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रविवार, 9 अक्तूबर 2011

हरिगीतिका: -- संजीव 'सलिल'

छंद सलिला:
हरिगीतिका:
-- संजीव 'सलिल'
*
मानव सफल हो निकष पर पुरुषार्थ चारों मानकर.
मन पर विजय पा तन सफल, सच देवता पहचान कर..
सौरभमयी हर श्वास हो, हर आस को अनुमान कर.
भगवान को भी ले बुला भू, पर 'सलिल' इंसान कर..

अष्टांग की कर साधना, हो अजित निज उत्थान कर.
थोथे अहम् का वहम कर ले, दूर किंचित ध्यान कर..
जो शून्य है वह पूर्ण है, इसका तनिक अनुमान कर.
भटकाव हमने खुद वरा है, जान को अनजान कर..
*
हलका सदा नर ही रहा नारी सदा भारी रही.
यह काष्ट है सूखा बिचारा, वह निरी आरी रही..
इसको लँगोटी ही मिली उसकी सदा सारी रही.
माली बना रक्षा करे वह, महकती क्यारी रही..

माता बहिन बेटी बहू जो, भी रही न्यारी रही.
घर की यही शोभा-प्रतिष्ठा, जान से प्यारी रही..
यह हार जाता जीतकर वह, जीतकर हारी रही.
यह मात्र स्वागत गीत वह, ज्योनार की गारी रही..
*
हमने नियति की हर कसौटी, विहँस कर स्वीकार की.
अब पग न डगमग हो रुकेंगे, ली चुनौती खार की.
अनुरोध रहिये साथ चिंता, जीत की ना हार की..
हर पर्व पर है गर्व हमको, गूँज श्रम जयकार की..
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

8 टिप्‍पणियां:

- drdeepti25@yahoo.co.in ने कहा…

अति सुन्दर !
बधाई,
दीप्ति

vijay2@comcast.net ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita विजय निकोर ने कहा…

vijay2@comcast.net ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita

विवरण दिखाएं ११:०० पूर्वाह्न (5 घंटे पहले)



अति मनभावुक !

..माता बहिन बेटी बहू जो, भी रही न्यारी रही.

घर की यही शोभा-प्रतिष्ठा, जान से प्यारी रही..

विजय निकोर

- pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी

अति सुन्दर !
हरिगीतिका की अपनी छटा ही निराली होती है.

सादर
प्रताप

- ksantosh_45@yahoo.co.in ने कहा…

हलका सदा नर ही रहा नारी सदा भारी रही.
यह काष्ट है सूखा बिचारा, वह निरी आरी रही..
इसको लँगोटी ही मिली उसकी सदा सारी रही.
माली बना रक्षा करे वह, महकती क्यारी रही..

आ० सलिल जी

हरिगीतिका छंद इंटरमीडिएट में रटा करते थे। तब भी समझ न आया और न अब आया। पर आपके इस छन्द के भाव मन को अति भाये। उपर्युक्त छन्द तो सबसे बेहतर लगा।
आपको हार्दिक बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह

achal verma ✆ ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी ,

रचना अवश्य ही प्यारी लगी किन्तु मुझे कुछ अटपटा भी लगा जो आपसे पूछना चाहता हूँ :

हलका सदा नर ही रहा नारी सदा भारी रही.
यह काष्ट है सूखा बिचारा, वह निरी आरी रही..
इसको लँगोटी ही मिली उसकी सदा सारी रही.
माली बना रक्षा करे वह, महकती क्यारी रही..

आरी से कहीं आप उसे धीरे धीरे करके काटने वाला
अस्त्र तो नहीं कह रहे हैं?

यदि ऐसा है तब आपके इस रचना का :

माता बहिन बेटी बहू जो, भी रही न्यारी रही.
घर की यही शोभा-प्रतिष्ठा, जान से प्यारी रही..

महत्त्व घट रहा है |

अचल वर्मा

sanjiv 'salil' ने कहा…

दीप्ति जी, विजय जी, प्रताप जी, संतोष जी, अचल जी
आप सबको बहुत धन्यवाद किअपने इस प्रयास को सराहा. हिंदी काव्य शास्त्र के विविध छंदों को सामयिक विषयों और वर्तमान भाषिक रूप से जोड़ने के अभियान में आपकी सहभागिता से प्रोत्साहन मिलता है.

संतोष जी !
हरिगीतिका बहुत सरल छंद है. इसका रचना विधान इसका नाम ही है. आप इस छंद में कुछ रचें तो आपसे अधिक आनंद मुझे मिलेगा.

हरिगीतिका X ४ अर्थात हरिगीतिका हरिगीतिका हरि, गीतिका हरिगीतिका या ल ल ला ल ला ल ल ला ल ला ल ल, ला ल ला ल ल ला ल ला.

हरिगीतिका है छंद मात्रिक, पद-चरण दो-चार हैं.
सोलह तथा बारह कला पर, रुक-बढ़ें यह सार है..

हरिगीतिका चार चरणोंवाला मात्रिक सम छन्द है जिसके प्रत्येक चरण में १६+१२=२८ मात्रा तथा १६-१२ पर यति होना अनिवार्य है. हर दो / चार पंक्तियों में तुकांत समान तथा प्रत्येक चरण के अंत में लघु-गुरु अनिवार्य होता है. पदांत में लघु-गुरु / रगण (गुरु-लघु-गुरु) का विधान वर्णित है. उदहारण: हरिगीतिका हरिगीतिका हरि, गीतिका हरिगीतिका (११२१२ ११२१२ ११, ११ १२ ११२१२).

यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर सिर्फ मात्रा भार समझे जाएँ, परंतु लय प्रधान होने के कारण इस छंद की लय में बाधा उत्पन्न न हो, इस का भी खयाल रखा जाये।

एक उर्दू बहर 'रजज' जिसकी तक्तीह मुस तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन मुस / तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन [2212 / 2212 2 / 212 / 2122] इस से मिलती जुलती है। यहाँ १६वीं मात्रा पर यति बिठानी है, तथा अंतिम इलुन को हिन्दी वर्णों / अक्षरों के अनुसार लघु गुरु माना जाना है। यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर '2' को 2 मात्रा भार समझा जाये न कि गुरु वर्ण।

मूल लय में अब्भिव्यक्त करने में कठिनाई हो तो कुछ परिवर्तन के साथ इस छंद की रचना कुछ इस तरह से भी हो सकती है :-

१. लल-ला-ल-ला / लल-ला-ल-ला लल, / ला-ल-ला / लल-ला-ल-ला (पहचानले x ४ )
२. ला-ला-ल-ला / ला-ला-ल-ला ला, / ला-ल-ला / ला-ला-ल-ला (आजाइए x ४)
३. ला-ला-ल-ल ल / ला-ला-ल-ल ल ला, / ला-ल-ल ल / लल-ला-ल-ल ल (आ जा सनम x ४)
४. ल ल-ला-ल-ल ल / ल ल-ला-ल-ल ल ल ल, / ला-ल-ल ल / ल ल-ला-ल-ल ल (कविता कलम x ४)


एक उर्दू बहर 'रजज' जिसकी तक्तीह मुस तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन मुस / तफ़ इलुन / मुस तफ़ इलुन [2212 / 2212 2 / 212 / 2122] इस से मिलती जुलती है। यहाँ १६वीं मात्रा पर यति बिठानी है, तथा अंतिम इलुन को हिन्दी वर्णों / अक्षरों के अनुसार लघु गुरु माना जाना है। यहाँ अंतिम लघु गुरु को छोड़ कर बाकी स्थान पर '2' को 2 मात्रा भार समझा जाये न कि गुरु वर्ण।

अचल जी!
आप द्वारा उद्धृत प्रथम उदाहरण हास्य रस का है जिसमें कुछ छींटाकशी है, दूसरा उदाहरण शांत रस का है. दोनों रचनाएँ स्वतंत्र तथा पृथक हैं. एक रचना के भाग होते तो कथ्य के विरोधाभासी होने का प्रश्न उठता.

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

- chetnarajput.rana@yahoo.com ने कहा…

संजीव सलिल जी,
सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई।
चेतना

santosh bhauwala ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी ,
अति उत्तम!!!!
बधाई
सादर संतोष भाऊवाला