बात निकलेगी तो फिर: १
जी
संजीव
*
'जी'…
एक अक्षर, एक मात्रा…
एक शब्द…
दो मात्राएँ…
तीन अर्थ…
'जी' अर्थात सहमति।
'जी' अर्थात उपस्थिति।
जी अर्थात आदर।
प्रथम दो अर्थों में 'जी' स्वतंत्र शब्द है जो किसी अन्य शब्द का भाग नहीं है।
तृतीय अर्थ में अर्थात किसी नाम के साथ आदर व्यक्त करने के लिए जोड़े जाने पर 'जी' नाम के अंश रूप में लिखा जाए या नाम से अलग? 'गणेशजी' या 'गणेश जी'? सही क्या है?
कोंवेंट-शिक्षित नयी पीढ़ी को यह विषय महत्वहीन लग सकता है, कुछ पाठक कह सकते हैं कि 'जी' साथ में लिखें या अलग क्या फर्क पड़ता है? छोटी सी बात है।
छोटी सी बात के कितना बड़ा अंतर पड़ता है, इसे समझने के लिए नीचे दर्ज वाकये पर नज़र डालें।
'जी' की महिमा बड़ी है, एक बार कहा तो तीन अर्थ… दो बार कहा तो अंगरेजी के नियम दो न से हाँ / दो हाँ से न नहीं करते 'जी' जी, वे 'जीजी' बनकर आपकी माँ अथवा मातृवत बड़ी बहन बन जाते हैं।
अग्रजा या मैया से पीछा छुड़ाने के लिए जैसे ही आप 'जी' से 'जा' कहेंग वे 'जीजा' बनकर आपको 'साला' बना लेंगे। साले से याद आया एक वाकया…
हस्बमामूल दो वकील दोस्त आपस में समझौता कर एक के बाद एक किसी न किसी कारण से पेशी बढ़वाते और अपने-अपने मुवक्किलों से धन वसूलते। दोनों के ऐश थे। रोज कैंटीन में बेबात की बात करते-करते, चाय-पान के दौर के बीच में बात होते-होते बात बढ़ गयी। एक के मुंह से 'साला' निकल गया। दूसरे ने तुरंत कहा: 'वकील हो तो कोर्ट में गली देकर दिखाओ। माफी न मँगवा ली तो कहना।'
बात-बात में शर्त लग गयी। कोइ पीछे हटने को तैयार नहीं हुआ।
दूसरे दिन एक वकील साहब ने बहस करते-करते विपक्षी वकील द्वारा अपने मुवक्किल पर आरोप लगाये जाते समय बनावती गुस्सा करते हुए कह दिया: 'कौन साला कहता है?'
विपक्षी वकील ने तुरंत न्यायाधीश से शिकायत की: 'हुजूर! वकील साहब गाली देते हैं'
न्यायाधीश ने प्रश्नवाचक निगाहों से घूरा तो वकील साहब सकपकाए। सहमत होते हैं तो क्षमा-प्रार्थना अथवा न्यायालय के समक्ष अभद्रता का आरोप… इधर खाई उधर कुआँ, चारों तरफ धुआँ ही धुआँ…
मरता क्या न करता, वकील साहब ने तुरंत खंडन किया: 'नहीं हुज़ूर! मैंने गाली नहीं दी…'
विपक्षी वकील ने मौके की नजाकत का फायदा उठाना चाहा, तुरत नहले पर दहला मारा: 'आप मेरे बहनोई तो हैं नहीं जो साला कहें, आपने गली ही दी है…'
वकील साहब का आला दिमाग वक़्त पर काम आया। उन्होंने हाज़िर जवाबी से काम लेते हुए उत्तर दिया: 'हजूर! मैंने तो पूछा था 'कौन सा लॉ (कानून) कहता है?'
अब विपक्षी वकील और न्यायलय दोनों लाजवाब… वकील साहब ने विजयी मुद्रा में मुवक्किल को देखा और अपना लोहा मनवा लिया।
तो साहब छोटी सी बात भी अपना महत्त्व तो रखती ही है। तभी तो रहीम कहते हैं:
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिए डार
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै करतार
*
प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर
चीटी लै सक्कर चली, हाथी के सर धूर
*
अब आप कहेंगे: 'यह तो ठीक लेकिन बात तो 'जी' की थी…'
तो चलिए हम 'फिर जी' पर आ जाते हैं:
भाषा विज्ञान के अनुसार एक स्थान से उच्चरित होनेवाले दो वर्णों के बीच अल्प विराम न हो तो ध्वनियाँ मिश्रित होकर भिन्न उच्चारण में बदल जाती हैं जो एक दोष है। जैसे मन ने = मनने = मन्ने आदि
अतः, नाम और जी के मध्य अल्प विराम होना चाहिए, न हो तो 'जलज जी' को 'जलज्जी' और 'सलहज जी'
को 'सलहज्जी' होने से कोई नहीं बचा सकेगा।
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यह तो हुई मेरी बात, अब आप बताएँ कि इस बिंदु पर आपकी राय क्या है?…
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salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.in
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