कुल पेज दृश्य

बुधवार, 3 नवंबर 2021

लेख : बोली जड़ें, वृक्ष है हिंदी

लेख :
बोली जड़ें, वृक्ष है हिंदी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत का भाषा परिवार  
भारत के भाषाई इतिहास के स्रोत ब्राह्मी लिपि के साथ आरम्भ होते हैं जो तृतीय शताब्दी ईसापूर्व में जन्मी मानी जाती है। सिन्धु घाटी लिपि में लिखी वस्तुएँ खुदाई में मिलीं हैं किन्तु इस लिपि को अभी तक ठीक-ठीक पढ़ा नहीं जा सका है। भारत में विश्व के सबसे चार प्रमुख भाषा परिवारों की भाषाएँ बोली जाती है। सामान्यत: उत्तर भारत में बोली जाने वाली भारोपीय भाषा परिवार की भाषाओं को आर्य भाषा समूह, दक्षिण की भाषाओं को द्रविड़ भाषा समूह, ऑस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की भाषाओं को मुंडारी भाषा समूह तथा पूर्वोत्तर में रहने वाले तिब्बती-बर्मी, नृजातीय भाषाओं को चीनी-तिब्बती (नाग भाषा समूह) के रूप में जाना जाता है।
आर्य भाषा परिवार
यह परिवार भारत का सबसे बड़ा भाषाई परिवार है। इसका विभाजन 'इन्डो-युरोपीय' (हिन्द यूरोपीय) भाषा परिवार से हुआ है, इसकी दूसरी शाखा 'इन्डो-इरानी' भाषा परिवार है जिसकी प्रमुख भाषायें फारसी, ईरानी, पश्तो, बलूची इत्यादि हैं। भारत की दो तिहाई से अधिक आबादी हिन्द आर्य भाषा परिवार की कोई न कोई भाषा विभिन्न स्तरों पर प्रयोग करती है। जिसमें संस्कृत समेत मुख्यत: उत्तर भारत में बोली जानेवाली अन्य भाषायें जैसे: हिन्दी, उर्दू, मराठी, नेपाली, बांग्ला, गुजराती, कश्मीरी, डोगरी, पंजाबी, उड़िया, असमिया, मैथिली, भोजपुरी, मारवाड़ी, गढ़वाली, कोंकणी इत्यादि भाषायें शामिल हैं।
द्रविड़ भाषा परिवार
यह भाषा परिवार भारत का दूसरा सबसे बड़ा भाषायी परिवार है। इस परिवार की सदस्य भाषायें ज्यादातर दक्षिण भारत में बोली जाती हैं। इस परिवार का सबसे बड़ा सदस्य तमिल है जो तमिलनाडु में बोली जाती है। इसी तरह कर्नाटक में कन्नड़, केरल में मलयालम और आंध्रप्रदेश में तेलुगू इस परिवार की बड़ी भाषायें हैं। इसके अलावा तुलू और अन्य कई भाषायें भी इस परिवार की मुख्य सदस्य हैं। अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और भारतीय कश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों में इसी परिवार की ब्राहुई भाषा भी बोली जाती है जिसपर बलूची और पश्तो जैसी भाषाओं का असर देखने को मिलता है।
आस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार
यह प्राचीन भाषा परिवार मुख्य रूप से भारत में झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के ज्यादातर हिस्सों में बोली जाती है। संख्या की दृष्टि से इस परिवार की सबसे बड़ी भाषा संथाली या संताली है। यह पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, झारखंड और असम में मुख्यरूप से बोली जाती है। इस परिवार की अन्य प्रमुख भाषाओं में हो, मुंडारी, संथाली या संताली, खड़िया, सावरा इत्यादी भाषायें हैं।
चीनी-तिब्बती भाषा परिवार
इस परिवार की ज्यादातर भाषायें भारत के सात उत्तर-पूर्वी राज्यों जिन्हें 'सात-बहनें' भी कहते हैं, में बोली जाती है। इन राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, मिज़ोरम, त्रिपुरा और असम का कुछ हिस्सा शामिल है। इस परिवार पर चीनी और आर्य परिवार की भाषाओं का मिश्रित प्रभाव पाया जाता है और सबसे छोटा भाषाई परिवार होने के बावज़ूद इस परिवार के सदस्य भाषाओं की संख्या सबसे अधिक है। इस परिवार की मुख्य भाषाओं में नागा, मिज़ो, म्हार, मणिपुरी, तांगखुल, खासी, दफ़ला, चम्बा, बोडो, तिब्बती,लद्दाखी ,लेव्या तथा आओ इत्यादि भाषायें शामिल हैं।
अंडमानी भाषा परिवार
जनसंख्या की दृष्टि से यह भारत का सबसे छोटा भाषाई परिवार है। इसकी खोज पिछले दिनों मशहूर भाषा विज्ञानी प्रो॰ अन्विता अब्‍बी ने की। इसके अंतर्गत अंडबार-निकाबोर द्वीप समूह की भाषाएं आती हैं, जिनमें प्रमुख हैं- अंडमानी, ग्रेड अंडमानी, ओंगे, जारवा आदि।
'हिंदी' का अर्थ और मूल
दुनिया की किसी भी अन्य भाषा की तरह हिंदी का मूल उसकी बोलियाँ ही हैं। संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं की उच्चार प्रणाली लगभग समान है। बोलिओं में देशज प्रभाव के कारण कुछ ध्वनियाँ बदल जाती हैं। इसी तरह हमारे 'स' और 'ध' फ़ारसी में क्रमश: 'ह' और 'द' हो जाते हैं। तदनुसार भारत का 'सिंध', 'सिंधी' और 'सिंधु' क्रमश: 'हिंद', 'हिंदी' और 'हिंदु' हो जाते हैं। मोटे तौर पर हिंद (भारत) की किसी भाषा को 'हिंदी' कहा जा सकता है। अंग्रेजी शासन के पूर्व इसका प्रयोग इसी अर्थ में किया जाता था। पर वर्तमानकाल में सामान्यतः इसका व्यवहार उस विस्तृत भूखंड की भाषा के लिए होता है जो पश्चिम में जैसलमेर, उत्तर पश्चिम में अंबाला, उत्तर में शिमला से लेकर नेपाल की तराई, पूर्व में भागलपुर, दक्षिण पूर्व में रायपुर तथा दक्षिण-पश्चिम में खंडवा तक फैली हुई है। हिंदी के मुख्य दो भेद हैं - पश्चिमी हिंदी तथा पूर्वी हिंदी।
फारस के लोग सिंध नदी को हिंद, सिंधु नदी के दक्षिण तट के उस पार रहनेवालों और उनकी भाषा को 'हिंदी' (हिंदवी) तथा उनकी भूमि को हिन्दुओं का स्थान 'हिंदुस्तान' कहते रहे। इक़बाल ने हिंदु मुस्लिम एकता के संबंध में लिखा था- 'हिंदी हैं, हमवतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा।' संस्कृत अथवा किसी भी भारतीय भाषा के पुरातन ग्रंथों में 'हिंदी, हिंदी, हिंदुस्तान' शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया। पुरातन ग्रंथों में इस भूभाग को जंबूद्वीप, आर्यावर्त, भरतखण्ड, भारतववर्ष, भारत, भारतमाता आदि कहा गया। भूगर्भशास्त्र में करोड़ों वर्ष प्राचीन भारतीय भूभाग को 'गोंडवाना लैंड्स' संबोधन मिला। अंग्रेजी में फारसी की 'हि' ध्वनि 'इ' तथा 'द' का उच्चार 'ड' होता है। तदनुसार 'इंड, इंडस, इंडिया, इंडियन' शब्द प्रयोग में लाए गए। शब्दार्थ की दृष्टि से भारत की सकल अथवा किसी भी आर्य, द्रविड़ या अन्य कुल की भाषाओँ / बोलिओं को 'हिंदी' कहा जा सकता है। वर्तमान में उत्तर भारत के मध्य तथा निचले भाग में व्यवहृत भाषा-बोलिओं के लिए 'हिंदी' शब्द का प्रयोग किया जाता है जबकि हिन्द शब्द से समूचा भारत देश, तथा हिंदु शब्द से सनातन धर्मावलंबी समझा जाता है। हिंदी भाषी भूभाग से आशय राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरयाणा आदि से मान्य है। गुजरात, महाराष्ट्र, उड़ीसा, आंध्र, बंगाल, पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश आदि अर्ध हिंदी भाषी कहे जा सकते हैं। इस भूभाग की स्थानीय भाषाओँ-बोलिओं जैसे बृज, अवधी, भोजपुरी, कन्नौजी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, काठियावाड़ी, मालवी, निमाड़ी, बुंदेली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी आदि को हिंदी में समाविष्ट मान लिया जाता है।
हिंदी, हिंदवी, खड़ी बोली
भारतीय तथा फ़ारसी भाषाओँ के मिश्रित रूप को हिंदवी अथवा हिंदुस्तानी कहा जाता रहा है। इसे फ़ारसी लिपि में लिखने पर इसे उर्दू कहा गया। ग्रियर्सन१ ने भाषा सर्वे में इसे 'वर्नाकुलर हिंदुस्तानी' नाम दिया। पूर्वप्रचलित बोलिओं से भिन्नता दिखाने के लिए लल्लूलाल जी ने प्रेमसागर में पहले-पहल इसे 'खड़ी बोली' कहा- ''एक समै व्यासदेव कृत श्रीमतभगवत के दशम स्कंध की कथा को चतुर्भुज मिश्र ने दोहे चौपाई में बृज भाषा किया। सो पाठशाला के लिए श्री महाराजाधिराज सकल गुणीनिधान, पुण्यवान महाजन मारकुइस वलिजलि गवरनर जनरल प्रतापी के राज और श्रीयुत गुनगाहक, गुनियन सुखदायक जान गिलकिरिस्ट महाशय जी आज्ञा से सम्वत १८६० में श्री लल्लू जी लाल कवि ब्राह्मण गुजराती सहस्त्र अवदीच आगरेवाले ने विस का सार ले यामनी भाषा छोड़ दिल्ली आगरे की खड़ी बोली में कह प्रेम सागर नाम धरा।''२
''ब्रजभाषा की अपेक्षा यह बोली वास्तव में कुछ खड़ी लगती है, कदाचित इसी कारण इसका नाम खड़ी बोली पड़ा। साहित्यिक हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी इन तीनों रूपों का संबंध इस खड़ी बोली से ही है। आधुनिक साहित्यिक हिंदी के उस दूसरे साहित्यिक रूप का नाम उर्दू है जिसका व्यवहार उत्तर भारत के शिक्षित मुसलमानों तथा उनसे अधिक संपर्क में आनेवाले कुछ हिन्दुओं जैसे पंजाबी, देसी, काश्मीरी तथा पुराने कायस्थों आदि में पाया जाता है। भाषा की दृष्टि से इन दोनों साहित्यिक भाषाओँ में विशेष अंतर नहीं, वास्तव में दोनों का मूलाधार मेरठ-बिजनौर की खड़ी बोली है। अत: जन्म से ही उर्दू और आधुनिक साहित्यिक हिंदी सगी बहिनें हैं। विक्सित होने पर इनमें जी अंतर हुआ उसे रूपक में यों कह सकते हैं एक तो हिन्दुआनी बनी रही और दूसरी ने मुसलमान धर्म ग्रहण कर लिया। साहित्यिक वातावरण, शब्द-समूह तथा लिपि में हिंदी-उर्दू में आकाश पाताल का भेद है। साहित्यिक हिंदी इन सब बातों के लिए भारत की प्राचीन संस्कृति तथा उसके वर्तमान रूप की ओर देखती है। भारत के वातावरण में उत्पन्न होने और पलने पर भी उर्दू शैली फारस और अरब की सभ्यता और साहित्य से जीवन-श्वास ग्रहण करती है।'३ खड़ी बोली फारसी-अरबी शब्दों के अर्ध तत्सम अथवा तद्भव रूपों का प्रयोग करती है। खड़ी बोली मुख्यत: उत्तर प्रदेश (रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुज़्ज़फ़्फ़रनगर, सहारनपुर, देहरादून मैदानी भाग, अंबाला, कलसिया तथा पटियाला पूर्वी भाग) तथा संपूर्ण मध्य प्रदेश के नागर क्षेत्रों में बोली जाती है।
उर्दू
भारत में स्थायी रूप से बसने पर बहुत दिनों तक फारसी, तुर्की और अरबी बोलनेवाले मुसलमानों का केंद्र दिल्ली रहा। आम जनता से बातचीत-व्यवहार हेतु मुसलमानों ने स्थानीय बोली में अपने विदेश शब्द-समूह को मिला दिया जिसे 'उर्दू-ए-मुअल्ला' नाम से शाही फ़ौजी बाज़ारों में बोला जाता था। धीरे-धीरे रोजमर्रा के काम में, बाजार में इस भाषा का व्यवहार होने लगा। 'उर्दू' शब्द का कोषीय अर्थ बाजार है, उर्दू बाजारू भाषा थी जिसे शाही दरबार और कारिंदों से बातचीत के लिए भारतीय प्रयोग करने लगे थे। अंग्रेज विद्वान ग्राहम बैली उर्दू की उत्पत्ति लाहौर-पंजाब से, तथा इसका मूलाधार पंजाबी मानते हैं चूँकि दिल्ली आने से पहले लगभग २०० वर्ष तक मुसलमान पंजाब में रहे थे। उत्तर भारत में उर्दू को गुलामों से बातचीत की भाषा के रूप में हेय थी। रचनाओं में विदेश शब्दों की अधिकता के कारण भाषा को 'रेख्ता' (मिश्रित भाषा) और स्त्रियों की भाषा 'रेख़्ती' कही जाती थी। उर्दू का साहित्य में प्रयोग पहले-पहल हैदराबाद के निजामी दरबार में हुआ। हैदराबादियों की मूल भाषा 'तेलुगु' द्रविड़ कुल थी, इसलिए वहाँ शासकों की भाषा के रूप में उर्दू को सम्मान मिला। उर्दू साहित्य के प्रथम प्रतिष्ठित कवि वली, हैदराबादी ही थे। इस भाषा को 'दक्खिनी उर्दू' कहा गे चूँकि इसमें फ़ारसी शब्द बहुत कम होते थे। दिल्ली और लखनऊ के दरबारों में उर्दू को प्रवेश बहुत बाद में मिला। लखनऊ में उर्दू का एक भिन्न रूप विकसित हुआ जिस पर बृज और अवधी का असर था। उर्दू की तीनों (दिल्ली, लखनवी और हैदराबादी) शैलियाँ फारसी लिपि के कारण मुसलमानों तथा राज-काज से जुड़े भारतीयों तक सीमित रहीं। एवं शासन समाप्त होने पर उर्दू का महत्व घटा और आखिरकार आम लोगों तक पहुँचाने के लिए उसे मजबूरन देवनागरी लिपि को अपनाना पड़ा। 'उर्दू ग़ज़ल पढ़नेवाले लाख-सवा लाख हैं तो उसी उर्दू ग़ज़ल को देवनागरी लिपि में , ग़ज़ल गायकी में, ज़िंदगी की गुफ्तगू में हिंदुस्तान=पाकिस्तान क्या दुनिया के मुइखतलिफ़ हिस्सों में (पढ़नेवाले) करोड़ों-करोड़ों हैं। इस बड़ी तख्त का अंदाज़ा हमारे उन किताबी नक्कादों को नहीं हो रहा है जो आज की ग़ज़ल को फारसी ग़ज़ल की उतरन समझते हैं।'४ यह कड़वी सचाई है कि उर्दू साहित्यकारों की संकीर्ण मानसिकता आज भी हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओँ की तुलना में अरबी-फारसी को अधिक महत्व देती है जबकि उनके घरों के चूल्हे हिंदी में पढ़े जाने की वजह से जलते हैं।
हिंदी की बोलियाँ
प्राचीन मध्यदेश में प्रचलित ८ मुख्य बोलियों को भाषा शास्त्र की दृष्टि से शौरसेनी-प्राकृत से विकसित पश्चिमी (खड़ी बोली, बाँगरू, बृज, कन्नौजी, बुंदेली) तथा मागधी-प्राकृत से विकसित पूर्वी (अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी) में वर्गीकृत किया गया है।
पश्चिमी और पूर्वी हिंदी
सीमित भाषाशास्त्रीय अर्थ में हिंदी के दो उपरूप माने जाते हैं - पश्चिमी हिंदी और पूर्वी हिंदी।
पश्चिमी हिन्दी
पश्चिमी हिंदी का विकास शौरसैनी अपभ्रंश से हुआ है। इसके अंतर्गत पाँच बोलियाँ हैं - खड़ी बोली, हरियाणवी, ब्रज, कन्नौजी और बुंदेली। खड़ी बोली अपने मूल रूप में मेरठ, रामपुर, मुरादाबाद, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर,बिजनौर,बागपत के आसपास बोली जाती है। इसी के आधार पर आधुनिक हिंदी और उर्दू का रूप खड़ा हुआ। बांगरू को जाटू या हरियाणवी भी कहते हैं। यह पंजाब के दक्षिण पूर्व में बोली जाती है। कुछ विद्वानों के अनुसार बांगरू खड़ी बोली का ही एक रूप है जिसमें पंजाबी और राजस्थानी का मिश्रण है। ब्रजभाषा मथुरा के आसपास ब्रजमंडल में बोली जाती है। हिंदी साहित्य के मध्ययुग में ब्रजभाषा में उच्च कोटि का काव्य निर्मित हुआ। इसलिए इसे बोली न कहकर आदरपूर्वक भाषा कहा गया। मध्यकाल में यह बोली संपूर्ण हिंदी प्रदेश की साहित्यिक भाषा के रूप में मान्य हो गई थी। पर साहित्यिक ब्रजभाषा में ब्रज के ठेठ शब्दों के साथ अन्य प्रांतों के शब्दों और प्रयोगों का भी ग्रहण है। कन्नौजी गंगा के मध्य दोआब की बोली है। इसके एक ओर ब्रजमंडल है और दूसरी ओर अवधी का क्षेत्र। यह ब्रजभाषा से इतनी मिलती जुलती है कि इसमें रचा गया जो थोड़ा बहुत साहित्य है वह ब्रजभाषा का ही माना जाता है। बुंदेली बुंदेलखंड की उपभाषा है। बुंदेलखंड में ब्रजभाषा के अच्छे कवि हुए हैं जिनकी काव्यभाषा पर बुंदेली का प्रभाव है।
पूर्वी हिन्दी
पूर्वी हिंदी की तीन शाखाएँ हैं - अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। अवधी अर्धमागधी प्राकृत की परंपरा में है। यह अवध में बोली जाती है। इसके दो भेद हैं - पूर्वी अवधी और पश्चिमी अवधी। अवधी को बैसवाड़ी भी कहते हैं। तुलसी के रामचरितमानस में अधिकांशत: पश्चिमी अवधी मिलती हैं और जायसी के पदमावत में पूर्वी अवधी। बघेली बघेलखंड में प्रचलित है। यह अवधी का ही एक दक्षिणी रूप है। छत्तीसगढ़ी पलामू (झारखण्ड) की सीमा से लेकर दक्षिण में बस्तर तक और पश्चिम में बघेलखंड की सीमा से उड़ीसा की सीमा तक फैले हुए भूभाग की बोली है। इसमें प्राचीन साहित्य नहीं मिलता। वर्तमान काल में कुछ लोकसाहित्य रचा गया है। बिहारी, राजस्थानी बिहारी हिंदी के अंतर्गत मगही,भोजपुरी,आदि बोलियां आती हैं - बिहारी, राजस्थानी और पहाड़ी हिन्दी। 
बिहारी की तीन शाखाएँ हैं - भोजपुरी, मगही और मैथिली। बिहार के एक कस्बे भोजपुर के नाम पर भोजपुरी बोली का नामकरण हुआ पर भोजपुरी का प्रसार बिहार से अधिक उत्तर प्रदेश में है। बिहार के शाहाबाद, चंपारन और सारन जिले से लेकर गोरखपुर तथा बारस कमिश्नरी तक का क्षेत्र भोजपुरी का है। भोजपुरी पूर्वी हिंदी के अधिक निकट है। हिंदी प्रदेश की बोलियों में भोजपुरी बोलनेवालों की संख्या सबसे अधिक है। इसमें प्राचीन साहित्य तो नहीं मिलता पर ग्रामगीतों के अतिरिक्त वर्तमान काल में कुछ साहित्य रचने का प्रयत्न भी हो रहा है। मगही के केंद्र पटना और गया हैं। इसके लिए कैथी लिपि का व्यवहार होता है। पर आधुनिक मगही साहित्य मुख्यतः देवनागरी लिपि में लिखी जा रही है। मगही का आधुनिक साहित्य बहुत समृद्ध है और इसमें प्रायः सभी विधाओं में रचनाओं का प्रकाशन हुआ है।
मैथिली
मैथिली एक स्वतंत्र भाषा है जो संस्कृत के करीब होने के कारण हिंदी से मिलती जुलती लगती है। मैथिली हिंदी की अपेक्षा बांग्ला के अधिक निकट है। मैथिली गंगा के उत्तर में दरभंगा के आसपास प्रचलित है। इसकी साहित्यिक परंपरा पुरानी है। विद्यापति के पद प्रसिद्ध ही हैं। मध्ययुग में लिखे मैथिली नाटक भी मिलते हैं। आधुनिक काल में भी मैथिली का साहित्य निर्मित हो रहा है। मैथिली भाषा भारत और नेपाल के संविधान में राजभाषा के रूप में भी दर्ज है। नेपाल में दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा मैथिली है।
राजस्थानी
राजस्थानी का प्रसार पंजाब के दक्षिण में है। यह पूरे राजपूताने और मध्य प्रदेश के मालवा में बोली जाती है। राजस्थानी का संबंध एक ओर ब्रजभाषा से है और दूसरी ओर गुजराती से। पुरानी राजस्थानी को डिंगल कहते हैं। जिसमें चारणों का लिखा हिंदी का आरंभिक साहित्य उपलब्ध है। राजस्थानी में गद्य साहित्य की भी पुरानी परंपरा है। राजस्थानी की चार मुख्य बोलियाँ या विभाषाएँ हैं- मेवाती, मालवी, जयपुरी और मारवाड़ी। मारवाड़ी का प्रचलन सबसे अधिक है। राजस्थानी के अंतर्गत कुछ विद्वान्‌ भीली को भी लेते हैं।
पहाड़ी
पहाड़ी उपभाषा राजस्थानी से मिलती जुलती हैं। इसका प्रसार हिंदी प्रदेश के उत्तर हिमालय के दक्षिणी भाग में नेपाल से शिमला तक है। इसकी तीन शाखाएँ हैं - पूर्वी, मध्यवर्ती और पश्चिमी। पूर्वी पहाड़ी नेपाल की प्रधान भाषा है जिसे नेपाली और परंबतिया भी कहा जाता है। मध्यवर्ती पहाड़ी कुमायूँ और गढ़वाल में प्रचलित है। इसके दो भेद हैं - कुमाउँनी और गढ़वाली। ये पहाड़ी उपभाषाएँ नागरी लिपि में लिखी जाती हैं। इनमें पुराना साहित्य नहीं मिलता। आधुनिक काल में कुछ साहित्य लिखा जा रहा है। कुछ विद्वान्‌ पहाड़ी को राजस्थानी के अंतर्गत ही मानते हैं। पश्चिमी पहाड़ी हिमाचल प्रदेश में बोली जाती है। इसकी मुख्य उपबोलियों में मंडियाली, कुल्लवी, चाम्बियाली, क्योँथली, कांगड़ी, सिरमौरी, बघाटी और बिलासपुरी प्रमुख हैं।
प्रयोग-क्षेत्र के अनुसार वर्गीकरण
हिन्दी भाषा का भौगोलिक विस्तार काफी दूर–दूर तक है जिसे तीन क्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता है:-
(क) हिन्दी क्षेत्र – हिन्दी क्षेत्र में हिन्दी की मुख्यत: सत्रह बोलियाँ बोली जाती हैं, जिन्हें पाँच बोली वर्गों में इस प्रकार विभक्त कर के रखा जा सकता है- पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी हिन्दी, पहाड़ी हिन्दी और बिहारी हिन्दी।
(ख) अन्य भाषा क्षेत्र– इनमें प्रमुख बोलियाँ इस प्रकार हैं- दक्खिनी हिन्दी (गुलबर्गी, बीदरी, बीजापुरी तथा हैदराबादी आदि), बम्बइया हिन्दी, कलकतिया हिन्दी तथा शिलंगी हिन्दी (बाजार-हिन्दी) आदि।
(ग) भारतेतर क्षेत्र – भारत के बाहर भी कई देशों में हिन्दी भाषी लोग काफी बड़ी संख्या में बसे हैं। सीमावर्ती देशों के अलावा यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, रुस, जापान, चीन तथा समस्त दक्षिण पूर्व व मध्य एशिया में हिन्दी बोलने वालों की बहुत बडी संख्या है। लगभग सभी देशों की राजधानियों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी एक विषय के रूप में पढी-पढाई जाती है। भारत के बाहर हिन्दी की प्रमुख बोलियाँ – ताजुज्बेकी हिन्दी, मारिशसी हिन्दी, फीज़ी हिन्दी, सूरीनामी हिन्दी आदि हैं।
हिंदी प्रदेशों की हिंदी बोलियाँ
पश्चिमी हिंदी
खड़ी बोली-देहरादून,सहारनपुर,मुजफ्फरनगर,मेरठi,बिजनौर,रामपुर और मुरादाबाद।
बृजभाषा-आगरा,मथुरा,अलीगढ़,मैनपुरी,एटा,हाथरस,बदायूं,बरेली,धौलपुर।
हरियाणवी-हरियाणा और दिल्ली का देहाती प्रदेश।
बुंदेली-झांसी,जालौन,हमीरपुर,ओरछा,सागर,नृसिंहपुर, सिवनी,होशंगाबादल
कन्नौजी : उत्तर प्रदेश के इटावा, फ़र्रूख़ाबाद, शाहजहांपुर, कानपुर, हरदोई और पीलीभीत, जिलों के ग्रामीणांचल में बहुतायत से बोली जाती है।
पूर्वी हिंदी
अवधी - कानपुर, लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, फतेहपुर, अयोध्या, गोंडा, प्रयागराज, जौनपुर, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर जिले।
बघेली - रीवा, सतना, मैहर, उमरिया, शहडोल, अनूपपुर, सीधी, नागौद।
छत्तीसगढ़ी - बिलासपुर, दुर्ग, रायपुर, रायगढ़, नांदगांव, कांकेर, महासमुंद, सरगुजा, कोरिया।
राजस्थानी - मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी आदि। 
पहाड़ी - पूर्वी पहाड़ी (नेपाली), मध्यवर्ती पहाड़ी (कुमाऊंनी और गढ़वाली), पश्चिमी पहाड़ी (हिमाचल प्रदेश की बोलियाँ मंडियाली, कुल्लुई, सिरमौरी, किरनी आदि)।
बिहारी भाषा - भोजपुरी, मगही, कैथी, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया आदि। 
हिंदीतर प्रदेशों की हिंदी बोलियाँ
बंबइया हिंदी, कलकतिया हिंदी, दक्खिनी हिंदी। 
विदेशों में बोली जाने वाली हिंदी बोलियाँ
उजबेकिस्तान, मारिशस, फिजी, सूरीनाम, मध्यपूर्व, ट्रिनिदाद और टोबैगो, दक्षिण अफ्रीका। 
भारत में भाषा सर्वे
हिंदी भारत के उत्तरी हिस्सों में ही नहीं, पूरे भारत में भी सबसे व्यापक बोली जानेवाली भाषा है। भारतीय जनगणना "हिंदी" की व्यापक विविधता के रूप में "हिंदी" की व्यापक संभव परिभाषा लेती है। २०११ की जनगणना के अनुसार, ४३.६३% भारतीय लोगों ने हिंदी को अपनी मूल भाषा या मातृभाषा घोषित कर दिया है। भाषिक आँकड़े २६ जून २०१८ को जारी किए गए थे। भिली / भिलोदी १.०४ करोड़ वक्ताओं के साथ सबसे ज्यादा बोली जाने वाली गैर अनुसूचित भाषा थी, इसके बाद गोंडी २९ लाख वक्ताओं के साथ थीं। भारत की जनगणना २०११ में भारत की आबादी का ९७.७१%, २२ अनुसूचित भाषाओं में से एक अपनी मातृभाषा के रूप में बोलता है।
बोलने वालों की संख्या के आधार पर प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भाषाएँ (२०११ की जनगणना) जारी किया गया २६-६-२०१८ 
भाषाप्रथम भाषाभाषीप्रथम भाषाभाषी
कुल जनसंख्या के प्रतिशत के रूप में
द्वितीय भाषाभाषी (करोड़ में)तृतीय भाषाभाषी (करोड़ में)सभी भाषाभाषी (i करोड़ में)कुल जनसंख्या के प्रतिशत
के रूप में कुल भाषाभाषी
हिंदी५२,८३,४७,१९३४३.६३१३.९०  २.४०  ६९.२० ५७.१० 
अंग्रेज़ी२,५९,६७८ ०.०२ ८.३० ४.६० १२.९० १०.६० 
बंगाली९,७२,३७, ६६९८.३० ०.९० ०.१०10.7८.९० 
मराठी८, ३०,२६,६८०७.०९ १.३० ०.३० 9.9८.२० 
तेलुगू८,११,२७,७४० ६.९३ १.२० ०.१०७.८० 
तमिल६९०, २६,८८१ ५.८९ ०.७० ०.१०७.७० ६.३० 
गुजराती५.५४.९२,५५४ ४.७४ ०.४० ०.१०६.०० ५.०० 
उर्दू५,०७,७२,६३१ ४.३४ १.१० ०.१० ६.३० ५.२० 
कन्नड़४,३७,०६,५१२ ३.७३ १.४० ०.१० ५.९०  ४.९४ 
ओड़िया३,७५,२१,३२४ ३.२० ०.५० ३,१९,५२५ ४.३०  ३.५६ 
मलयालम३,४८,३८,८१९ २.९७४,९९,१८८ १,९५,८८५ ३,३७,६१,४६५ ३.२८ 
पंजाबी३,३१,२४,७२६ २.८३ ३२,७२,१५१ ३,१९,५२५ ३, ६६,०९,१२२३.५६ 
संस्कृत२४,८२१ <०.०१ १२,३४,९३१ ३७,४२,२२३ ४९,९१,२८९ ०.४९ 

वर्ष १९६१ की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग १६५२ भाषाएँ थीं। लेकिन वर्ष १९७१ तक इनमें से केवल ८०८ भाषाएँ ही बची थीं। वर्तमान में भारत सरकार केवल उन भाषाओं को मान्यता देती है जिसकी अपनी एक लिपि हो तथा व्यापक स्तर पर बोली जाती हो। इस प्रकार भारत सरकार द्वारा १२२ भाषाओं को मान्यता दी गई है जो भारतीय लोकभाषा सर्वेक्षण द्वारा आकलित ७८० भाषाओं की तुलना में बहुत कम है।
भाषाओँ-बोलिओं का संरक्षण क्यों और कैसे? 
वर्तमान में सर्वाधिक जटिल समस्या यह है कि भाषाओँ-बोलिओं को नष्ट होने से क्यों और कैसे बचाया जाए? इनमें से प्रथम प्रश्न का उत्तर जितना सरल है, दूसरे प्रश्न का उत्तर उतना ही जटिल है। 
भाषाओँ-बोलिओं को बचाना इसलिए आवश्यक है कि वे लोक संस्कृति व लोक सभ्यता की वाहक और प्रवाचक हैं। हर भाषा-बोली अपने शब्द भंडार में तात्कालिक समय के साक्ष्य समेटे होती है। शब्दों में निहित अर्थ समय सापेक्ष होते हैं। भाषा में मानव संस्कार, व्यवहार, आचार-विचार आदि अन्तर्निहित होते हैं। इसलिए भाषा और उसके शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों, लोक कथाओं आदि को पुरातत्व, इतिहास, संस्कृति और सभ्यता ही नहीं  विज्ञान और धर्म की दृष्टि से भी आवश्यक है। 
भाषाओँ-बोलिओं को बचने में सर्वाधिक बाधक उस भाषा-बोली को बोलनेवाले आम लोगों का दुहरा आचरण है। हम रोजगार मिलने की मृगतृष्णा में अपने बच्चों को विदेशी भाषा पढ़ाएँ और सरकारों या अन्य भाषा-भाषियों से चाहें कि वे हमारी भाषा-बोली की रक्षा करें तो यह असंभव है। पहले यह समझें कि भाषा से संस्कार और ज्ञान मिलता है। संस्कार से सामाजिक और पारिवारिक संरचना सुरक्षित होती है। ज्ञान के व्यावहारिक उपयोग से व्यवसाय मिलता है। मनोवैज्ञनिकों के अनुसार बच्चा अपनी मातृभाषा में अत्यधिक सरलता से सीखता है। शिशु ५ वर्ष की आयु तक जितना सीख लेता है उतना शेष पूरे जीवन में भी नहीं सीखता। अत:, शिशुओं और बच्चों को केवल और केवल मातृभाषा में ही शिक्षित किया जाना परमावश्यक है। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक उन्नत १० देश वे हैं जिनमें शिक्षा माँ मध्यान स्वभाषा है। इनमें रूस, चीन, जापान, जर्मनी आदि हैं। दूसरी और दुनिया के १० सर्वाधिक पिछड़े १० देश वे हैं जिनमें शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा है। ये सभी अतीत में किसी अन्य देश के गुलाम रहे हैं। राजनैतिक आज़ादी भी इन्हें मानसिक दासता से मुक्त नहीं करा सकी। ऐसे ही स्थिति दुर्भाग्य से भारत की भी है। मैंने अंग्रेजी माध्यम से अभियांत्रिकी शिक्षा पाते समय भाषा के कारण ही विषय को दुरूह होते पाया है। ४० से अधिक वर्षों तक अभियंता के रूप में ९०% कार्य और संभाषण हिंदी में ही किया। यही स्थिति चिकित्सकों, वकीलों, प्रशासनिक और न्यायिक अधिकारियों, व्यापारियों आदि की भी है। देश में हिंदी भाषा-भाषी ५७-१०% हैं तो अंग्रेजी भाषा-भाषी मात्र १०.६०% हैं तथापि देश हर क्षेत्र में प्रगति कर रहा है। यदि स्वतंत्रता के तुरंत बाद हम स्वदेशी भाषाओँ को उच्च शिक्षा का माध्यम बना सके होते तो आज विश्व जे सर्वोन्नत देशों में होते। 
भारत में जीतनी भाषाएँ-वोलियाँ हैं उन सबको सीखना या पढ़ाया जाना कदापि संभव नहीं है। अधिकाँश में शब्द भण्डार अत्यल्प है। अविकसित बोलिओं के शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों, ध्वनि संकेतों को हिंदी शब्द कोष में सम्मिलित कर, साहित्यकारों द्वारा उनका उपयोग कर उन्हें काल के गाल में जाने से बचाया जा सकता है। पर्याप्त विकसित  भाषाओँ-बोलिओं को एक मानक लिपि में लिखा जाए तो हर भाषा-भाषी अन्य भाषाओँ को पढ़ सकेगा और क्रमश: उसका अर्थ समझने लगेगा। दुर्भाग्यवश हम अन्य भारतीय भाषाओँ के शब्द ग्रहण नहीं करते जबकि विदेशी शब्द हमारी जिंदगी में हर दिन बढ़ते जाते हैं। हम अपने पहले की दो पीढ़ियों से तुलना करें तो समझ सकते हैं कि हमारे पितामह और पिता की तुलना में हम कितने अधिक विदेश शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं यदि यह गति आगामी दो पीढ़ी और जारी रहे तो हमारे पोते-पड़पोते केवल विदेशी भाषा हो बोलेंगे-समझेंगे। स्वदेशी भाषाओँ-बोलिओं को बचने का एक मात्र उपाय हम आम लोगों के पास ही है, वह यह कि हम स्वभाषा को दैनिक प्रयोग में लाएँ। बच्चों से केवल स्वभाषा में बात करें और अन्य भाषाओँ-बोलिओं को अधिकाधिक पढ़ें। हमारे बच्चों के विवाह होते हैं तो दामाद या बहुएँ देश के जिस अंचल से आएँ, उस अंचल की भाषा-बोली, रीति-रिवाज हम जान-समझ और अपना लें तो नए संबंधियों से मन मिलते देर नहीं लगेगी। बच्चों को आजीविका हेतु देश के जिस भाग में जाना पड़े, वह वहां की भाषा और रीति-रिवाज जान कर जाए तो आसानी से वहां के लोगों से घुल-मिल सकेगा। 
सरकारों और विश्वविद्यालयों से से भाषाओँ-बोलिओं के उन्नयन की अपेक्षा कतई न करें। नेता राजनैतिक स्वार्थवश भाषा के नाम पर लड़ाएँगे। प्राध्यापक वर्ग अपन ज्ञान के अहंकार के कारण भाषा का नियंता बनकर मनमाने मानक थोपने का प्रयास करेंगे। भाषाओँ-बोलिओं का जनक लोक अर्थात आम आदमी होता है। वह अपनी आवश्यकतानुसार नए-नए शब्द गढ़ता-बोलता है जिससे भाषा समृद्ध होती है। यह आम आदमी ही भाषाओँ-बोलिओं को बचा और बढ़ा सकता है। आइए, हम सब ईमानदारी से स्वदेशी भाषाओँ-बोलिओं को एक लिपि में लिखने, पढ़ने-समझने, व्यवहार में लाने की राह पर चल पड़ें।शेष बढ़ाएं और कठनाइयां खुद-बखुद खत्म होती जाएँगी।    

***
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व अवनि हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४  



कड़ियाँ
हिन्दी भाषा क्षेत्र (प्रोफेसर महावीर सरन जैन)
हिंदी लोक शब्दकोश परियोजना
हिन्दी की बोलियों के शब्दकोश
हिन्दी की बोलियों की विस्तृत सूची (संस्कृति_यूके)
हिंदी के टूटने से देश की भाषिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी (करुणाशंकर उपाध्याय ; 27/07/2017)
बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध क्यों हो रहा है? (अमरनाथ ; 21/07/2017)


भारत में भाषा सर्वे
हिंदी भारत के उत्तरी हिस्सों में ही नहीं, पूरे भारत में भी सबसे व्यापक बोली जानेवाली भाषा है। भारतीय जनगणना "हिंदी" की व्यापक विविधता के रूप में "हिंदी" की व्यापक संभव परिभाषा लेती है।[३] २०११ की जनगणना के अनुसार, ४३.६३% भारतीय लोगों ने हिंदी को अपनी मूल भाषा या मातृभाषा घोषित कर दिया है।[४] भाषिक आँकड़े २६ जून २०१८ को जारी किए गए थे।[५] भिली / भिलोदी १.०४ करोड़ वक्ताओं के साथ सबसे ज्यादा बोली जाने वाली गैर अनुसूचित भाषा थी, इसके बाद गोंडी २९ लाख वक्ताओं के साथ थीं। भारत की जनगणना २०११ में भारत की आबादी का ९७.७१%, २२ अनुसूचित भाषाओं में से एक अपनी मातृभाषा के रूप में बोलता है।
बोलने वालों की संख्या के आधार प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भाषाएँ (2011 की जनगणना)
भाषाप्रथम भाषाभाषी[6]प्रथम भाषाभाषी
कुल जनसंख्या के प्रतिशत के रूप में
द्वितीय भाषाभाषी (करोड़ में)तृतीय भाषाभाषी (करोड़ में)सभी भाषाभाषी (in करोड़ में)[7][8]कुल जनसंख्या के प्रतिशत
के रूप में कुल भाषाभाषी
हिंदी52,83,47,19343.6313.92.469.257.10
अंग्रेज़ी2,59,6780.028.34.612.910.60
बंगाली9,72,37,6698.300.90.110.78.90
मराठी8,30,26,6807.091.30.39.98.20
तेलुगू8,11,27,7406.931.20.19.57.80
तमिल6,90,26,8815.890.70.17.76.30
गुजराती5,54,92,5544.740.40.16.05.00
उर्दू5,07,72,6314.341.10.16.35.20
कन्नड़4,37,06,5123.731.40.15.94.94
ओड़िया3,75,21,3243.200.5319,5254.33.56
मलयालम3,48,38,8192.97499,188195,88533,761,4653.28
पंजाबी3,31,24,7262.833,272,151319,52536,609,1223.56
संस्कृत24,821<0.011,234,9313,742,2234,991,2890.49

दस लाख से कम व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएँ[संपादित करें]

बोलने वालेप्रतिशत
23खानदेशी973,7090.116%
24हो949,2160.113%
25खासी912,2830.109%
26मुंडारी861,3780.103%
27कोकबराक भाषा694,9400.083%
28गारो675,6420.081%
29कुई641,6620.077%
30मीज़ो538,8420.064%
31हलाबी534,3130.064%
32कोरकू466,0730.056%
33मुंडा413,8940.049%
34मिशिंग390,5830.047%
35कार्बी/मिकिर366,2290.044%
36सावरा273,1680.033%
37कोया भाषा270,9940.032%
38खड़िया225,5560.027%
39खोंड220,7830.026%
40अँग्रेजी178,5980.021%
41निशी173,7910.021%
42आओ172,4490.021%
43सेमा166,1570.020%
44किसान162,0880.019%
45आदी158,4090.019%
46रभा139,3650.017%
47कोन्याक137,7220.016%
48माल्तो भाषा108,1480.013%
49थाड़ो107,9920.013%
50तांगखुल101,8410.012%



वर्ष १९६१ की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग १६५२ भाषाएँ थीं। लेकिन वर्ष १९७१ तक इनमें से केवल ८०८ भाषाएँ ही बची थीं।
वर्तमान में भारत सरकार केवल उन भाषाओं को मान्यता देती है जिसकी अपनी एक लिपि हो तथा व्यापक स्तर पर बोली जाती हो। इस प्रकार भारत सरकार द्वारा १२२ भाषाओं को मान्यता दी गई है जो भारतीय लोकभाषा सर्वेक्षण द्वारा आकलित ७८० भाषाओं की तुलना में बहुत कम है।
इस विसंगति का एक प्रमुख कारण यह भी है कि भारत सरकार ऐसी किसी भाषा को मान्यता नहीं देती जिसे बोलने वालों की संख्या १०,००० से कम है।
यूनेस्को द्वारा अपनाए गए मानदंडों के अनुसार, कोई भाषा तब विलुप्त हो जाती है जब कोई भी व्यक्ति उस भाषा को नहीं बोलता है या याद रखता है। यूनेस्को ने लुप्तप्राय के आधार पर भाषाओं को निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया है:-
सुभेद्य (Vulnerable)
निश्चित रूप से लुप्तप्राय (Definitely Endangered)
गंभीर रूप से लुप्तप्राय (Severely Endangered)
गंभीर संकटग्रस्त (Critically Endangered)
यूनेस्को ने ४२ भारतीय भाषाओं को गंभीर रूप से संकटग्रस्त माना है।
पतन के कारण:
भारत सरकार द्वारा १०,००० से कम लोगों द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषाओं को मान्यता नहीं दी जाती है।
समुदायों की प्रवासन एवं आप्रवासन की प्रवृत्ति के कारण पारंपरिक बसावट में कमी आती जा रही है, जिसके कारण क्षेत्रीय भाषाओं को नुकसान पहुँचता है।
रोज़गार के प्रारूप में परिवर्तन बहुसंख्यक भाषाओं का पक्षधर है।
सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन।
‘व्यक्तिवाद’ की प्रवृत्ति में वृद्धि होना, समुदाय के हित से ऊपर स्वयं के हित को प्राथमिकता दिये जाने से भाषाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
पारंपरिक समुदायों में भौतिकवाद का अतिक्रमण जिसके चलते आध्यात्मिक और नैतिक मूल्य उपभोक्तावाद से प्रभावित होते है।
क्या किये जाने की आवश्यकता है?
भाषा के अस्तित्त्व को सुरक्षित रखने का सबसे बेहतर तरीका ऐसे विद्यालयों का विकास करना है जो अल्पसंख्यकों की भाषा (जनजातीय भाषाएँ) में शिक्षा प्रदान करते हैं। यह भाषा का संरक्षण करने और उसे समृद्ध बनाने में वक्ताओं को सक्षम बनाता है।
भारत की संकटग्रस्त भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिये प्रोजेक्ट टाइगर की तर्ज पर एक विशाल डिजिटल परियोजना शुरू की जानी चाहिये।
ऐसी भाषाओं के महत्त्वपूर्ण पहलुओं जैसे- कथा निरूपण, लोकसाहित्य तथा इतिहास आदि का श्रव्य दृश्य/ऑडियो विज़ुअल प्रलेखन (Documentation) किया जाना चाहिये।
इस तरह के प्रलेखन प्रयासों कोण बढ़ाने के लिये ग्लोबल लैंग्वेज हॉटस्पॉट्स (Global Language Hotspots) जैसी अभूतपूर्व पहल के मौजूदा लेखन कार्यों का इस्तेमाल किया जा सकता है।
लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा और संरक्षण के लिये योजना (SPPEL)
Scheme for Protection and Preservation of Endangered Languages (SPPEL)
इसकी स्थापना वर्ष २०१३ में मानव संसाधन विकास मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा की गई थी।
इस योजना का एकमात्र उद्देश्य देश की ऐसी भाषाओं का दस्तावेज़ीकरण करना और उन्हें संग्रहित करना है जिनके निकट भविष्य में लुप्तप्राय या संकटग्रस्त होने की संभावना है।
इस योजना की निगरानी कर्नाटक के मैसूर में स्थित केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (Central Institute of Indian Languages-CIIL) द्वारा की जाती है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission-UGC) अनुसंधान परियोजनाओं को शुरू करने के लिये केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में लुप्तप्राय भाषाओं के लिये केंद्र स्थापित करने हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
इस योजना के अधीन केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान देश में 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली सभी मातृभाषाओं और भाषाओं की सुरक्षा, संरक्षण एवं प्रलेखन का कार्य करता है।
केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान
Central Institute of Indian Languages- CIIL
मैसूर में स्थित केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान मानव संसाधन विकास मंत्रालय का एक अधीनस्‍थ कार्यालय है।
इसकी स्‍थापना वर्ष १९६९ में की गई थी।
यह भारत सरकार की भाषा नीति को तैयार करने, इसके कार्यान्‍वयन में सहायता करने, भाषा विश्‍लेषण, भाषा शिक्षा शास्‍त्र, भाषा प्रौद्योगिकी तथा समाज में भाषा प्रयोग के क्षेत्रों में अनुसंधान द्वारा भारतीय भाषाओं के विकास में समन्‍वय करने हेतु स्‍थापित की गई है।
इसके अंतर्गत इनके उद्देश्‍यों को बढ़ावा देने के लिये यह बहुत से कार्यक्रमों का आयोजन करता है, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
भारतीय भाषाओं का विकास
क्षेत्रीय भाषा केंद्र
सहायता अनुदान योजना
राष्‍ट्रीय परीक्षण सेवा





१. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (७-१-१८५१-१९४१) अंग्रेजों के जमाने में "इंडियन सिविल सर्विस" के कर्मचारी, बहुभाषाविद् और आधुनिक भारत में भाषाओं का सर्वेक्षण करने वाले पहले भाषावैज्ञानिक थे। ग्रियर्सन १८७० के लगभग आई.सी.एस. होकर भारत आये। वे बंगाल और बिहार के कई उच्च पदों पर १८९९ तक कार्यरत रहे। फिर वापस आयरलैंड चले गये। भारत में रहते हुए ग्रियर्सन ने कई क्षेत्रों में काम किया। तुलसीदास और विद्यापति के साहित्य का महत्त्व प्रतिपादित करनेवाले वे सम्भवतः पहले अंग्रेज विद्वान थे। हिन्दी क्षेत्र की बोलियों के लोक साहित्य (गीत-कथा) का संकलन और विश्लेषण करनेवाले कुछेक विद्वानों में भी ग्रियर्सन अग्रिम पंक्ति के विद्वानों में थे। भारतीय विद्याविशारदों में, विशेषतः भाषाविज्ञान के क्षेत्र में, उनका स्थान अमर है। वे "लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया" के प्रणेता के रूप में अमर हैं। ग्रियर्सन को भारतीय संस्कृति और यहाँ के निवासियों के प्रति अगाध प्रेम था। भारतीय भाषाविज्ञान के वे महान उन्नायक थे। नव्य भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन की दृष्टि से उन्हें बीम्स, भांडारकर और हार्नली के समकक्ष रखा जा सकता है। एक सहृदय व्यक्ति के रूप में भी वे भारतवासियों की श्रद्धा के पात्र बने। -विकीपीडिया।
२. प्रेम सागर, लल्लू लाल जी, ३. ग्रामीण हिंदी, धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ १०, ४. अमीर खुसरो-ता-ग़ज़ल २०००, बशीर बद्र,

कोई टिप्पणी नहीं: