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रविवार, 18 जनवरी 2015

aiye kavita karen 7,

आइये कविता करें: ७
संजीव
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एक और प्रयास.......
नव गीत
आभा सक्सेना
सूरज ने छाया को ठगा  १५
किरनों नेे दिया दग़ा      १२
अब कौन है, जो है सगा  १४ 
कांपता थर थर अंधेरा      १४
कोहरे का धुन्ध पर बसेरा  १७
जागता अल्हड़ सवेरा    १४ 
रोशनी का अधेरों से    १४
दीप का जली बाती से  १४
रिश्तें हैं बहुत करीब से १५ 
कांपती झीनी सी छांव  १४
पकड़ती धूप की बांह    १३
ताकती एक और ठांव  १४ 
इस नवगीत के कथ्य में नवता तथा गेयता है. यह मानव जातीय छंद में रचा गया है. शैल्पिक दृष्टि से बिना मुखड़े के ४ त्रिपंक्तीय समतुकान्ती अँतरे हैं. एक प्रयोग करते हैं. पाहल अँतरे की पहली पंक्ति को मुखड़ा बना कर शेष २ पंक्तियों को पहले तीसरे अँतरे के अंत में प्रयोग किया गया है. दूसरे अँतरे के अंत में पंक्ति जोड़ी गयी है. आभा जी! क्या इस रूप में यह अपनाने योग्य है? विचार कर बतायें।  

सूर्य ने                             ५ 
छाया को ठगा                  ९   

काँपता थर-थर अँधेरा      १४ 
कोहरे का है बसेरा           १४ 
जागता अल्हड़ सवेरा       १४ 

किरनों नेे                       ६ 
दिया है दग़ा                   ८    
   
रोशनी का दीपकों से       १४ 
दीपकों का बातियों से      १४
बातियों का ज्योतियोँ से   १४  
नेह नाता                      ७  
क्यों नहीं पगा               ८ 

छाँव झीनी काँपती सी    १४ 
बाँह धूपिज थामती सी   १४
ठाँव कोई ताकती सी     १४   
अब कौन है                  ७ 
किसका सगा               ७ 

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