पुरोवाक
ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारतीय काव्याचार्यों ने काव्य को ‘दोष रहित गुण सहित रचना’ (मम्मट), ‘रमणीय अर्थ प्रतिपादक’ (जगन्नाथ), ‘लोकोत्तर आनंददाता’ (अंबिकादत्त व्यास), रसात्मक वाक्य (विश्वनाथ), सौंदर्ययुक्त रचना (भोज, अभिनव गुप्त), चारुत्वयुक्त (लोचन), अलंकार प्रधान (मेघा विरुद्र, भामह, रुद्रट), रीति प्रधान (वामन), ध्वनिप्रधान (आनंदवर्धन), औचित्यप्रधान (क्षेमेन्द्र), हेतुप्रधान (वाग्भट्ट), भावप्रधान (शारदातनय), रसमय आनंददायी वाक्य (शौद्धोदिनी), अर्थ-गुण-अलंकार सज्जित रसमय वाक्य (केशव मिश्र), आदि कहा है जबकि पश्चिमी विचारकों ने आनंद का सबल साधन (प्लेटो), ज्ञानवर्धन में सहायक (अरस्तू), प्रबल अनुभूतियों का तात्कालिक बहाव (वर्ड्सवर्थ), सुस्पष्ट संगीत (ड्राइडन) माना है।
हिंदी कवियों में केशव ने केशव ने अलंकार, श्रीपति ने रस, चिंतामणि ने रस-अलंकार-अर्थ, देव ने रस-छंद-अलंकार, सूरति मिश्र ने मनरंजन व रीति, सोमनाथ ने गुण-पिंगल-अलंकार, ठाकुर ने विद्वानों को भाना, प्रतापसाहि ने व्यंग्य-ध्वनि-अलंकार, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने चित्तवृत्तियों का चित्रण, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हृदय मुक्तिसाधना हेतु शब्द विधान, महाकवि जयशंकर प्रसाद ने संकल्पनात्मक अनुभूति, महीयसी महादेवी वर्मा ने हृदय की भावनाएँ, सुमित्रानंदन पंत ने परिपूर्ण क्षणों की वाणी, केदारनाथ सिंह ने स्वाद को कंकरियों से बचाना, धूमिल ने शब्द-अदालत के कटघरे में खड़े निर्दोष आदमी का हलफनामा, अज्ञेय ने आदि से अंत तक शब्द कहकर कविता को परिभाषित किया है। वस्तुतः कविता कवि की अनुभूति को अभिव्यक्त कर पाठक तक पहुँचानेवाली रस व लय से युक्त ऐसी भावप्रधान रचना है जिसे सुन-पढ़ कर श्रोता-पाठक के मन में समान अनुभूति का संचार हो।
प्रस्तुत कृति लोकोपयोगी अर्थ प्रतिपादक, गुण-दोषयुक्त, मननीय, रोचक, भाव प्रधान काव्य रचना है।
काव्य हेतु:
बाबू गुलाबराय के अनुसार ‘काव्य हेतु’ काव्य रचना में सहायक साधन हैं। भामह के अनुसार शब्द, छंद, अभिधान, इतिहास कथा, लोक कथा तथा युक्ति कला काव्य साधन हैं। इंडी ने प्रतिभा, ज्ञान व अभ्यास को काव्य हेतु कहा है। वामन, जगन्नाथ व हेमचंद्र ने प्रतिभा को काव्य का बीज कहा है। रुद्रट के मत में शक्ति, व्यत्पत्ति व अभ्यास को काव्य हेतु हैं। आनंदवर्धन जन्मजात संस्कार रूपी प्रतिभा को काव्य हेतु कहते हैं। राजशेखर ने प्रतिभा के कारयित्री और भावयित्री दो प्रकार तथा 7 काव्य हेतु स्वास्थ्य, प्रतिभा, अभ्यास, भक्ति, वृत्त कथा, निपुणता, स्मृति व अनुराग माने हैं। मम्मट शक्ति, लोकशास्त्र में निपुणता और अभ्यास को काव्य हेतु कहते हैं। कुंतक, महिम भट्ट और मम्मट प्रतिभा को काव्य हेतु मानते हुए उसे शक्ति, तृतीय नेत्र व काव्य बीज कहते हैं। डॉ. नगेंद्र प्रतिभा को काव्य का मूल, ईश्वर प्रदत्त शक्ति और काव्य बीज कहते हैं।
इस काव्य रचना का हेतु मानव हित, इतिहास कथा, मुक्त छंद, वृत्त कथा, मौलिक विश्लेषण तथा अभ्यास है। कवि हरविंदर सिंह गिल की कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा के स्वंत्र अध्यवसाय का सुफल है यह कृति।
विषय चयन:
सामान्यतः काव्य रचना में रस की उपस्थिति मानते हए कोमलकांत पदावली तथा रोचक-रसयुक्त विषय चुने जाते हैं। पत्थर और दीवार ‘एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा’ की कहावत को चरितार्थ करते हैं। ऐसे नीरस विषय का चयन कर उस पर प्रबंध काव्य रचना अपेक्षाकृत दुष्कर कार्य है जिसे हरविंदर जी ने सहजता से पूर्ण किया है। पत्थर महाप्राण निराला का प्रिय पात्र रहा है।
प्रबंध काव्य तुलसीदास में देश दशा वर्णन हो या अहल्या प्रसंग, पाषाण के बिना कैसे पूर्ण होता-
17
”हनती आँखों की ज्वाला चल,
पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,
ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;
वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,
है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;
केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।“
20
”लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,
पाषाण-खण्ड ये, करो हार,
दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;
अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,
बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,
झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!
निराला की प्रसिद्ध रचना ‘वह तोड़ती पत्थर’ साक्षी है कि पत्थर भी मानव की व्यथा-कथा कह सकता है-
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।....
...एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
”मैं तोड़ती पत्थर।“
मेरे काव्य संकलन ‘मीत मेरे’ में एक कविता है ‘पाषाण पूजा’ जिसमें पत्थर मानवीय संवेदनाओं का वाहक बनकर पाषाण हृदय मनुष्य के काम आता है-
ईश्वर!
पूजन तुम्हारा किया जग ने सुमन लेकर
किन्तु मैं पूजन करूँगा पत्थरों से
वही पत्थर जो कि नींवों में लगा है
सही जिसने अकथ पीड़ा, चोट अनगिन
जबकि वह कटा गया था।
मौन था यह सोचकर
दो जून रोटी पायेगा वह
कर परिश्रम काटता जो।......
.....वही पत्थर हृदय जिसका
सुकोमल है बालकों सा
काम आया उस मनुज के
हृदय है पाषाण जिसका।
सुहैल अज़ीमाबादी का दिल दोस्तों द्वारा मारे गए पत्थर से घायल है-
पत्थर तो हजारों ने मारे हैं मुझे लेकिन
जो दिल पे लगा आकर एक दोस्त ने मारा है
आम तौर पथराई आँखें, पत्थर दिल, पत्थर पड़ना जैसी अभिव्यक्तियाँ पत्थर को कटघरे में ही खड़ा करती हैं किन्तु ‘जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि’। ‘पत्थर के सनम तुझे हमने मुहब्बत का खुदा जाना’ कहनेवाले शायर के सगोत्री हरविंदर जी ने बर्लिन देश को दो भागों में विभाजित करनेवाली दीवार के टूटने पर गिरते पत्थर को मानवीय संवेदनाओं से जोड़ते हुए इस काव्य कृति की रचना की। कवि हरविंदर पंजाब से हैं, विस्मय यह है कि मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने ‘जलियांवाला बाग़ के कुएँ का पत्थर’ न चुनकर सुदूर बर्लिन की दीवार का पत्थर चुना, शायद इसलिए कि उबर्लिनवासियों ने निरंतर विरोधकर सत्तधीशों को उस दीवार को तोड़ने के लिए विवश कर दिया। इससे एक सीख भारत उपमहाद्वीप ने निवासियों को लेना चाहिए जो भारत-पाकिस्तान और भारत-बांगलादेश के बीच काँटों की बाड़ को अधिकाधिक मजबूत किया जाता देख मौन हैं, और उसे मिटाने की बात सोच भी नहीं पा रहे।
‘कंकर-कंकर में शंकर’ और ‘कण-कण में भगवान’ देखने की विरासत समेटे भारतीय मनीषा आध्यात्म ही नहीं सर जगदीश चंद्र बसु के विज्ञान सम्मत शोध कार्यों के माध्यम से भी जानती और मानती है कि जो जड़ दिखता है उसमें भी चेतना होती है। ढहती बर्लिन दीवार के ढहते हुए पत्थरों को कवि निर्जीव नहीं चेतन मानते हुए उनमें भविष्य की श्वास-प्रश्वास अनुभव करता है।
ये पत्थर
निर्जीव नहीं है,
अपितु हैं उनमें
मानवता के आनेवाले कल की साँसें।
‘कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को’ कहती हई व्यवस्था के विरोध में खड़ी लैला, स्वेच्छा रूपी ‘कैस’ (मजनू) को पत्थर से बचाने की गुहार हमेशा करती आई है। कवि लैला को जनता, कैस को जनमत और पत्थर को हथियार मानता है-
पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये जन्मदाता हैं आधुनिक हथियारों के।
आदिकाल से मानव
इन नुकीले पत्थरों से
शिकार करता था
मानव और जानवर दोनों का।
कवि पत्थर में भी दिल की धड़कनें सुना पाता है-
इनमें प्यार करनेवाले
दिलों की धड़कनें भी होती हैं।
यदि ऐसा न होता तो
ताजमहल इतना जीवंत न होता।
कठोर पत्थर ही दयानिधान, करुणावतार को मूर्तित कर प्रेरणा स्रोत बनता है-
ये प्रेरणा स्रोत भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो चौराहों पर लगी मूर्तियाँ
या स्तंभ और स्मारक
पूज्यनीय और आराधनीय न होते।
गुफा के रूप में आदि मानव के शरणस्थली बने पत्थर, मानव सभ्यता के सबल और सदाबहार सहायक रहे हैं-
इनमें छिपे हैं अनंत उपदेश जीवन के
वर्ण गुफाएँ जो पहाड़ों के गर्भ में
समेटे होती हैं अँधेरा अपने आप में
क्योंकर सार्थक कर देतीं तपस्या को
जो उन संतों ने की थीं।
मनुष्य भाषा, भूषा, लिंग, देश, जाति ही नहीं धरती, पानी और हवा को लेकर भी एक-दूसरे को मरता रहता है किन्तु पत्थर सौहार्द, सद्भाव और सहिष्णुता की मिसाल हैं। ये न तो एक दूसरे पर हमला न करते हैं, न एक दूसरे का शिकार करते हैं-
ये तो नाचते-गाते भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो दक्षिण के मंदिरों में बनी
ये पत्थरों की मूर्तियाँ
जीवंत भारत नाट्यम की
मुद्राएँ न होतीं
और आनेवाली पीढ़ियों के लिए
साधना का उत्तम
मंच बनकर न रह पातीं।
पत्थर सीढ़ी के रूप में मानव के उत्थान-पतन में उसका सहारा बनता है। शाला भवन की दीवार बनकर पत्थर ज्ञान का दीपक जलाता है, यही नहीं जब सगे-संबंधी भी साथ छोड़ देते तब भी पत्थर साथ निभाता है-
अंतिम समय में
न ही उसके भाई-बहन और
न ही जीवन साथी
उसका साथ देते हैं।
साथ देते हैं ये पत्थर
जो उसकी कब्र पर सजते हैं।
यहाँ उल्लेख्य है कि गोंडवाने की राजमाता दुर्गावती की शहादत के पश्चात उनकी समाधि पर श्रद्धांजलि के रूप में सफेद कंकर चढ़ाने की परंपरा है।
पत्थर ठोकर लगाकर मनुष्य को आँख खोलकर चलने की सीख और लड़खड़ाने पर सम्हलने का अवसर भी देते हैं।
यदि ऐसा न होता तो
मानव को ठोकर शब्द का
ज्ञान ही नहीं हो पाता
और ठोकर के अभाव में
कोई भी ज्ञान
अपने आप में कभी पूर्ण नहीं होता।
पत्थर अतीत की कहानी कहते हैं, कल को कल तक पहुँचाते हैं, कल से कल के बीच में संपर्क सेतु बनाते हैं-
ये इतिहास के अपनने हैं,
यदि ऐसा न होता तो
कैसे पता चल पाता
मोहनजोदड़ो और हङप्पा का।
पत्थर के बने पाँसों के कारण भारत में महाभारत हुआ-
ये चालें भी चलते हैं,
यदि ऐसा न होता
चौरस के खेल
में इन पत्थरों से बानी गोटियाँ
दो परिवारों को
जिनमें खून का रिश्ता था
कुरुक्षेत्र में घसीट
न ले जाते और
न होता जन्म
महाभारत का।
द्वार में लगकर पत्थर स्वागत और बिदाई भी करते हैं-
इन पत्थरों से बने द्वार ही
करते हैं स्वागत आनेवाले का
और देते हैं विदाई दुःख भरे दिल से
हर कनेवाले मेहमान को
पर्वत बनकर पत्थर वन प्रांतर और बर्षा का आधार बनते हैं-
यदि पत्थरों से बानी
ये पर्वत की चोटियां
बहती हवाओं के रुख को
महसूस न कर पातीं
तो धरती बरसात के अभाव में
एक रेगिस्तान बनकर रह जाती।
विद्यालय में लगकर पत्थर भविष्य को गढ़ते भी हैं-
स्कूल के प्रांगण में
विचरते बच्चों के जीवन पर
इनकी गहरी निगाह होती है
और उनके एक-एक कदम को
एक गहराई से निहारते हैं
जैसे कोई सतर्क व्यक्ति
कदमों की आहट से ही
आनेवाले कल को पढ़ लेता है।
पत्थर जीवन मूल्यों की शिक्षा भी देता है, मानव को चेताता है कि हिंसा से किसी समस्या का समाधान होता है-
इतिहास में
खून की स्याही से
आज तक कभी कोई
अपने नाम को
रौशन नहीं कर पाया
न कर पायेगा।
वह तो मानवता के लिए
बहाये पसीने से ही
स्याही को अक्षरों में
बदलता है।
यह कृति 40 कविताओं का संकलन है, जो बर्लिन को विभाजित करनेवाली ध्वस्त होती दीवार के पत्थर को केंद्र रखकर रची गयी हैं। इस तरह की दो कृतियाँ राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास निराला जी ने रची हैं जो श्री राम तथा संत तुलसीदास को केंद्र में रची गयी हैं।
सामान्यतः किसी मानव को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे जाते हैं किंतु कुछ कवियों ने नदी, पर्वत आदि को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे हैं। डॉ. अनंत राम मिश्र अनंत ने नर्मदा, गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, चम्बल, सिंधु आदि नदियों पर प्रबंध काव्य रचे हैं। कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने इसी पथ पर पग रखते हए ‘ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार’ प्रबंध काव्य की रचना की है। जीवन भर देश की रक्षार्थ हाथों में हथियार थामनेवाले करों में सेवानिवृत्ति के पश्चात् कलम थामकर सामाजिक-पारिवारिक मानवीय मूल्यों की मशाल जलाकर कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी मौलिक चिंतन वृत्ति आगामी कृतियों के प्रति उत्सुकता जगाती है। इस कृति को निश्चय ही विद्वज्जनों और सामान्य पाठकों से अच्छा प्रतिसाद मिलेगा यह विश्वास है।
संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, संचालक, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 401 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर - 472001, चलभाष 9425173244, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
***
पुरोवाक्:
'असीम आस्था' मानव और मानवता पर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कविता
कविता मनुष्य के हृदय को उन्नत कर, उसका उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है। कविता बहुप्रयोजनीय विधा है जो संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में आदिकाल से पाई जाती है। संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में व्यस्त मनुष्य की मानुषी प्रकृति और प्रवृत्ति के संरक्षण व संवर्धन हेतु कविता रामबाण उपाय है। कविता मनुष्य को प्रकृति की और उन्मुख कर समन्वय, साहचर्यं, सद्भाव, सहकार, सहिष्णुता के बीज बोती है। काव्य- प्रेरणा से कार्य में प्रवृत्ति बढ़ जाती है। केवल लाभ-हानि का अनुमानकर मनुष्य किसी काम के करने या न करने के लिए तैयार नहीं होता किंतु हर्ष, आह्लाद, करुणा, प्रेरणा, क्रोध या द्वेष वश विचलित होकर वः काम करने या न करने के लिए प्रस्तुत होता है। कार्य प्रेरणा केवल मस्तिष्क (बुद्धि) नहीं अपितु मन (भावना) से उत्प्रेरित होती है। कार्य-प्रवृत्ति के लिए मन में आवेग - संवेग होना आवश्यक है।
सैनिक
सैनिक कर्मव्रती और कर्मवीर होता है। वह निष्काम कर्म नहीं करता। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचिन' सैनिक का आदर्श होकर भी नहीं होता। सैनिक कर्म करता है तो उसे परिणाम चाहिए, इसलिए उसका कर्म सकाम है किंतु उसका कर्म वैयक्तिक राग-द्वेष, हानि-लाभ से जुड़ा नहीं है, इसलिए वह अनासक्त है। प्रस्तुत कृति 'असीम आस्था' के कवि कैप्टेन हरबिंदर सिंह गिल सैन्याधिकारी रहे हैं। निरासक्त भाव से कर्मकर प्राप्त फल 'सर्वजनहिताय, सर्वजन सुखाय' अर्पित करते रहना उनका स्वभाव है। विवेच्य कृति 'असीम आस्था' तथा पूर्वकृति 'बर्लिन की दीवार' दोनों के मूल में मानव हित की भावना तथा सर्व कल्याण की कामना अंतर्निहित है। 'बर्लिन की दीवार' का कवि मानव मूल्यों के पहरेदार की तरह निष्प्राण पाषाण में अन्तर्निहित चेतना से साक्षात करते हुए विश्वइतिहास में विविध कालखंडों में घटित घटनाओं को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में विवेचित करते हुए पत्थर के माध्यम से गहन विमर्शकर सम्यक संदेश देता है। हरबिंदर जी का सैनिक मन कर्तव्य भाव को सर्वोपरि रखकर 'आस्था' को जीवन का उसकी रक्षार्थ विविध आयुधों की तरह काव्य रचनाओं में सत्य-शिव-सुंदर का संधान करता है। कवि की चिंता 'आष्टा' को विखंडित-कलंकित होने से बचाने की है-
कैसा समय आ गया है
शब्दों के अर्थ
इतनी तीव्र गति से
बदल रहे हैं (कि)
वाक्य तो वाक्य
पूरे का पूरा पाठ
अपना अर्थ खो रहा है।
मानव सभ्यता के विकसित और चिरजीवी होने का कारण स्वयं में, अपने चितन में, अपने प्रयासों में, अपने लक्ष्य में आस्था होना ही है। संशय आस्था का शत्रु है। 'शब्द ब्रह्म' मानव चेतना का प्रागट्य है। शब्दों के अर्थ खोने लगें तो 'वाक्य' और 'पाठ' ही नहीं 'पुस्तकें' और 'रचना कर्म भी' अर्थहीन हो जाएगा और बिना रचना कर्म के मनुष्य ही अर्थहीन हो जाएगा।
'एक शब्द मानव स्वयं है ..... मानव अपना अस्तित्व खोता जा रहा है ..... काश, मानव, मानवता की महत्ता जान ले ..... हो जाएगा उजाला ही उजाला' गागर में सागर भर दिया है कवि ने कम से कम शब्दों में।
'आस्था' मानुष को सीमातीत सामर्थ्य प्रदान करती है -
काश, मानव
इन परिधियों की सीमाएँ
आसमान के क्षितिज तक
सकता
शब्दों के अर्थ में आ जाती
सच्चाई प्रकृति की
और हो प्रसन्नचित्त
झूमने लगती
मेरी उदास माँ मानवता।
साहित्य रसानंद या सच्चिदानंद प्राप्ति का माध्यम है। साहित्य ही संकुचित हो जाए तो मानवता के सम्मुख खतरा उपस्थित हो जाता है। कवि समकालिक साहित्यिक प्रवृत्तियों में वैयक्तिक दृष्टि और हितों की प्रधानता देख कर चिंतित है-
साहित्य तोते की तरह
एक खूबसूरत पालतू
पक्षी बनकर रह गया है।
सिखाया है,
रटाया जाता है कि
क्या बोलना है?
(साहित्य) वही बोलता है
जो मालिक चाहता है।
साहित्य व्यक्तिगत हित साधन का उपक्रम मात्र बना लिया जाए तो मानवता के समक्ष नष्ट होने के खतरा बढ़ जाता है।
(साहित्य) दर्पण में आई दरार
मनुष्य के मुख पर ही नहीं
उसकी अंतरात्मा पर भी
एक प्रश्न चिन्ह छोड़ जाएगी।
प्रश्न चिन्ह किसी प्रश्न का उत्तर नहीं होता किंतु वह समय की सार्थकता को कटघरे में अवश्य खड़ा करता है। कवि भली-भाँति जानता है कि -
मानव ने आज तक
शब्दों को
अहं के गहने के रूप में
सजाया और सँवारा है
उन्हें कभी
आस्था के फूल समझ
मानवता को अर्पण नहीं किया है।
मानव मूल्यों और मानवीय आचरण का पहरुआ कवि स्पष्ट शब्दों में चेतावनी देता है-
इसलिए मानव
यह भूल न कर लेना
मानवता को ही बना मूर्ख ,
भगवान की आँखों में
कभी धूल झोंक पाएगा।
आस्था पर अडिग आस्था रखता कवि-मन जानता है कि सच्चे मन से की गई प्रार्थना निष्फल नहीं होती-
यह प्रकृति का सत्य है
प्रार्थना
कभी व्यर्थ नहीं जाती।
यह तभी होता है
जब उसके शब्द
कंठ से न निकलकर
आत्मा से निकलें।
चतुर्दिक पूजास्थलों की भरमार होने के बाद भी भगवान के भक्तों की मनोकामना पूर्ण न होने का कारण मस्तिष्क (स्वार्थ) द्वारा मन (परमार्थ) को गुलाम बना लेना है। अर्थहीन शब्दों को सजा-सँवारकर आधुनिकता कहना की चादर पहनाना मानव की बड़ी भूल है। शब्दों से खिलवाड़ का दुष्परिणाम शब्दों में अन्तर्निहित अर्थ खो जाना और कविता का शब्दकोष बनते जाना है-
कंप्यूटर के युग में
शब्द तो दूर की बात है
अक्षर भी
अपनी मौलिकता खोने लगे हैं। यह शायद इसलिए हो रहा है कि
नैतिकता और आध्यात्मिकता को
कंप्यूटर स्वीकार करने से
इंकार कर देता है।
अपने पूर्वजों की विरासत को विस्मृत करना, मानवता में आस्था न होना ही त्रासदी का कारण है।
मानवता में आस्था
एक परम आनंद की
अनुभूति देता है,
उसमें सुगंध आती है
श्रद्धा के फूलों की
क्योंकि इसी माँ की गोद में
सो रहे हैं
हमारे अपने पूर्वज।
परन्तु आज का मानव
अपनी ही संतानों के मोह में
इतना खो गया है
कि वह पूर्वज तो दूर
स्वयं को भी भूल गया है।
इतिहास साक्षी है कि महाभारत भी विरासत को विस्मृत कर संतानों के प्रति अंधमोह का हो दुष्परिणाम था। मुझे स्मरण है कि पूज्या बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा ने अपने एक पत्र में मुझे लिखा था- ....महाभारतकार का यह वाक्य सदा स्मरण रखना 'नहि मान्युषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्', मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं होता। जब मनुष्य को हीन समझ लिया जाता है तब न मनुष्य बचता है, न धन-संपदा।कवि जानता है कि आस्था कपोल कल्पना नहीं यथार्थ है -
मानवता में आस्था
सिर्फ कविता रूपी
कोरी कल्पना नहीं है
अपितु
यथार्थ है
हर एक प्राणी का
जो लेता है श्वास। *
कवि आस्था के प्रति आस्था न होने का कारण यांत्रिकीकरण को मानता है। वह कहता है-
यह इसलिए हो रहा है
मानव के मस्तिष्क में
चिन्तन की जगह
फार्मूलों ने ले ली है
और कारखानों से
बनकर निकल रहे हैं
बरबादी के समीकरण ....
.... परंतु चिंतन
बरबादी के ऐसे समीकरणों को
कतई स्वीकारेगा नहीं
क्योंकि उसकी आस्था
हमेशा
मानवीय गहनता में होती है
न कि मानव के
उथले विचारों में।
शायद इसलिए ही
कबीर जुलाहा होते हुए भी
सबसे (अधिक) धनाढ्य था, है और रहेगा।
आचार्य चतुरसेन और अन्य कई साहित्यकारों चिंतकों ने 'राष्ट्र' की अवधारणा को सर्वाधिक मानव वध काकारण कहा है। कैप्टेन हरबिंदर सिंह सैन्याधिकारी रह चुके हैं, वे पूरी गंभीरता और ईमानदारी से पूछते हैं-
क्या मातृभूमि के नाम पर ये नयी सीमाएँ
समाज की एक ऐसी जरूरत हैं
जिनके बिना
मानव जी नहीं सकता?....
.... चारों तरफ जंगली घास की तरह
फ़ैल रही हैं देशों की नयी सीमाएँ।
यह शर्म की बात है
विज्ञान के इस युग में
इस जंगली घास को
मानव ख़त्म नहीं कर सका है।
कवि को अपनी मानस सृष्टि का ब्रह्मा ठीक ही कहा गया है। वह गतागत और वर्तमान तीनों में एक ही क्षण में जीते हुए उन्हें अपनी मानस सृष्टि में निबद्ध कर सकता है। इसीलिये कहा जाता है 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि'। मानवीय आस्था का उपहास सिर्फ 'राष्ट्र' की अवधारणा ने नहीं किया है, धर्म (पंथ, मजहब, रिलीजन) भी बराबरी का भागीदार है इस गुनाह में। आस्था का केंद्र होते हुए भी हर धर्म ने अन्य धर्मों से न केवल असहमति रखी, उनके अनुयायियों का उपहास उड़ाया, कत्लेआम किया। धर्म के चंगुल में फँसकर मनुष्य मानवता ही भूल गया। 'अयमात्मा ब्रह्म', 'शिवोहं', 'अहं ब्रह्मास्मि' कहनेवाला विश्व का सर्वाधिक उदार धर्म भी 'त्वयमात्मा ब्रह्म' या 'सर्वात्मा ब्रह्म' नहीं कहता। कवि हरबिंदर के शब्दों में -
उसने अपनी पहचान को
धर्म के चिह्नों तक
कर सीमित
अपनी स्वयं की पहचान को
कर दिया है खत्म।
'वैश्विक नीड़म्' कहनेवाला देश भी सीमा पर आवाजाही को रोकता सीमा विस्तार के लिए युद्ध करता है। आदमी की पहचान इंसान के नाते न होकर हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई के नाते होती है। कवि कहता है-
कितना अच्छा होता
धार्मिक पहचान के साथ-साथ
वो मानवता को भी
पहचानने की करता कोशिश
और देख सकता
कितनी खूबसूरत है दुनिया।
सीमा सिर्फ देशों के बीच नहीं होती। मनुष्य खुद को नित नयी-नयी सीमाओं में कैद करता रहता है-
विभिन्न वर्गों में बँटा समाज
क्या कभी तोड़ पाएगा ये सीमाएँ?"
सैनिक से अधिक खून की होली और कौन खेल सकता है? कैप्टेन गिल अंतर्मन से अनुभव करते हैं कि अब सरहदों पर खुनी खेल बंद होना चाहिए, माँओं का आँचल खली न हो, पत्नियों की मांगों का सिंदूर न उजड़े। कवि गिल कहता है-
बहुत हो गई
ये खून की होली
कभी देश के प्रसार के लिए
तो कभी
अपने ही देश में
नयी सीमाओं की उत्पत्ति के लिए
*
बहुत हो गई
ये आँखमिचौली
जो मानव
मानवता के साथ
खेल रहा है।
देश के अंदर भी सड़कों पर खून की होली खेलने का चलन दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है। कवि इस दरिंदगी को भी समाप्त होते देखना चाहता है-
कहते हैं
जब बरबादी के दिन
भाग्य में लिखे हों
महलों रहनेवाले
सड़कों पर
आ जाया करते हैं
और राज जाते हैं
फुटपाथ, बन बसेरा
*
परंतु मानव भूल रहा है
सड़क कभी भी
मंज़िल नहीं हो सकती
वह तो माध्यम है
ध्येय प्राप्ति का।
आस्था की नीलामी, भाँति-भाँति के विभाजन, संघर्ष और ज़िन्दगियों का समापन, इस सबके बाद भी कवि निराश नहीं है। वह जानता है अमावसी अँधेरे के बाद उजयारी भोर और पूनम की रात भी होती है। कवी बच्चों को भावी विश्व का निर्माता मानते हुए बच्चों के साथ सपनों की दुनिया में नवाशा की किरण देखन चाहता है-
इसलिए क्यों न
सपनों की दुनिया में
जिया जाए
जहाँ बच्चे
देख सकें आशा की किरण।
*
बच्चों! प्यार के गीत गाओ
और मनुष्य से
साथ में गाने के लिए कहो
मानवता कोई वस्तु नहीं है
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'असीम आस्था' अपराजित है। आस्था को केंद्र में रची गयी वे विविध कविताएँ एक लंबी कविता के रूप में भी पठनीय हैं और स्वतंत्र रचनाओं के रूप में भी। हिंदी में लंबी कविता का इतिहास नया नहीं है, भले उसे पारिभाषिक अभिधा मुक्तिबोध की लंबी कविताओं से प्राप्त हुई हो । पुराने कवियों को छोड़ दें, तो लंबी कविता द्विवेदी-युग के कवियों से लेकर समवर्ती युग के कवियों तक ने लिखी है। लंबी कविता का संबंध निश्चय ही केवल आकार से न होकर प्रकार से भी है। महाकवि निराला कृत 'सरोज-स्मृति' के चित्रों को यदि स्मृति का सूत्र गुंफित करता है, तो 'राम की शक्ति-पूजा' कथा के सहारे आगे बढ़ती है । मुक्तिबोध रचित 'ब्रह्मराक्षस' और 'अँधेरे में' दोनों ही फैंटास्टिक कविताएँ हैं, लेकिन एक की फैंटेसी जहाँ एक अखंड रूपक के रूप में है, वहाँ दूसरी की फैंटेसी एक पूरी चित्रशाला है।
आज के युग की जटिलता की अभिव्यक्ति के लिए परंपरागत प्रबंधात्मकता उपयुक्त नहीं है। व्यापक अनुभवों को वृहद फलक पर प्रस्तुत करने के लिए ही लंबी कविता का जन्म हुआ है। समकालीन बोध एवं यथार्थ के प्रति अतिरिक्त रुझान, समाजेतिहासिक स्थितियों की गहरी समझ के परिणामस्वरूप लंबी कविता का जन्म हुआ। लगभग ऐसी ही परिवर्तनकारी सामाजिक स्थितियों के अधीन अंग्रेजी के विख्यात कवि विलियम वर्ड्सवर्थ के समय लंबी कविता प्रभावी रूप से अंग्रेजी साहित्य में उपस्थित हुई। भारत में आधुनिकता के आगमन के साथ स्वार्थबद्ध, जनविरोधी, राजनीतिक प्रदीर्घ नीतियों, कार्यवाहियों के कारण जीवन के सभी क्षेत्रों में अनैतिकता का बोलबाला बढ़ा। इसी से उपजी निराशा, कुंठा, हताशा के बड़े लंबे मानवीय संघर्ष के समानांतर लंबी कविता के उद्भव एवं विकास की पृष्ठ भूमि बनी। बिहार के इंजी। केदारनाथ ने 'प्रेम' को केंद्र में रखकर लंबी कविता लिखी है। कैप्टेन हरबिंदर सिंह गिल ने 'बर्लिन की दीवार' में दीवार के पत्थर तथा 'असीम आस्था में' मानवीय आस्था को केंद्र में रखकर माला के मानकों की तरह छोटी रचनाओं को कथ्य के धागे में पिरोकर लंबी काव्य माल बनाई है।
यह कृति लीक से हटकर रची गयी है। यथार्थ और आदर्श के मध्य झूलती कृति का कथ्य, अमिधा में कही गयी रचनाएँ। सहज-सरल प्रवाहमयी भाषा, प्रचलित बिम्ब-प्रतीकों, स्पष्ट कथ्य तथा मर्म को स्पर्श करने की सामर्थ्य के लिए याद की जाएगी।
६-११-२०२०
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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