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मंगलवार, 16 अगस्त 2022

सरला वर्मा

 पुरोवाक् 

'जीतने की जिद' न छोड़ो, सफलता को शीश ओढ़ो 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

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                           मनुष्य उच्च स्वर में दुनिया में प्रवेश की घोषणा करते हुए बिना बताए ही बता दिया करता है कि वह भव सागर की यात्रा 'जितने की जिद' के साथ ही पूरी करेगा। किसी ने पूछा की जन्मा लेते समय शिशु क्या रोया? उत्तर मिला -

किसी ने बता दिया 

थाने से निकलकर 

जेलखाने में आ गया। 

                           बात भले ही मजाक में कही गई हो, है तो सच।  बकौल निदा फ़ाज़ली  

'दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है 

मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है'  

                           यह बात कविता के विषय में भी सत्य है। जिसे कविता करनी नहीं आती, वह कवियों को दुनिया का सबसे अधिक नाकारा आदमी समझता है और जिसे कविता करनी आ जाती है, वह दुनिया को नाकारा समझने लगता है। कविता की जाती है या हो जाती है, इस बारे में जितने मुँह, उतनी बातें हैं। 

                           नवजात शिशु के रुदन में छंद उसी तरह समाहित होता है जैसे पानी की कलकल, हवा की सन् सन्, पंछियों के कलरव या सिक्कों की खन् खन् में पाया जाता है। कविता का सबसे अधिक निकट का नाता माँ का होता है जो गर्भस्थ शिशु की हलचलों के साथ उसकी वाक् भी सुन लेती है। एक भी अक्षर या शब्द न जाननेवाले शिशु को लोरी सुनकर बहला और सुला लेती है। कविता यही है जो मन से मन तक पहुँच सके। 

                           कविता की पहली शर्त उसका 'सरल' होना है, यह सनातन सत्य सरला जी जानती हैं। कविता का दूसरा तत्व उसका 'सरस' होना है, यह सरसता सरला जी के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है। कविता की तीसरी जरूरत 'सहजता' है, सरला जी को पुरखों से विरासत में सहजता खूब मिली है और उन्होंने इस विरासत की तहे-दिल से कद्र कर उसे पल्ल्वित-पुष्पित होने का अवसर दिया है। कविता का चौथा तत्व सामयिकता है। ऐसी कविता सामने जानो से जुड़कर उन्हें अपने साथ उसी तरह जोड़ पाती है जैसे सरला जी चाँद पलों में किसी अपरिचित को अपना बना लेती हैं। 

                           जीवन सार, मेरी चाह, चार दिन और सीता जी की व्यथा शीर्षकों में वर्गीकृत इन रचनाओं में शिल्प पर कथ्य को वरीयता देकर कवयित्री ने अपनी अनुभूतियों को पूरी ईमानदारी से अभिव्यक्त किया है। इस कविताओं का वैशिष्ट्य इनका सहज होना है। कवयित्री वन्य-ग्राम्य बाला के प्राकृतिक-नैसर्गिक रूप को सौंदर्य प्रसाधनों से सज्जित सुंदरी के रूप वैभव की तुलना में अधिक निकट पाती है। इसलिए वह अपनी मानसिक संतानों को निष्कपट रूप में प्रस्तुत कर आह्लादित हों, यह स्वाभाविक है। सरला जी मंचीय या बाजारू काव्य साधक नहीं है जो रचनाओं को किसी बेड़नी की मारक अदाओं की तरह मारक बनाएँ। वे अपनी रचनाओं को किसी साध्वी की तरह सज्जा से दूर रखकर संतुष्ट होती हैं। 

                           'सीता जी की व्यथा' शीर्षक रचना में कवयित्री वन्य संकटों को हँसते-हँसते सह लेने वाली धीरे सीता के भूमि प्रवेश पर प्रश्न उठाती है कि सीता हारी या जीती? सीता का जो भी हो यह तो निश्चय है कि राम को उस दिन जीवन की सबसे बड़ी हार मिली थी। सरला जी जिंदगी का अपना फलसफा दो पंक्तियों में बयान करती हैं- 

ज़िंदगी मुझको मिली है शरण में दातार के 

जीतने की जिद है मेरी कैसे बैठूँ  हार के?

                           'माँ लिखी जाती नहीं' लिखकर सरला जी मात्र चार शब्दों में मंत्र की तरह मन की व्यथा व्यक्त कर देती हैं। 

कवयित्री को बंदिशे पसंद नहीं हैं। 'घरौंदा खूब सूरत हो तो / झरोखा खोलकर रखना' कहते हुए वह जिंदगी को खुशनुमा बनाने का महामंत्र देने में पीछे नहीं है। 

                           सादगी सरला को अपनी माता जी से विरासत में मिली। माँ को यद्वे करते हुए वे कहती हैं-  कहती है- 

घने बालों के जूड़े को 

सजाना भूल जाती थी 

नहीं देखा कभी सोते 

सवेरे जाग जाती थी।'

                           सदाबहार सरला जी भले ही बाल कविता 'बूढ़ी नानी' में खुद को बूढ़ा कहें पर वस्तुत: उनका उत्साह किशरों को मात करता है, उनकी दृढ़ता युवाओं को पीछे छोड़ देती है, उनकी संघर्ष सामर्थ्य बाधाओं को पथ छोड़ देने के लिए बाध्य कर देती है और उनकी कवितायेँ इसकी साक्षी हैं। 

                           कोरोना काल ने अच्छे-अच्छे की हिम्मत छुड़ा दी पर सरला जी ने कोरोनाजयी होकर कोरोना पर भी कविता कर दी। उन्हें भारत की बेटी होने पर गर्व है। वे सतसंग की महिमा बखानने में कृपण नहीं हैं। जिंदगी के उतार-चढ़ावों को हंसकर जिजीविषा के साथ पार करती सरला सुख-दुःख को सम भाव से ग्रहण करती है, ज़िन्दगी को लेकर उसकी सोच बतलाती हैं निम्न पंक्तियाँ- 

कितना सुहाना सफर है 

गजरों में बँधकर महकना  

शिव के चढ़ा था मस्तक तो ॐ बन गया 

शव पर चढ़ा दिया तो महक साथ ले गया 

हर हाल में महकना यही मंज़िल है खज़ाना 

                           'हर हाल में महकना' कवयित्री का यह संकल्प उसके पाठक ग्रहण कर लें तो उनकी ज़िंदगी गिले-शिकवों से मुक्त होकर महकेगी। आस्तिकता की पर्याय सरला जी की कई कविताओं में आस्था के शतदल खिलते मिलते हैं। युगीन विसंगतियाँ उनके हौसलों के आगे बौनी हो जाती हैं। जिन परिस्थितियों में सामान्य जन टूटने लगते हैं, उनसे अधिक विपरीत परिस्थितियों में सरला जी दृढ़ विश्वास के साथ अपनी नाव खेती जाती हैं और उनकी पतवार होती है उनकी अपनी अभिन्न सखी कविता। वे कविता लिखती नहीं, ओरिएबिछाती हैं, कविता के साथ जीती है। उनका यह लगाव सदा बना रहे। उनके आँगन में कविता अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित होती रहे और उनकी श्वासों को सुवासित करती रहे। 

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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gamail.com 

 

      

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