भवनों के जंगल
घनेरे हजारों...
*
कोई घर न मिलता
जहाँ चैन सुख हो।
कोई दर न दिखता
रहित दर्द-दुःख हो।
मन्दिर में हैरां
मनाता है हरि ही
हारा-थका हूँ
हटो रे कतारों...
*
माटी को कुचलो
पर्वत भी खोदो।
जंगल भी काटो-
खुदी नाश बो दो।
मरघट बना जग
तू धूनी रमाना-
न फूलो अहम् से
ओ पंचर गुब्बारों...
*
जो थोथा चना है,
वो बजता घना है।
धोता है, मन
तन तो माटी सना है।
सांसों से आसों का
है क़र्ज़ भारी-
लगा भी दो कन्धा
न हिचको कहारों...
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4 टिप्पणियां:
I like it and recited many times. melody is wonderful.
saras suruchipoorn geet.
गीत में व्यंग की धार... काबिले-तारीफ.
achchha geet mn ko chhoota huaa.
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