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शनिवार, 17 जनवरी 2015

navgeet, geet, padya, sanjiv,

नवगीत:             
संजीव 
कल का अपना 
आज गैर है
मंज़िल पाने साथ चले थे  
लिये हाथ में हाथ चले  थे 
दो मन थे, मत तीन हुए फिर  
ऊग न पाये सूर्य ढले थे  
जनगण पूछे 
कहें: 'खैर है'  
सही गलत हो गया अचंभा 
कल की देवी, अब है रंभा 
शीर्षासन कर रही सियासत 
खड़ा करे पानी पर खंभा 
आवारापन 
हुआ सैर है 
.
वही सत्य है जो हित साधे 
जन को भुला, तंत्र आराधे 
गैर शत्रु से अधिक विपक्षी 
चैन न लेने दे, नित व्याधे 
जन्म-जन्म का 
पला बैर है 
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