समीक्षक: विवेक रंजन श्रीवास्तव
"मुझको ज्ञान नहीं है बिल्कुल छंदो का,
बस मन में अनुराग लिए फिरता हूँ मैं."
ये पंक्तियाँ हैं, सद्यः प्रकाशित काव्य संकलन ’बिखरे मोती’ में प्रकाशित ’आस लिए फिरता हूँ मैं’ से. समीर लाल जो हिन्दी ब्लॉग जगत में ’उड़नतश्तरी
कम्प्यूटर की दुनियां के वर्चुएल जगह की तात्कालिक, समूची दुनियां में पहुँच की सुविधा के बावजूद, प्रकाशित पुस्तकों को पढ़ने का आनन्द एवं महत्व अलग ही है. इस दृष्टि से ’बिखरे मोती’ का प्रकाशन हिन्दी साहित्यजगत हेतु उपलब्धि है.
अपने अहसास को शब्दों का रुप देकर हर रोज नई ब्लॉग पोस्ट लिखने वाले समीर जी जब लिखते हैं:
’कुटिल हुई कौटिल्य नीतियाँ,
राज कर रही हैं विष कन्या’
या फिर
’चल उठा तलवार फिर से
ढ़ूंढ़ फिर से कुछ वजह,
इक इमारत धर्म के ही
नाम ढ़ा दी बेवजह’
तब विदेश में रहते हुये भी समीर का मन भारत की राजनीति, यहाँ धर्म के नाम पर होते दंगों फसादों से अपनी पीड़ा, की आहत अभिव्यक्ति करता लगता है.
वे लिखते हैं:
’लिखता हूँ अब बस लिखने को,
लिखने जैसी बात नहीं है.'
या फिर
’हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई,
चिड़ियों ने यह जात न पाई.’
या फिर
’नाम जिसका है खुदा, भगवान भी तो है वही,
भेद करते हो भला क्यूँ, इस जरा से नाम से.’
धर्म के पाखण्ड पर यह समीर की सशक्त कलम के सक्षम प्रहार हैं.
इसी तरह आरक्षण की कुत्सित नीति पर वे लिखते नजर आते हैं:
’दलितों का उद्धार जरुरी, कब ये बात नहीं मानी,
आरक्षण की रीति गलत है, इसमें गरज तुम्हारी है’
एक सर्वथा अलग अंदाज में जब वे मन से, अपने आप से बातें करते हैं, वो लिखते हैं:
’आपका नाम बस लिख दिया,
लीजिये शायरी हो गई.’
कुल मिला कर ’बिखरे मोती’ की कई कई मालायें समीर के जेहन में हैं. उनकी रचनाओं का हर मोती एक दूसरे से बढ़ कर है. प्रत्येक अपने आप में परिपूर्ण, अपनी ही चमक लिये, अपना ही संदेशा लिये, अद्भुत!
सारी रचनायें समग्र रुप से कहें तो अहसास की रचनायें हैं, जिन्हें संप्रेषणीयता के उन्मान पर पहुँच कर समीर ने सार्वजनिक कर हम सब से बांटा है.
पुस्तक पठनीय, पुनर्पठनीय एवं संग्रहणीय है.
बधाई एवं शुभकामनाऐं.
- विवेक रंजन श्रीवास्तव ’विनम्र’OB 11 M P S E B Colony ,Rampur ,
जबलपुर, म.प्र.
ब्लॉग: http://vivekkevyang.blogspot.com/
नोट ...जो कवि लेखक प्रकाशक अपनी पुस्तक की समीक्षा करवाना चाहते हैं , वे पुस्तक की प्रति व आग्रह पत्र भेज सकते हैं ....
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