कविता
शोभना चौरे
तार तार रिश्तों को
आज महसूस किया|
मैंने बार-बार सीने की कोशिश में
अपने हाथों में सुई भी चुभोई|
किन्तु रिश्तों की चादर
और अधिक जर्जर होती गई
क्या उसे फेंक दूँ?
या संदूक में रख दूँ?
सोचती रही भावना शून्य क्या सच है ?
कितनी ही बार का भावना शून्य व्यवहार
मानस पटल पर अंकित हो गया
चादर तार तार जरूर थी पर उसके रंग गहरे थे |
और उन रंगों ने मुझे फ़िर
भावना की गर्माहट दी
और मैं पुनः उन रंगों को पुकारने लगी |
उन पर होने लगी फ़िर से आकर्षित
उस चादर को फ़िर से सहेजा ,
और उसमें खुश्बू भी ढूंढने लगी
और उस खुशबू ने मुझे
ममता का अहसास दे दिया
और मैंने चादर को फ़िर सहलाकर
सहेजकर रख दिया|
रिशतों की महक को महकने के लिए |
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 15 जून 2009
कविता: शोभना चौरे
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रिश्ते
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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1 टिप्पणी:
shobhana ji!
achchhee rachna.
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