अभिनव प्रयोग
(संरचना सॉनेट, छंद हरिगीतिका)
हरतालिका
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हरतालिका व्रत जो करे, शिव की कृपा उसको मिले
मन चाहता जिसको वही, हर जन्म में मनमीत हो
खुश हों उमा गणदेव भी, तन स्वस्थ हो मन भी खिले
व्रत कीजिए शुभकामना रख, प्रीत की तब जीत हो
कर थामिए जिसका उसे, कर दें थमा रख साथ में
जल पीजिए; मत पीजिए पर याद प्रभु को कीजिए
पग साथ ही रखिए सदा, हँस हाथ भी रख हाथ में
मन में रखें शुभ भावना, नित प्रेम रस में भीजिए
मतभेद दे तज द्वैत भी; रख ऐक्य भाव सदा सखे!
कुछ ऊँच हो; कुछ नीच हो, कुछ धूप हो; कुछ छाँव हो
यह प्रार्थना प्रभु जी सुनें, नित साथ ही हमको रखे
कुछ हो; न हो; मन में सदा, शिव औ' शिवा तव ठाँव हो
जब हों बिदा; तन से जुदा, भव को तजें हम नाथ हे!
तब आइए इस आत्म को, परमात्म लें हँस साथ में
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चिंतन:
कौन बेहतर नर या नारी?
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स्त्री विमर्शवादियों का मत है कि स्त्री का हमेशा शोषण किया गया, समानाधिकार नहीं दिया गया। प्रगतिशीलता की चाह अश्लील लेखन, पारिवारिक बिखराव, अंग प्रदर्शन, सहजीवन (लिव इन) तक सीमित रह गई।
पुरुष वर्ग और न्यायालय का आकलन है कि सब कानून स्त्री हितों को दृष्टि में रखकर बनाए गए हैं, प्रताड़ित और पीड़ित पुरुष की हितरक्षा हेतु कोई कानून ही नहीं है।
विवाह को बंधन मानकर नकारने और उन्मुक्त संबंध का दुष्परिणाम बालिका वधुऔर प्रशांत अर्थात स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अहितकर रहा है।
साहित्य भ्रमित समाज को दिशा दिखाता है।
भारतीय चिंतन विद्या, धन और शक्ति की अधिष्ठात्री सरस्वती-रमा-उमा को पूजता रहा तो अप्सराओं से प्रणय-विवाह-संतान अधिकार छीननेवाली देव संस्कृति को आदर्श मानता रहा।
धरती को माता और आसमान को पिता मानने का समन्वयपरक चिंतन वेदपूर्व से मान्य रहा है।
तुलसी ने इसी समन्वयवादी दृष्टिकोण को अपनाया। "ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, सकल तोड़ना के अधिकारी" को उद्धृत कर तुलसी को नारी-निंदक कहनेवाले भूल जाते हैं कि तुलसी ने अपनी पत्नि द्वारा तिरस्कृत किए जाने के बाद भी "जगत जननि दामिनी सुख दाता / नहिं तव आदि मध्य अफसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना" कहकर नारी वंदना की, मीरा का पथ प्रदर्शन किया, रत्नावली को रामभक्ति हेतु प्रेरित किया और रत्नावली आजीवन उन्हें पूजती रहीं।
मैथिलीशरण गुप्त जी के मत में-
एक नही दो दो मात्राएँ,
नर से बढ़कर है नारी।
नर-नारी दोनों की प्रकृति अलग है, स्वभाव अलग है, कार्यशैली अलग है।
दोनों एक-दूसरे के पूरक है, विरोधी नहीं। कुहीं नारी श्रेष्ठ है, कहीं नर।
नर गगन की तरह छाना चाहता है तो नारी धरती की तरह समेटना। नर पाकर खुश होता है, नारी देकर।
रामधारी सिंह दिनकर नर-नारी के मनोवैज्ञानिक अंतर को स्पष्ट करते हैं-
पुरुष चूमते तब जब वे सुख में होते हैं,
हम चूमती उन्हें जब वे दुख में होते हैं।
नर जीतना चाहता है , नारी आत्मसात करना।
जीवन पथ पर कभी तुम जो थके
मैं शीतल जल, बन आउंगी
बुझा सकी ना प्यास तेरी
तो, थके पाँव धो जाऊँगी
नारी प्यार में खो जाना चाहती ,प्यार में , प्रीत में मिट जाने को ही श्रेष्ठ मानती है-
दिया कहे तू सागर, मैं होती तेरी नदिया ,
लहर बहर कर तू अपने, पीया चमन जाती रे ,
सुन मेरे साथी रे
नारी पुरुषार्थ हीन नहीं है, न नर ममतारहित है। नारी का पौरुष और नर की ममता उनकी सुप्त वृत्ति है जो आवश्यकतानुसार प्रगट होती है।
वत्सला से वज्र में
ढल जाऊँगी,
मैं नहीं हिमकण हूँ
जो गल जाऊँगी।
भारतीय चिंतन संघर्ष नहीं समन्वय को इष्ट मानता है। वह सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा को पूजने में हिचकता नहीं है किंतु इन्हें क्रमश: ब्रह्मा-विष्णु-महेश का अभिन्न अंग मानता है।
हमारे शास्त्रों में भी परमेश्वर अर्थात परम शक्ति की कभी नर रूप में कभी नारी रूप में कल्पना की गई है। वास्तुत: वह शक्ति न तो नर है, न नारी है। उस शक्ति को आश्रयदाता के रूप में नर और पोषक के रूप में नारी कहा है। 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' में यही भाव अंतर्निहित है।
उपनिषद में भी समान अभिव्यक्ति है-
'रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो ब्रह्म उमा वाणी तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो विष्णु उमा लक्ष्मी तस्मै तस्यै नमो नमः।'
रुद्र, सूर्य है और उमा उसकी प्रभा है, रुद्र फूल है और उमा उसकी सुगंध है, रुद्र यज्ञ है और उमा उसकी वेदी है।
सृष्टि के मूल में प्रकृति और पुरुष ये दो तत्व हैं। ऐसा सांख्यदर्शन का स्पष्ट मत है।
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं- 'प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि।'
प्रकृति और पुरुष दोनों के समन्वय-सहयोग से सृष्टि बनी है।
नर-नारी के अद्वैत को अर्धनारीश्वर (शिवा-शिव, राधा-कृष्ण) के रूप मे वर्णित किया गया है।
पुरुष के अंतःकरण में जब स्त्रीभाव का उदात्तीकरण होता है, तब वह करुणामय, प्रेमपूर्ण वात्सल्यमय बनता है, कवि और कलाकार बनता है, संवेदनाक्षम बनता है। इसी तरह स्त्री में 'पुरुष' जागृत होते ही वह धीर और दृढ़ सावित्री बनती है, उसमें से रणचंडी लक्ष्मीबाई प्रकट होती है।
इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि स्त्रीत्व और पुरुषत्व के गुण जब एक मानव में होते हैं, तब मानव मे अर्धनारीश्वर प्रकट होते हैं।
२९-८-२०२०
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कार्यशाला:
चर्चा डॉ. शिवानी सिंह के दोहों पर
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गागर मे सागर भरें, भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश तो, कासे कह दे पीर||
तो अनावश्यक, प्रिय के जाने के बाद प्रिया पीर कहना चाहेगी या मन में छिपाना? प्रेम की विरह भावना को गुप्त रखना जाना करुणा को जन्म देता है।
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गागर मे सागर भरें, भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश मन, चुप रह, मत कह पीर||
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सावन भादव तो गया गई सुहानी तीज|
कौनो जतन बताइए साजन जाए पसीज||
साजन जाए पसीज = १२
सावन-भादों तो गया, गई सुहानी तीज|
कुछ तो जतन बताइए, साजन सके पसीज||
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प्रेम विरह की आग मे झुलस गई ये गात|
मिलन भई ना सांवरे उमर चली बलखात||
गात पुल्लिंग है., सांवरा पुल्लिंग, नारी देह की विशेषता उसकी कोमलता है, 'ये' तो कठोर भी हो सकता है.
प्रेम-विरह की आग में, झुलस गया मृदु गात|
किंतु न आया साँवरा, उमर चली बलखात||
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प्रियतम तेरी याद में झुलस गई ये नार|
नयन बहे जो रात दिन भया समुन्दर खार||
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प्रियतम! तेरी याद में, मुरझी मैं कचनार|
अश्रु बहे जो रात-दिन, हुआ समुन्दर खार||
कचनार में श्लेष एक पुष्प, कच्ची उम्र की नारी,
नयन नहीं अश्रु बहते हैं, जलना विरह की अंतिम अवस्था है, मुरझाना से सदी विरह की प्रतीति होती है।
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अब तो दरस दिखाइए, क्यों है इतनी देर?
दर्पण देखूं रूप भी ढले साँझ की बेर|
क्यों है इतनी देर में दोषारोपण कर कारण पूछता है। दर्पण देखना सामान्य क्रिया है, इसमें उत्कंठा, ऊब, खीझ किसी भाव की अभिव्यक्ति नहीं है। रूप भी अर्थात रूप के साथ कुछ और भी ढल रहा है, वह क्या है?
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अब तो दरस दिखाइए, सही न जाए देर.
रूप देख दर्पण थका, ढली साँझ की बेर
सही न जार देर - बेकली का भाव, रूप देख दर्पण थका श्लेष- रूप को बार-बार देखकर दर्पण थका, दर्पण में खुद को बार-बार देखकर रूप थका
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टिप्पणी- १३-११ मात्रावृत्त, पदादि-चरणान्त व पदांत का लघु गुरु विधान-पालन या लय मात्र ही दोहा नहीं है. इन विधानों से दोहा की देह निर्मित होती है. उसमें प्राण संक्षिप्तता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता, मर्मबेधकता तथा चारुता के पञ्च तत्वों से पड़ते हैं। इसलिए दोहा लिखकर तत्क्षण प्रकाशन न करें, उसका शिल्प और कथ्य दोनों जाँचें, तराशें, संवारें तब प्रस्तुत करें।
३०-८-२०१७
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नवगीत -
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पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
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कैसा निजाम जिसमें
दो दूनी
तीन-पाँच ही होता है।
जो काट रहा है पौधों को
वह हँसिया
फसलें बोता है।
कीचड़ धोता है दाग
रगड़कर
कालिख गोर चेहरे पर।
अंधे बैठे हैं देख
सुनयना राहें रोके पहरे पर।
ठुमकी दे उठा, गिराते हो
खुद ही पतंग
दे रहे ढील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
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कैसा मजहब जिसमें
भक्तों की
जेब देख प्रभु वर देता?
कैसा मलहम जो घायल के
ज़ख्मों पर
नमक छिड़क देता।
अधनंगी देहें कहती हैं
हम सुरुचि
पूर्ण, कपड़े पहने।
ज्यों काँटे चुभा बबूल कहे
धारण कर
लो प्रेमिल गहने।
गौरैया निकट बुलाते हो
फिर छोड़ रहे हो
कैद चील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
३०-८-२०१६
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मुक्तक
राखी :
नहीं धागा है महज यह यह स्नेह का आधार है
आस का, विश्वास का, परिहास का संसार है
सहारा है डूबते को यही तिनके सा 'सलिल'-
विदेहित शुभ भाव पूरित देह में आगार है
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