कुल पेज दृश्य

शनिवार, 13 जुलाई 2013

doha salila: 8 --shyamal suman

pratinidhi doha kosh 8  - 

Soahn Paroha 'Salil', jabalpur  


प्रतिनिधि दोहा कोष ८ : 

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं सर्व श्री/श्रीमती  नवीन सी. चतुर्वेदी, पूर्णिमा बर्मन तथा प्रणव भारती,  डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', अर्चना मलैया,सोहन परोहा 'सलिल' तथा साज़ जबलपुरी के दोहे। आज अवगाहन कीजिए श्यामल 'सुमन' रचित दोहा सलिला में :

*
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9CTEtLXJcX-tvRbzDt6fomNIHAb8fIquIYXv78wJr3jiM992P-XtfmaAOmzIKKn28HG8b2J5EHbwOV9OAVgWt2srtexgIEpyI5k3bab8uxKmYjiVDmnYXLh9Q-kh9tEUQSLhiIrTxRoY/s220/shyamal%5B1%5D.jpg


संकलन - संजीव
*
मूल नाम: 
जन्म:
आत्मज:
शिक्षा:
कृतियाँ:
संपर्क:
*

श्यामल सुमन

यूँ रोया पर्वत सुमन

चमत्कार विज्ञान का, सुविधा मिली जरूर।
भौतिक दूरी कम हुई, अपनेपन से दूर।।

होती थी कुछ देर पर, चिट्ठी से सम्वाद।
मोबाइल में है कहाँ, उतना मीठा स्वाद।।

साक्षर थी भाभी नहीं, भैया थे परदेश।
बातें दिल की सुमन से, लिखवाती संदेश।।

विश्व-ग्राम ने अब सुमन, लाया है दुर्योग।
गाँवों में मिलते नहीं, सीधे साधे लोग।।

यूँ रोया पर्वत सुमन, शायद पहली बार।
रोते हैं सब देखकर, मानव का संहार।।

प्राकृतिक सौन्दर्य का, इक अपना है गीत।
कोशिश है विज्ञान की, दर्ज करें हम जीत।।

नियति-नियम के संग में, चले सदा विज्ञान।
फिर क्यों देखेंगे सुमन, यह भीषण नुकसान।।

जहरीला इन्सान

जैसे जैसे लोग के, बदले अभी स्वभाव।
मौसम पर भी देखिए, उसके अलग प्रभाव।।

जाड़े में बारिश हुई, औ बारिश में धूप।
गरमी में पानी नहीं, बारिश हुई अनूप।।

कौन सफाई अब करे, जब मरते हैं जीव।
बर्बर मानवता सुमन, गिद्ध हुए निर्जीव।।

नीलकंठ पक्षी अभी, कहाँ देखते लोग।
सदियों से जो कर रहे, दूर फसल के रोग।।

चूहे नित करते सुमन, दाने का नुकसान।
डरे हुए हैं साँप भी, जहरीला इन्सान।।

घास कहाँ मिलते सुमन, हिरण,गाय लाचार।
शेर सहित हैं घात में, बैठे हुए सियार।।

गंगा जीवनदायिनी, आज हुई बीमार।
नदियाँ सारी सूखतीं, कारण सुमन विचार।

सोना हो चाहत अगर

सोना हो चाहत अगर, सोना हुआ मुहाल।
दोनो सोना कब मिले, पूछे सुमन सवाल।।

खर्च करोगे कुछ सुमन, घटे सदा परिमाण।
ज्ञान, प्रेम बढ़ते सदा, बाँटो, देख प्रमाण।।

अलग प्रेम से कुछ नहीं, प्रेम जगत आधार।
देख सुमन ये क्या हुआ, बना प्रेम बाजार।

प्रेम त्याग अपनत्व से, जीवन हो अभिराम।
बनने से पहले लगे, अब रिश्तों के दाम।।

जीवन के संघर्ष में, नहीं किसी से आस।
भीतर जितने प्रश्न हैं, उत्तर अपने पास।।

देखो नित मिलता सुमन, जीवन से सन्देश।
भला हुआ तो ठीक पर, नहीं किसी को क्लेश।।

दोनों कल के बीच में, फँसा हुआ है आज।
कारण बिल्कुल ये सुमन, रोता आज समाज।।

राजनीति में अब सुमन, नैतिकता है रोग।
लाखों में बिकते अभी, दो कौड़ी के लोग।।

चीजें मँहगीं सब हुईं, लोग हुए हलकान।
केवल सस्ती है सुमन, इन्सानों की जान।।

संसाधन विकसित हुए, मगर बुझी ना प्यास।
वादा करते हैं सभी, टूटा है विश्वास।।

होते हैं अब हल कहाँ, आम लोग के प्रश्न।
चिन्ता दिल्ली को नहीं, रोज मनाते जश्न।।

प्रायः पूजित हैं अभी, नेता औ भगवान।
काम न आए वक्त पर, तब रोता इन्सान।।

सुनता किसकी कौन अब, प्रायः सब मुँहजोर।
टूट रहे हैं नित सुमन, सम्बन्धों की डोर।।

रोने से केवल सुमन, क्या सुधरेगा हाल।
हाथ मिले जब लोग के, सुलझे तभी सवाल।।

मंदिर जाता भेड़िया

शेर पूछता आजकल, दिया कौन यह घाव।
लगता है वन में सुमन, होगा पुनः चुनाव।।

गलबाँही अब देखिये, साँप नेवले बीच।
गद्दी पाने को सुमन, कौन ऊँच औ नीच।।

मंदिर जाता भेड़िया, देख हिरण में जोश।
साधु चीता अब सुमन, फुदक रहा खरगोश।।

पीता है श्रृंगाल अब, देख सुराही नीर।
थाली में खाये सुमन, कैसे बगुला खीर।।

हुआ जहाँ मतदान तो, बिगड़ गए हालात।
फिर से निकलेगी सुमन, गिद्धों की बारात।।

प्रायः सभी कुदाल

छोटी दुनिया हो गयी, जैसे हो इक टोल।
दूरी आपस की घटी, पर रिश्ते बेमोल।।

क्रांति हुई विज्ञान की, बढ़ा खूब संचार।
आतुर सब एकल बने, टूट रहा परिवार।।

हाथ मिलाते जब सुमन, जतलाते हैं प्यार।
क्या पड़ोस में कल हुआ, बतलाते अखबार।।

कौन आज खुरपी बने, पूछे सुमन सवाल।
जो दिखता है सामने, प्रायः सभी कुदाल।।

तारे सा टिमटिम करे, बनते हैं महताब।
ऐसे भी ज्ञानी सुमन, पढ़ते नहीं किताब।।

नारी है माता कभी


मैं सबसे अच्छा सुमन, खतरनाक है रोग।
हैं सुर्खी में आजकल, दो कौड़ी के लोग।।

लाज बिना जो बोलते, हो करके बेबाक।
समझे जाते हैं वही, आज सुमन चालाक।।

चर्चा पूरे देश में, जागा है इन्सान।
पूजित नारी का सुमन, लौट सके सम्मान।।

घटनाओं पर बोलते, परम्परा के दूत।
कारण बतलाते सुमन, है पश्चिम का भूत।।

नारी है माता कभी, कभी बहन का प्यार।
और प्रेयसी भी सुमन, मगर उचित व्यवहार।।

कैसा हुआ समाज

ताकत जीने की मिले, वैसा दुख स्वीकार।
जीवन ऐसे में सुमन, खुद पाता विस्तार।।

दुख ही बतलाता हमें, सुख के पल अनमोल।
मुँह सुमन जब आँवला, पानी, मिश्री-घोल।।

जामुन-सा तन रंग पर, हृदय चाँद का वास।
आकर्षक चेहरा सुमन, पसरे स्वयं सुवास।।

जीवन परिभाषित नहीं, अलग सुमन के रंग।
करते परिभाषित सभी, सबके अपने ढंग।।

मातम जहाँ पड़ोस में, सुन शहनाई आज।
हृदय सुमन का रो पड़ा, कैसा हुआ समाज।।

चाहत सारे सुख मिले, मिहनत से परहेज।
शायद ऐसे लोग ही, माँगे सुमन दहेज।।

लेखन में अक्सर सुमन, अनुभव का गुणगान।
गम-खुशियों की चासनी, साहित्यिक मिष्ठान।।

शायद जीवन को मिले एक नया विस्तार

आँगन सूना घर हुआ, बच्चे घर से दूर।
मजदूरी करने गया, छोड़ यहाँ मजबूर।।

जल्दी से जल्दी बनें, कैसे हम धनवान।
हम कुदाल बनते गए, दूर हुई संतान।।

ऊँचे पद संतान की, कहने भर में जोश।
मगर वही एकांत में, भाव-जगत बेहोश।।

कहाँ मिला कुछ आसरा, वृद्ध हुए माँ बाप।
कहीं सँग ले जाय तो, मातु पिता अभिशाप।।

जैसी भी है जिन्दगी, करो सुमन स्वीकार।
शायद जीवन को मिले एक नया विस्तार।।

रीति बहुत विपरीत

जीवन में नित सीखते, नव-जीवन की बात।
प्रेम कलह के द्वंद में, समय कटे दिन रात।।

चूल्हा-चौका सँग में, और हजारो काम।
डरते हैं पतिदेव भी, शायद उम्र तमाम।।

झाड़ू, कलछू, बेलना, आलू और कटार।
सहयोगी नित काज में, और कभी हथियार।।

जो ज्ञानी व्यवहार में, करते बाहर प्रीत।
घर में अभिनय प्रीत के, रीति बहुत विपरीत।।

मेहनत बाहर में पति, देख थके घर-काज।
क्या करते, कैसे कहें, सुमन आँख में लाज।।

नेता और कुदाल

चली सियासत की हवा, नेताओं में जोश।
झूठे वादे में फँसे, लोग बहुत मदहोश।।

दल सारे दलदल हुए, नेता करे बबाल।
किस दल में अब कौन है, पूछे लोग सवाल।।

मुझ पे गर इल्जाम तो, पत्नी को दे चांस।
हार गए तो कुछ नहीं, जीते तो रोमांस।।

जनसेवक राजा हुए, रोया सकल समाज।
हुई कैद अब चाँदनी, कोयल की आवाज।।

नेता और कुदाल की, नीति-रीति है एक।
समता खुरपी सी नहीं, वैसा कहाँ विवेक।।

कलतक जो थी झोपड़ी, देखो महल विशाल।
जाती घर तक रेल अब, नेता करे कमाल।।

धवल वस्त्र हैं देह पर, है मुख पे मुस्कान।
नेता कहीं न बेच दे, सारा हिन्दुस्तान।।

सच मानें या जाँच लें, नेता के गुण चार।
बड़बोला, झूठा, निडर, पतितों के सरदार।।

पाँच बरस के बाद ही, नेता आये गाँव।
नहीं मिलेंगे वोट अब, लौटो उल्टे पाँव।।

जगी चेतना लोग में, है इनकी पहचान।
गले सुमन का हार था, हार गए श्रीमान।।

मच्छड़ का फिर क्या करें

मैंने पूछा साँप से दोस्त बनेंगे आप।
नहीं महाशय ज़हर में आप हमारे बाप।।

कुत्ता रोया फूटकर यह कैसा जंजाल।
सेवा नमकहराम की करता नमकहलाल।।

जीव मारना पाप है कहते हैं सब लोग।
मच्छड़ का फिर क्या करें फैलाता जो रोग।।

दुखित गधे ने एक दिन छोड़ दिया सब काम।
गलती करता आदमी लेता मेरा नाम।।

बीन बजाये नेवला साँप भला क्यों आय।
जगी न अब तक चेतना भैंस लगी पगुराय।।

नहीं मिलेगी चाकरी नहीं मिलेगा काम।
न पंछी बन पाओगे होगा अजगर नाम।।

गया रेल में बैठकर शौचालय के पास।
जनसाधारण के लिये यही व्यवस्था खास।।

रचना छपने के लिये भेजे पत्र अनेक।
सम्पादक ने फाड़कर दिखला दिया विवेक।।

सुमन आग भीतर लिए

हार जीत के बीच में, जीवन एक संगीत।
मिलन जहाँ मनमीत से, हार बने तब जीत।।

डोर बढ़े जब प्रीत की, बनते हैं तब मीत।
वही मीत जब संग हो, जीवन बने अजीत।।

रोज परिन्दों की तरह, सपने भरे उड़ान।
सपने गर जिन्दा रहे, लौटेगी मुस्कान।।

रौशन सूरज चाँद से. सबका घर संसार।
पानी भी सबके लिए, क्यों होता व्यापार।।

रोना भी मुश्किल हुआ, आँखें हैं मजबूर।
पानी आँखों में नहीं, जड़ से पानी दूर।।

निर्णय शीतल कक्ष से, अब शासन का मूल।
व्याकुल जनता हो चुकी, मत कर ऐसी भूल।।

सुमन आग भीतर लिए, खोजे कुछ परिणाम।
मगर पेट की आग ने, बदल दिया आयाम।।

बस माँगे अधिकार

कैसे कैसे लोग से भरा हुआ संसार।
बोध नहीं कर्त्तव्य का बस माँगे अधिकार।।

कहने को आतुर सभी पर सुनता है कौन।
जो कहने के योग्य हैं हो जाते क्यों मौन।।

आँखों से बातें हुईं बहुत सुखद संयोग।
मिलते कम संयोग यह जीवन का दुर्योग।।

मैं अचरज से देखता बातें कई नवीन।
मूरख मंत्री के लिऐ अफसर बहुत प्रवीण।।

जनता बेबस देखती जन-नायक है दूर।
हैं बिकते अब वोट भी सुमन हुआ मजबूर।।

नारी बिन सूना जगत

मँहगाई की क्या कहें, है प्रत्यक्ष प्रमाण।
दीन सभी मर जायेंगे, जारी है अभियान।।

नारी बिन सूना जगत, वह जीवन आधार।
भाव-सृजन, ममता लिए, नारी से संसार।।

भाव-हृदय जैसा रहे, वैसा लिखना फर्ज।
और आचरण हो वही, इसमें है क्या हर्ज।।

कट जायेंगे पेड़ जब, क्या तब होगा हाल।
अभी प्रदूषण इस कदर, जगत बहुत बेहाल।।

नदी कहें नाला कहें, पर यमुना को आस।
मुझे बचा ले देश में, बनने से इतिहास।।

सबकी चाहत है यही, पास रहे कुछ शेष।
जो पाते संघर्ष से, उसके अर्थ विशेष।।

जीवन तो बस प्यार है, प्यार भरा संसार।
सांसारिक इस प्यार में, करे लोग व्यापार।।

सतरंगी दुनिया सदा, अपना रंग पहचान।
और सादगी के बिना, नहीं सुमन इन्सान।।

आशा की किरणें जगी


तन की सीमा से भली, मन की सीमा जान।
मन को वश में कर सके, वही असल इन्सान।।

आशा की किरणें जगीं, भले अंधेरी राह।
नीरवता सुख दे जिसे, सुन्दर उसकी चाह।।

अभिनय करने में यहाँ, नेता बहुत प्रवीण।
भाषण, आश्वासन सहित, खींचे चित्र नवीन।।

खट्टा तब मीठा लगे, जब हो प्रियतम पास।
घड़ी मिलन की याद में, होते नहीं उदास।।

व्यंग्य-बाण के साथ में, हो रचना में धार।
बदलेंगे तब नीति ये, जनता के अनुसार।।

किया बहुत मैंने यहाँ, गम दुनिया की बात।
प्रथम मिलन को याद कर, सचमुच इक सौगात।।

हर विकास के नाम पर, क्या होता है आज?
सबकी कोशिश से बचे, दीनों की आवाज।।

श्लील और अश्लील में, कौन बताये भेद?
आदम युग हम जा रहे, प्रकट करें बस खेद।।

रचना भी है आपकी, भाव आपके खास।
सुमन सजाया बस इसे, कैसा रहा प्रयास?

प्रश्न अनूठा सामने

प्रश्न अनूठा सामने, क्या अपनी पहचान?
छुपे हुए संघर्ष में, सारे प्रश्न-निदान।।

कई समस्या सामने, कारण जाने कौन?
मिला न कारण आजतक, समाधान है मौन।।

बीज बनाये पेड़ को, पेड़ बनाये बीज।
परिवर्तन होता सतत, बदलेगी हर चीज।।

बारिश चाहे लाख हों, याद नहीं धुल पाय।
याद करें जब याद को, दर्द बढ़ाती जाय।।

सुख दुख दोनों में मजा, जो लेते हैं स्वाद।
डरना नहीं विवाद से, जीवन एक विवाद।।

आये कितने रूप में, भारत में भगवान।
नेता जो इन्सान है, रहते ईश समान।।

प्यार बसा संसार में, सांसारिक है प्यार।
बदल गया कुछ प्यार यूँ, सुमन करे व्यापार।।

उलझन जीवन की सखा

उलझन जीवन की सखा, कभी न छूटे साथ।
सुलझेंगे उलझन तभी, मिले हाथ से हाथ।।

शब्द ब्रह्म बनते वहीं, जब हो भाव सुयोग।
शब्दों से ही कष्ट है, शब्द भगाये रोग।।

आशा हो जब संगिनी, जीना है आसान।
जीवन में खुशियाँ मिले, हटे दुखों से ध्यान।।

प्रहरी था जनतंत्र का, आज बना बाजार।
पैसे खातिर मीडिया, करता आज प्रचार।।

सृजन भाव के संग में, कर्मशील इन्सान।
कटते हैं जीवन सहज, मिलते कई प्रमाण।।

बचपन की यादें भली, बेहतर है एहसास।
खोजे दुख में आदमी, अपना ही इतिहास।।

ताले नफरत के जड़े, लोग आज हैं तंग।
हँसना, रोना, प्यार का, बदल गया है ढ़ंग।।

विज्ञापन पढ़ के लगा, बड़े काम की चीज।
सेवन करने पर बना, परमानेन्ट मरीज।।

खींचो कश सिगरेट के, भागे नहीं तनाव।
सार्थक चिन्तन हो अगर, बढ़ता नित्य प्रभाव।।

बातें बिल्कुल आपकी, और सुमन एहसास।
शब्द सजाया सोचकर, जहाँ लगा जो खास।।

एक अनोखी बात

पाँच बरस के बाद ही, क्यों होती है भेंट?
मेरे घर की चाँदनी, जिसने लिया समेट।।

ऐसे वैसे लोग को, मत करना मतदान।
जो मतवाला बन करे, लोगों का अपमान।।

प्रत्याशी गर ना मिले, मत होना तुम वार्म।
माँग तुरत भर दे वहीं, सतरह नम्बर फार्म।।

सत्ता के सिद्धान्त की, एक अनोखी बात।
अपना कहते हैं जिसे, उससे ही प्रतिघात।।

जनता के उत्थान की, फिक्र जिन्हें दिन रात।
मालदार बन बाँटते, भाषण की सौगात।।

घोटाले के जाँच हित, बनते हैं आयोग।
आए सच कब सामने, वैसा कहाँ सुयोग।।

रोऊँ किसके पास मैं, जननायक हैं दूर।
छुटभैयों के हाथ में, शासन है मजबूर।।

व्यथित सुमन हो देखता, है गुलशन बेहाल।
लोग सही चुन आ सकें, छूटेगा जंजाल।।
*************
 

कोई टिप्पणी नहीं: