कक्ष का द्वार खोलते ही चोंक पड़े संपादक जी|
गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर इधर-उधर ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे.
आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- 'बुरा ही देखो'|
हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुंह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'|
'बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाए तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी|
'अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाए हो? संपादक जी ने डपटते हुए पूछा|
'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है| कोई कमी रह गई हो तो बताएं|'
ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखडा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 2 जून 2009
लघुकथा -मुखड़ा देख ले आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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गांधीजी के बंदर,
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11 टिप्पणियां:
बन्दर भी बदले यहाँ देख जगत का हाल।
कम शब्दों में दे गए कुछ संदेश कमाल।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
कम शब्द....गूढ बात...
बहुत ही श्रेष्ठ लघुकथा है। लघुकथा का अर्थ ही है कि अन्त में कोई दर्शन की बात हो। हमारी शुभकामनाएं।
sanjiv ji ,
bahut kam shbdo me aapne bahut saarthak katha kah daali hai ....
aapko badhai ..
vijay
बहुत प्रभावी लघुकथा। यह सच भी है।
bahut hi sunder kahani hai
gagar me sagar si
saader
व्यंग्य है वर्तमान पर। पढ कर ही पता चल जाता है कि आचार्य की लघुकथा है।
सोचने को बाध्य करती लघुकथा।
EK SAARGARBHIT LAGHUKATHA.ACHARYA
JEE,BADHAEE AAPKO.
EK SAARGARBHIT LAGHUKATHA.ACHAARYA
aaj ke halato par steek laghu katha.
abhar.
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