिकाल में अनाचार-अत्याचार बहुत बढ़ गया है. अब तो अवतार लेकर पापों का अंत कर दो.' - भक्त ने भगवान से प्रार्थना की.
' नहीं कर सकता.' भगवान् की प्रतिमा में से आवाज आयी .
' क्यों प्रभु?'
'काल की गति.'
'मैं कुछ समझा नहीं.'
'समझो यह कि परिवार कल्याण के इस समय में केवल एक या दो बच्चों के होते राम अवतार लूँ तो लक्ष्मण, शत्रुघ्न और विभीषण कहाँ से मिलेंगे? कृष्ण अवतार लूँ तो अर्जुन, नकुल और सहदेव के अलावा ९८ कौरव भी नहीं होंगे. चित्रगुप्त का रूप रखूँ तो १२ पुत्रों में से मात्र २ ही मिलेंगे. तुम्हारा कानून एक से अधिक पत्नियाँ भी नहीं रखने देगा तो १२८०० पटरानियों को कहाँ ले जाऊँगा? बेचारी द्रौपदी के ५ पतियों की कानूनी स्थिति क्या होगी?
भक्त और भगवान् दोनों को चुप देखकर ठहाका लगा रही थी काल की गति.

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मुक्तक
बन के अपना पराया तुमने किया
हमने चुप हो ज़हर का घूँट पिया
हों जो तूफ़ान हार जाओगे-
जलेंगे दिल में तेरे बन के दिया
१-८-२०१६
मुक्तक
भ्रम तो भ्रम है, चीटी हाथी, बनते मात्र बहाना.
खुले नयन रह बंद सुनाते, मिथ्या 'सलिल' फ़साना..
नयन मूँदकर जब-जब देखा, सत्य तभी दिख पाया-
तभी समझ पाया माया में कैसे सत्पथ पाना..


दूर रहकर भी जो मेरे पास है.
उसी में अपनत्व का आभास है..
जो निपट अपना वही तो ईश है-
क्या उसे इस सत्य का अहसास है?


भीतर-बाहर जाऊँ जहाँ भी, वहीं मिले घनश्याम.
खोलूँ या मूंदूं पलकें, हँसकर कहते 'जय राम'..
सच है तो सौभाग्य, अगर भ्रम है तो भी सौभाग्य-
सीलन, घुटन, तिमिर हर पथ दिखलायें उमर तमाम..
१ अगस्त २०११
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