इतिहास के झरोखे से:
महारानी पद्मिनी की बलिदान गाथा
रजनी सक्सेना
१३०२ ईस्वी में मेवाड़ के राजसिंहासन पर रावल रतन सिंह आरूढ़ हुए.
उनकी रानियों में एक थी पद्मिनी जो श्री लंका के राजवंश की राजकुँवरी थी. रानी पद्मिनी का अनिन्द्य सौन्दर्य यायावर गायकों (चारण/भाट/कवियों) के गीतों का विषय बन गया था. दिल्ली के तात्कालिक
सुल्तान अल्ला-उ-द्दीन खिलज़ी ने पद्मिनी के अप्रतिम सौन्दर्य का वर्णन
सुना और वह पिपासु हो गया उस सुंदरी को अपने हरम में शामिल करने के लिए.
अल्ला-उ-द्दीन ने चित्तौड़ (मेवाड़ की राजधानी) की ओर कूच किया अपनी
अत्याधुनिक हथियारों से लैस सेना के साथ. मकसद था चित्तौड़ पर चढ़ाई कर
उसे जीतना और रानी पद्मिनी को हासिल करना. ज़ालिम सुलतान बढा जा रहा
था, चित्तौड़गढ़ के नज़दीक आये जा रहा था. उसने चित्तौड़गढ़ में अपने दूत
को इस पैगाम के साथ भेजा कि अगर उसको रानी पद्मिनी को सुपुर्द कर दिया
जाये तो वह मेवाड़ पर आक्रमण नहीं करेगा. रणबाँकुरे राजपूतों के लिए यह
सन्देश बहुत शर्मनाक था. उनकी बहादुरी कितनी ही उच्चस्तरीय क्यों ना हो,
उनके हौसले कितने ही बुलंद क्यों ना हो, सुलतान की फौजी ताक़त उनसे कहीं
ज्यादा थी. रणथम्भोर के किले को सुलतान हाल ही में फतह कर लिया था ऐसे
में बहुत ही गहरे सोच का विषय हो गया था सुल्तान का यह घृणित प्रस्ताव,
जो सुल्तान की कामुकता और दुष्टता का प्रतीक था, कैसे माना जा सकता था? नारी के प्रति एक कामुक नराधम का यह रवैय्या क्षत्रियों के
खून खौला देने के लिए काफी था.
रतन सिंह जी ने सभी सरदारों से
मंत्रणा की, कैसे सामना किया जाए इस नीच लुटेरे का जो बादशाह के जामे में
लिपटा हुआ था?. कोई आसान रास्ता नहीं सूझ रहा था. मरने-मारने का विकल्प तो
अंतिम था. क्यों ना कोई चतुराईपूर्ण राजनीतिक कूटनीतिक समाधान समस्या का
निकाला जाय? रानी पद्मिनी न केवल अनुपम सौन्दर्य की स्वामिनी थी, वह एक
बुद्धिमती नारी भी थी. उसने अपने विवेक से स्थिति पर गौर किया और एक
संभावित हल समस्या का सुझाया.
अल्ला-उ-द्दीनको जवाब भेजा गया कि वह
अकेला निरस्त्र गढ़ (किले) में प्रवेश कर सकता है, बिना किसी को साथ
लिए, राजपूतों का वचन है कि उसे किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया
जायेगा….हाँ, वह केवल रानी पद्मिनी को देख सकता है. उसके पश्चात् उसे
चले जाना होगा चित्तौड़ को छोड़ कर…. उम्मीद कम थी कि
इस प्रस्ताव को सुल्तान मानेगा.किन्तु आश्चर्य हुआ जब दिल्ली के आका ने
इस बात को मान लिया. निश्चित दिन को अल्ला-उ-द्दीन पूर्व के चढ़ाईदार
मार्ग से किले के मुख्य दरवाज़े तक चढ़ा, और उसके बाद पूर्व दिशा में
स्थित सूरजपोल तक पहुंचा. अपने वादे के मुताबिक वह नितान्त अकेला और
निरस्त्र था. पद्मिनी के पति रावल रतन सिंह ने महल तक उसकी अगवानी की.
महल के उपरी मंजिल पर स्थित एक कक्ष कि पिछली दीवार पर एक दर्पण लगाया
गया, जिसके ठीक सामने एक दूसरे कक्ष की खिड़की खुल रही थी…उस खिड़की के
पीछे झील में स्थित एक मंडपनुमा महल था जिसे रानी अपने ग्रीष्म विश्राम के
लिए उपयोग करती थी. रानी मंडपनुमा महल में थी जिसका बिम्ब खिडकियों से
होकर उस दर्पण में पड़ रहा था अल्लाउद्दीन को कहा गया कि दर्पण में
झांके. हक्के-बक्के सुलतान ने आईने की जानिब अपनी नज़र की और उसमें रानी
का अक्स उसे दिख गया, तकनीकी तौर पर उसे रानी साहिबा को दिखा दिया गया
था….
सुल्तान को एहसास हो गया कि उसके साथ चालबाजी की गयी है,
…किन्तु बोल भी नहीं पा रहा था, मेवाड़ नरेश ने रानी के दर्शन कराने का
अपना वादा जो पूरा किया था……और उस पर वह नितान्त अकेला और निरस्त्र भी
था. परिस्थितियां असमान्य थी, किन्तु एक राजपूत मेजबान की गरिमा को
अपनाते हुए, दुश्मन अल्लाउद्दीन को ससम्मान वापस पहुँचाने मुख्य द्वार तक
स्वयं रावल रतन सिंह जी गये थे …..अल्लाउद्दीन ने तो पहले से ही धोखे की
योजना बना रखी थी. उसके सिपाही दरवाज़े के बाहर छिपे हुए थे…. दरवाज़ा
खुला……. रावल साहब को जकड लिया गया और उन्हें पकड़कर शत्रु सेना के खेमे
में कैद कर दिया गया.रावल रतन सिंह दुश्मन की कैद में थे. अल्लाउद्दीन ने
फिर से पैगाम भेजा गढ़ में कि राणाजी को वापस गढ़ में सुपुर्द कर दिया
जायेगा, अगर रानी पद्मिनी को उसे सौंप दिया जाए .चतुर रानी ने काकोसा गोरा
और उनके १२वर्षीय भतीजे बादल से मशविरा किया और एक चातुर्यपूर्णयोजना
राणाजी को मुक्त करने के लिए तैयार की.
अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा गया कि अगले दिन सुबह रानी पद्मिनी उसकी खिदमत में हाज़िर हो जाएगी, दिल्ली में चूँकि उसकी देखभाल के लिए उसकी खास दासियों की ज़रुरत भी होगी, उन्हें भी वह अपने साथ लाएगी. प्रमुदित अल्लाउद्दीन सारी रात्रि सो न सका…कब रानी पद्मिनी आये उसके हुज़ूर में, कब वह विजेता की तरह उसे भी जीते….. कल्पना करता रहा रात भर पद्मिनी के सुन्दर तन की…. प्रभात बेला में उसने देखा कि सात सौ बंद पालकियों का जुलूस चला आ रहा है. खिलज़ी अपनी जीत पर इतरा रहा था. खिलज़ी ने सोचा था कि ज्योंही पद्मिनी उसकी गिरफ्त में आ जाएगी, रावल रतन सिंह का वधकर दिया जायेगा… और चित्तौड़ पर हमला कर उस पर कब्ज़ा कर लिया जायेगा. कुटिल हमलावर इस से ज्यादा सोच भी क्या सकता था.? खिलज़ी के खेमे में इस अनूठे जुलूस ने प्रवेश किया……और तुरंत अस्त-व्यस्तता का माहौल बन गया…पालकियों से नहीं उतरी थी अनिन्द्य सुंदरी रानी पद्मिनी और उसकी दासियों का झुण्ड……बल्कि पालकियों से कूद पड़े थे हथियारों से लैस रणबांकुरे राजपूत योद्धा ….जो अपनी जान पर खेल कर अपने राजा को छुड़ा लेने का ज़ज्बा लिए हुए थे. गोरा और बादल भी इन में सम्मिलित थे. मुसलमानों ने तुरत अपने सुल्तान को सुरक्षा घेरे में लिया. रतन सिंहजी को उनके आदमियों ने खोज निकाला और सुरक्षा के साथ किले में वापस ले गये.घमासान युद्ध हुआ, जहाँ दया-करुणा को कोई स्थान नहीं था. मेवाड़ी और मुसलमान दोनों ही रण-खेत रहे. मैदान इंसानी लाल खून से सुर्ख हो गया था. शहीदों में गोरा और बादल भी थे, जिन्होंने मेवाड़ के भगवा ध्वज की रक्षा के लिए अपनी आहुति दे दी थी.
अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा गया कि अगले दिन सुबह रानी पद्मिनी उसकी खिदमत में हाज़िर हो जाएगी, दिल्ली में चूँकि उसकी देखभाल के लिए उसकी खास दासियों की ज़रुरत भी होगी, उन्हें भी वह अपने साथ लाएगी. प्रमुदित अल्लाउद्दीन सारी रात्रि सो न सका…कब रानी पद्मिनी आये उसके हुज़ूर में, कब वह विजेता की तरह उसे भी जीते….. कल्पना करता रहा रात भर पद्मिनी के सुन्दर तन की…. प्रभात बेला में उसने देखा कि सात सौ बंद पालकियों का जुलूस चला आ रहा है. खिलज़ी अपनी जीत पर इतरा रहा था. खिलज़ी ने सोचा था कि ज्योंही पद्मिनी उसकी गिरफ्त में आ जाएगी, रावल रतन सिंह का वधकर दिया जायेगा… और चित्तौड़ पर हमला कर उस पर कब्ज़ा कर लिया जायेगा. कुटिल हमलावर इस से ज्यादा सोच भी क्या सकता था.? खिलज़ी के खेमे में इस अनूठे जुलूस ने प्रवेश किया……और तुरंत अस्त-व्यस्तता का माहौल बन गया…पालकियों से नहीं उतरी थी अनिन्द्य सुंदरी रानी पद्मिनी और उसकी दासियों का झुण्ड……बल्कि पालकियों से कूद पड़े थे हथियारों से लैस रणबांकुरे राजपूत योद्धा ….जो अपनी जान पर खेल कर अपने राजा को छुड़ा लेने का ज़ज्बा लिए हुए थे. गोरा और बादल भी इन में सम्मिलित थे. मुसलमानों ने तुरत अपने सुल्तान को सुरक्षा घेरे में लिया. रतन सिंहजी को उनके आदमियों ने खोज निकाला और सुरक्षा के साथ किले में वापस ले गये.घमासान युद्ध हुआ, जहाँ दया-करुणा को कोई स्थान नहीं था. मेवाड़ी और मुसलमान दोनों ही रण-खेत रहे. मैदान इंसानी लाल खून से सुर्ख हो गया था. शहीदों में गोरा और बादल भी थे, जिन्होंने मेवाड़ के भगवा ध्वज की रक्षा के लिए अपनी आहुति दे दी थी.
अल्लाउद्दीन की खूब
मिटटी पलीद हुई. खिसियाता, क्रोध में आग बबूला होता हुआ, लौमड़ी सा चालाक
और कुटिल सुल्तान दिल्ली को लौट गया. उसे चैन कहाँ था? जुगुप्सा का
दावानल उसे लगातार जलाए जा रहा था. एक औरत ने उस अधिपति को अपने चातुर्य
और शौर्य सेमुंह के बल पटक गिराया था. उसका पुरुषचित्त उसे कैसे
स्वीकार कर सकता था…. उसके अहंकार को करारी चोट लगी थी…. मेवाड़ का राज्य
उसकी आँख की किरकिरी बन गया था. कुछ महीनों के बाद वह फिर चढ़ बैठा था
चित्तौडगढ़ पर, ज्यादा फौज और तैय्यारी के साथ. उसने चित्तौड़गढ़ के पास
मैदान में अपना खेमा डाला. किले को घेर लिया गया……किसी का भी बाहर निकलना
सम्भव नहीं था…दुश्मन की फौज के सामने मेवाड़ के सिपाहियों की तादाद और
ताक़त बहुत कम थी. थोड़े बहुत आक्रमण शत्रु सेना पर बहादुर राजपूत कर पाते
थे लेकिन उनको कहा जा सकता था ऊंट के मुंह में जीरा. सुल्तान की फौजें
वहां अपना पड़ाव डाले बैठी थी, इंतज़ारमें. छः महीने बीत गये, किले में
संग्रहीत रसद ख़त्म होने को आई. अब एक ही चारा बचा था, “करो या मरो.” या
“घुटने टेको.” आत्मसमर्पण या शत्रु के सामने घुटने टेक देना बहादुर
राजपूतों के गौरव लिए अभिशाप तुल्य था, बस एक ही विकल्प
बचा था जूझना….. युद्ध करना….. शत्रु का यथा संभव संहार करते हुए वीरगति को
पाना. बहुत बड़ी विडंबना थी कि शत्रु के कोई नैतिक मूल्य नहीं थे. वे न
केवल पुरुषों को मारते काटते, नारियों से बलात्कार करते और उन्हें भी मार
डालते. यही चिंता समायी थी धर्म परायण सीसोदिया वंश के राजपूतों में.
मेवाड़ियों ने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया….. किले के बीच स्थित मैदान
में लकड़ियों, नारियलों एवम् अन्य इंधनों का ढेर लगाया गया….. सारी
स्त्रियों ने, रानी से दासी तक, अपने बच्चों के साथ गोमुख कुन्ड में
विधिवत पवित्र स्नान किया….सजी हुई चित्ता को घी, तेल और धूप से सींचा
गया…. और पलीता लगाया गया. चित्ता से उठती लपटें आकाश को छू रही
थी…… नारियां अपने श्रेष्ठतम वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित थी….. अपने
पुरुषों को अश्रुपूरित विदाई दे रही थी…. अंत्येष्टि के शोक गीत गाये जा
रही थी. अफीम अथवा ऐसे ही किसी अन्य शामक औषधियों के प्रभाव से प्रशांत
हुई, महिलाओं ने रानी पद्मावती के नेतृत्व में चित्ता की ओर प्रस्थान
किया….. और कूद पड़ी धधकती चित्ता में…. अपने आत्मदाह के लिए…. जौहर के
लिए…. देशभक्ति और गौरव के उस महान यज्ञ में अपनी पवित्र आहुति देने के
लिए. जय एकलिंग, हर हरमहादेव के उदघोषों से गगन गुंजरितहो उठा था.
आत्माओं का परमात्मा से विलय हो रहा था.
अगस्त २५, १३०३ की भोर थी,
आत्मसंयमी दुख-सुख को समानरूप से स्वीकार करने वाला भाव लिए, पुरुष खड़े
थे उस हवन कुन्ड के निकट, कोमलता से भगवद गीता के श्लोकों का कोमल स्वर
में पाठ करते हुए…..अपनी अंतिमश्रद्धा अर्पित करते हुए…. प्रतीक्षा में
कि वह विशाल अग्नि उपशांत हो. पौ फटगयी…..सूरज की लालिमा ताम्रवर्ण लिए
आकाश में आच्छादित हुई….. पुरुषों ने केसरिया बाने पहन लिए…. अपने अपने
भालपर जौहर की पवित्र भभूत से टीका किया…. मुंह में प्रत्येक ने तुलसी का
पता रखा…. दुर्ग के द्वार खोल दिए गये. 'जय एकलिंग….हर हर महादेव' की
हुंकार लगाते रणबांकुरे मेवाड़ी टूट पड़े शत्रु सेना पर……मरने-मारनेका
ज़ज्बा था…. आखरी दम तक अपनी तलवारों को शत्रु का रक्त पिलाया…और स्वयं
लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गये. अल्लाउद्दीन खिलज़ी की जीत उसकी
हार थी, क्योंकि उसे रानी पद्मिनी का शरीर हासिल नहीं हुआ, मेवाड़ की
पगड़ी उसके कदमों में नहीं गिरी. चातुर्य और सौन्दर्य की स्वामिनी रानी
पद्मिनी ने उसे एक बार और मात दे दी थी.
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1 टिप्पणी:
बहुत बहुत धन्यवाद सा आपको जो महारानी पद्मावती की जौहर कथा को सार्वजनिक किया
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