ॐ तैत्तिरीयोपनिषद
(कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखा के अंतर्गत तैत्तिरीय आरण्यक के १० अध्यायों में से ७ वाँ , ८ वाँ, ९ वाँ अध्याय)
*
शांति पाठ
हों हमें कल्याणकारी, मित्र दिवस-सुप्राण मुखिया।
वरुण रात्रि-अपान मुखिया, अर्यमा रवि-चक्षु मुखिया।।
बल-भुजामय इंद्र शुभ हों, वाक्-मतिमय बृहस्पति भी।
दीर्घ डगमय विष्णु शुभ हों, नमन आत्म स्वरूप ब्रह्मण।।
नमस्ते हे वायु! तुम विधि, ऋत-अधिष्ठाता कहूँ मैं।
अधिष्ठाता सत्य के हे!, सत्य कहता; करो रक्षा।।
आचार्य की; मेरी करे, रक्षा मेरी आचार्य की ।।
।। ॐ दैहिक-दैविक-भौतिक शांति ॐ ।।
शिक्षा वल्ली
(इसमें वर्णित शिक्षानुसार जीवन व्यतीत करनेवाला मनुष्य इस लोक और परलोक में सर्वोत्तम फल पाकर ब्रह्म विद्या ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है।)
अनुवाक १
शांति पाठ
हों हमें कल्याणकारी, मित्र दिवस-सुप्राण मुखिया।
वरुण रात्रि-अपान मुखिया, अर्यमा रवि-चक्षु मुखिया।।
बल-भुजामय इंद्र शुभ हों, वाक्-मतिमय बृहस्पति भी।
दीर्घ डगमय विष्णु शुभ हों, नमन आत्म स्वरूप ब्रह्मण।।
नमस्ते हे वायु! तुम विधि, ऋत-अधिष्ठाता कहूँ मैं।
अधिष्ठाता सत्य के हे!, सत्य कहता; करो रक्षा।।
आचार्य की; मेरी करे, रक्षा मेरी आचार्य की ।।
।। ॐ दैहिक-दैविक-भौतिक शांति ॐ ।।
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अनुवाक २
अब करते शिक्षा का वर्णन। शुद्ध कहें स्वर वर्ण मात्रा।
मंत्र गान विधि; संधि आदि भी, तब शिक्षा अध्याय पूर्ण हो।।
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अनुवाक ३
ब्रह्म-तेज-यश साथ ही बढ़े, हम दोनों गुरु और शिष्य का।
करें संहिता और उपनिषद की व्याख्या हम पंच संधि सह।।
स्वर व्यंजन रस विसर्ग अनुस्वर, लोक ज्योति विद्या प्रज्ञात्मा।
पढ़ ज्योतिष-आध्यात्म समझ लें, महासंहिता प्रथम लोक की।।
लोकसंहिता का वर्णन यह, धरती पहले; स्वर्ग बाद में।
अंतरिक्ष है संधि बीच में, वायु इन्हीं का संयोजक है।
अब कहते हैं ज्योति संहिता, पूर्वरूप पावक; रवि उत्तर।
संधि सलिल; विद्युत् संयोजक, ज्योति संहिता कही गयी यह।
यह विद्या संहिता सुनें सब, पहले गुरु है शिष्य बाद में।
विद्या संधि; संधिका प्रवचन, यह विद्या संहिता कही है।।
प्रजा संहिता- पूर्व वर्ण है, माता उत्तर वर्ण पिता है।
है संतान संधि; प्रजनन संधान; प्रजा संहिता यही है।।
आत्म संहिता नीचे-ऊपर, जबड़ा जो पूर्वोत्तर है वह।
वाक् संधि संधान जीभ है, आत्म संहिता कही गयी यह।।
पाँच महासंहिता कहीं यह, जो जन इन्हें जान लेता है।
पा संतति पशु ब्रह्म तेज अरु, अन्न स्वर्ग में रहे प्रतिष्ठित।।
*
अनुवाक ४
जो वेदों में सर्वश्रेष्ठ है, विश्वरूप है; अमृतवत है।
छंदरूप में प्रगट हुआ वह, इंद्र मुझे मेधामय कर दे।।
प्रभु! मैं अमिय धर सकूँ हृद में, तन निरोग हो; जिह्वा मधुर हो।
कान अधिकतम सुनें देव हे!, मति से रक्षा करूँ 'सुने' की।।
लाए-बना-बढ़ा दे झट जो, वसन-गाय खाद्यान्न हमेशा।
मेरे-अपने लिए वही श्री, हे परमेश्वर मुझको ला दे।।
ब्रह्मचारियों आओ स्वाहा, हों निष्कपट ज्ञान गह स्वाहा।
इन्द्रिय-दमन करें सब स्वाहा, मन वश में कर पाएँ स्वाहा।।
लोगों में यश पाऊँ स्वाहा, धन धनिकों से ज्यादा स्वाहा।
मैं-प्रभु में, प्रभु मुझमें स्वाहा, लीन बहुभुजी में हो स्वाहा।।
सलिल-धार ज्यों मिले सिंधु में, माह मिलें ज्यों संवत्सर में।
मिलें ब्रह्मचारी मुझको प्रभु!, तू मुझमें ही रहे प्रकाशित।।
*
अनुवाक ५
व्याहृति तीन 'भू भुवः स्वः' 'मह', चौथी चमस-पुत्र ने जानी।
वही ब्रह्म है; सबकी आत्मा, अंग शेष सुर, 'भू' यह धरती।।
अंतरिक्ष है 'भुव:' और 'स्व:', स्वर्ग लोक; 'मह' है रवि जानो।
सभी लोक करता आलोकित, सदा सदा आदित्य देव ही।।
'भू' पावक है; 'भुव:' पवन है, 'स्व:' रवि, 'मह' शशि व्याहृति जानो।
सकल ज्योतियाँ महिमामंडित, चंद्र देव से ही हैं होती।।
'भू' 'ऋच'; 'भुव:' साम; 'स्व:' यजु है, 'मह'; है ब्रह्म सत्य यह समझो।
महिमावान वेद सब होते, ब्रह्म देव से सदा सदा ही।।
'भू-भुव' 'प्राण-'अपान' जानिए, 'स्व:-मह' व्यान-अन्न को जानें।
होते प्राण सभी संजीवित, मात्र अन्न से यही सत्य है।।
एक-एक व्याहृति के होते, चार प्रकार; योग कुल सोलह।
जो यह जाने; ब्रह्म जानता, देव भेंट दें आकर उसको।।
*
अनुवाक ६
ह्रदय मध्य आकाश में बसा, जो वह शुद्ध प्रकाश सदृश है।
वह अविनाशी है मनबसिया, परम् पुरुष परमेश्वर है वह।।
तालु मध्य में रहे लटकता, स्तनवत जो उसके भीतर।
केश मूल में ब्रह्मरंध्र है, भेद कपाल सुषुम्ना निकली।
इंद्र योनि वह ब्रह्म-प्राप्ति पथ, अंतकाल में साधक जाते।
'भू' पावक; 'भुव' पवन, 'स्व' हैरवि, 'मह' है ब्रह्म जान अपनाते।।
पा स्वराज्य मन-वाणी पति हो, नयन-कान विज्ञान सुस्वामी।
पूर्व बताई गयी साधना, करने से यह संभव होता।।
*
अनुवाक ७
पृथ्वी अंतरिक्ष द्यौ दिश अरु, दिशा अवांतर पंचलोक ये।
पावक पवन भास्कर चंदा, नखत ज्योति समुदाय पाँच हैं।।
जल औषध तरु-पौध नभात्मा, स्थूल पदार्थ पाँच समवर्गी।
यह वर्णन अधिभूत दृष्टि से, अब आध्यात्म दृष्टि से जानें।
पंच प्राण हैं- प्राण व्यान अरु, अपान उदान समान सुवर्गी।
नेत्र कान मन वाक् त्वचा हैं, पाँच करण मानव शरीर में।।
पाँच धातुएँ चर्म मांस अरु, नाड़ी हड्डी मज्जा मिलकर।
कल्पित कर यह सब ऋषि बोले- यह सब निश्चय एक पंक्ति है।।
हो आध्यात्मिक पंक्ति पूर्ण जब, बाह्य पंक्ति उससे आ मिलती।
बाह्य पंक्ति को करती पूरा, है आध्यात्मिक पंक्ति सहज ही।।
*
अनुवाक ८
ॐ ब्रह्म है ॐ सब जगत; ॐ अक्षर है; अनुमोदन है।
हे आचार्य! सुनाएँ मुझको, कहा शिष्य ने- कहें ॐ गुरु।।
बाद ॐ के सामवेदगाता गाते हैं सामवेद को।
ॐ ॐ कहकर ही शास्ता शस्त्रमंत्र का पाठ पढ़ाते।।
करें ॐ उच्चारण ऋत्विक अर्ध्वयु प्रतिगर मंत्र पढ़े फिर।
कहे ॐ ब्रह्मा अनुमति दे, अग्निहोत्र करने की तब ही।।
पूर्व अध्ययन शुभारंभ के, कहे विप्र भी ॐ सर्वदा।
बाद वेद-मति चाहे तो वह, वैदिक विद्या पाए निश्चय।।
अनुवाक ९
सदाचार स्वाध्याय बोल सच, पढ़ें-पढ़ाएँ वेद; तप करें।
इन्द्रिय दमन; मनोनिग्रह कर, पढ़ें-पढ़ाएँ वेद साथ में।।
अग्नि चयन फिर अग्निहोत्र कर, मनुजोचित व्यवहार कीजिए।
कर सत्कार अतिथि का संग में, वेद पढ़ाएँ-पढ़ें हमेशा।।
गर्भाधान-प्रजन जब हो तब, वेद शास्त्र भी पढ़ें-पढ़ाएँ।
सत्यवचा सुत राथीतर का, कहे तपस्या सबसे उत्तम।।
तपोनित्य पुरुशिष्ट पुत्र भी, कहे वेद अध्ययन श्रेष्ठ है।
मुद्गल सुत मुनि नाक भी कहें, वेद पाठ सर्वोत्तम तप है।।
अनुवाक १०
जग-तरु का उच्छेद कर रहा, मेरा यश उन्नत पर्वत सम।
अन्नोत्पादक शक्ति युक्त रवि, जैसे मैं अमृत स्वरूप हूँ।।
हूँ प्रकाशमय धनागार भी, अमृत-सिंचित; श्रेष्ठ बुद्धिमय।
ऋषि त्रिशंकु अनुभूत वचन यह, वैदिक प्रवचन आत्मोद्धारक।।
अनुवाक ११
अनुवाक १२
दिवस-प्राण प्रभु मित्र शुभद हों, वरुण ईश रजनी-अपान के।
शुभद अर्यमा नयन-सूर्य प्रभु, हमें हमेशा हों परमेश्वर!
भुज-बल दाता इंद्र करें शुभ, शांति मिले; मति-वाणी प्रभु गुरु।
दीर्घ डगी हरि कल्याणद हो, नमस्कार हे ब्रह्मण आत्मद।।
नमस्कार हे वायुदेव! प्रत्यक्ष ब्रह्म हे! ऋत के मुखिया।
सत्य ईश ने कहा कीजिए, रक्षा मेरी आचार्यों की।।
अवादिषम् हे! करी ब्रह्म ने, मेरी आचार्यों की रक्षा।
रक्षण मुझको-आचार्यों को, शांति शांति दो शांति सभी को।.
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ब्रह्मानंद वल्ली
शांतिपाठ
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
ब्रह्म कीजिए रक्षा-पालन, साथ-साथ हम शक्ति भी वरें। तेजोमयी पढ़ी विद्या हो, आपस में मत द्वेष करें।।
अनुवाक १
ब्रह्मवेत्ता पा लेता है, परम ब्रह्म को कहती है श्रुति।
है सत्-ज्ञान-अनंत ब्रह्म ही, ह्रदय गुहा-नभ में भी रहता।।
जो कोई जानता उसे है, भोग भोगता साथ ब्रह्म के।
निश्चय ही उस परमात्मा से, सर्वप्रथम आकाश ही हुआ।।
नभ से वायु, वायु से पावक, पावक से जल, जल से धरती।
धरती से औषधियाँ जन्मीं, औषधियों से जन्म अन्न का।।
देह मनुज की बनी अन्न से, बनी अन्न-रस से निश्चय ही।
मनुज एक पक्षी मानें यदि, शीश मनुज का पक्षी का सर।।
दायीं-बायीं भुजा पंख हैं, मध्य भाग पक्षी की आत्मा।
दोनों पैर पूँछ पक्षी की, श्लोक अन्न की महिमा कहता।।
अनुवाक २
प्राणी उपजते अन्न से ही, जो कोई रहते पृथ्वी पर।
जीवित रहते अन्न ग्रहण कर, हो जाते हैं लीन अन्न में।।
सब भूतों में ज्येष्ठ अन्न है, सर्वोत्तम औषध यह ही है।
जो साधक उपासते इसको, पा सकते सर्वस्व अन्न को।।
सब भूतों में श्रेष्ठ अन्न है, सर्वौषध इसलिए कहा है।
हों उत्पन्न अन्न से प्राणी, और अन्न से ही बढ़ते हैं।।
प्राणी उसको; वह प्राणी को, खाते हैं अरु खाया जाता।
अन्न अन्न को इसीलिए ही, कहा हमेश ही जाता है।।
बना अन्न-रस से जो तन वह, निश्चय भिन्न प्राण-आत्मा से।
अन्न पुरुष में व्याप्त आत्म है, अन्न पुरुष के तनाकार सम।
प्राण आत्म का है यह सर ही, पंख दाहिना व्यान सुनिश्चित।
बाँया पक्ष अपान जानिए, आत्मा तन का मध्य भाग है।।
पृथ्वी है आधार पूँछ सम, श्लोक प्राण की महिमा कहता।।
प्रश्न उपनिषद मंत्र पाँचवा, मंत्र आठवाँ भी यह कहता।।
अनुवाक ३
देव मनुज पशु प्राण-अनुसरण, कर ही जीवित रह पाते हैं।
आयु जीव की प्राण संग ही, प्राण आयु भी कहलाते हैं।।
सत्य समझ जो प्राण पूजते, निस्संदेह आयु पाते हैं।
तन वासी आत्मा पहले के, तन में रही अंतरात्मा है।।
निश्चय पुरुष प्राणमय से है, भिन्न आत्मा भीतरवासी।
प्राण आत्म है व्याप्त पूर्णत:, मनमय आत्मा से सच जानें।।
है समान यह पुरुष देह के, चूँकि व्याप्त है पुरुष देह में।
यजुर्वेद सर मनमय मनु का, पंख दाहिना वेद 'ऋग' कहें।।
सामवेद ही पंख वाम है, आत्मा तन का मध्य भाग है।
मंत्र अथर्व अंगिरा ऋषि ने, जो देखे आधार पूँछ हैं।।
अनुवाक ४
जिसे न पा मन वाणी लौटें, जो वह ब्रह्मानंद जानता।
हो भयहीन; मनोमय पुरु ही, आत्मा प्राण-तनों का जानें।।
मनमय में विज्ञानात्मा है, व्याप्त उसी से मनमय तन है।
विज्ञानात्मा पुरुषाकारी, पुरुषाकृति के ही अनुगत है।।
श्रद्धा सर विज्ञानात्मा का, ऋत-सत पंख दाहिने-बाएँ।
योग मध्य तन; पुच्छ 'मह:' है; तद्विषयक है मंत्र-श्लोक यह।।
अनुवाक ५
विज्ञान करे विस्तार यज्ञ का, और करे विस्तार कर्म का।
है विज्ञान देव से सेवित, श्रेष्ठ सभी से ब्रह्म-रूप में।।
जाने विज्ञानात्म ब्रह्म है, तज प्रमाद नित करता चिंतन।
तन-अभिमान त्यागकर तन में, करता अनुभव सब भोगों का।।
इस प्रकार यह श्लोक बताता, है विज्ञान रूप आत्मा विधि।
तन-अभिमान पाप तज तन में, दिव्य भोग का अनुभव करता।।
जो विज्ञानमयी जीवात्मा, उसमें पूरी तरह व्याप्त है।
सम आकारिक आनंदात्मा, पुरुषाकार कही जाती वह।।
शीश भाव प्रिय; दाँया-बाँया पर है मोद-प्रमोद जानिए।
मध्य भाग आनंद ब्रह्म का, पूँछ तथा आधार ब्रह्म है।।
अनुवाक ६
समझ रहा जो ब्रह्म नहीं है, वह हो जाता असत निम्नतम।
जिसे भरोसा ब्रह्म सत्य है, ज्ञानी उसको संत समझते।।
उस आनंदमयी की आत्मा, हैं आनंदमयी ही जानें।
भेद शरीरी-अशरीरी का, यहाँ न होता है अभिन्नता।।
अब अनुप्रश्न - न ब्रह्म मानता, असत कहाँ जाता है मरकर?
और ब्रह्म को मान रहा जो, वह विद्वान् कहाँ जाता है??
मैं प्रकटूँ यह सोच ब्रह्म ने, तपकर रूप अनेक बनाए।
विस्तारा संकल्प जगत रच, हुआ प्रविष्ट उसी में खुद भी।।
हुआ मूर्त भी अरु अमूर्त भी, वह निरुक्त-अनिरुक्त भी हुआ।
वही निलय-अनिलय; चेतन-जड़, हुआ सतासत भी वह खुद ही।।
जो कुछ दिखता सिर्फ सत्य है, ग्यानी कहते अर्थ श्लोक का।
अनुवाक ७
प्रगट न था जब सूक्ष्म-स्थूल जग, था अव्यक्त रूप जड़-चेतन।
जड़-चेतन में खुद से खुद ही, प्रकट ब्रह्म 'सुकृत' कहलाया।।
सुकृत रस-आनंद गगन सम, व्यापक है आनंद रूप में।
अगर नहीं तो कौन जियेगा?, कौन करेगा क्रिया प्राण की??
अदिखे-अकहे अरु अनिलय को, पा लेता है जीवात्मा जब।
तब हो जाता है निर्भय वह, शोकरहित भी हो जाता है।।
जब तक यत्किंचित भी दूरी, रहे ब्रह्म से- तब तक भय हो।
अभिमानी विद्वान जनों से, यही श्लोक में कहा गया है।।
अनुवाक ८
पवन ब्रह्म के भय से चलता, सूर्य ब्रह्म के भय से उगता।
अग्नि इंद्र अरु मृत्यु इन्हीं के, भय से अपने काम कर रहे।।
यह विमर्श आनंद हेतु ज्यों, युवक साधु वेदज्ञ प्रशासक।
दृढ़ बलिष्ठ संपन्न भूमिपति, मनुज लोक का महानंद है।।
मानव के सौ आनंदों सम, एक मनुजगंधर्वों का है।
वेदविज्ञ मनु को स्वभावत:, वह आनंद प्राप्त होता है।।
शतानन्द मनुगंधर्वों के, एक देवगन्धर्वों का है।
काम्य नहीं आनंद जिसे वह, पा लेता स्वभावत: इसको।।
शतानन्द सुरगन्धर्वों के, मिल हों एक दिव्यपितरों का।
चाहे जो न विरक्त पितर वह, अपने आप इसे पा लेता।।
दिव्यपितर के शतानन्द मिल, आजानज देवों का एक।
उदासीन जो दिव्यपितर हों, उनको बिन प्रयास मिल जाता।।
आजानज के शतानन्द हों, एकानंद कर्मदेवों का।
शेष न भोगेच्छा है जिनमें, कर्मदेव वे पा लेते हैं।।
सौ आनंद कर्मदेवों के, मिल आनंद एक देवों का।
जो निष्काम विरक्त देव वे, अपने आप इसे पा लेते।।
देवगणों के शतानन्द सम, एकानंद इंद्र का होता।
भोग कामना जो न करे वह, इंद्र आप ही पा लेता है।।
शत आनंद इंद्र के मिल हों, एकानंद बृहस्पति जी का।
नहीं चाह जिस ब्रह्स्पती में, हो आनंद प्राप्त उसको ही।।
शत आनंद बृहस्पति के मिल, एकानंद प्रजापति का है।
भोगानन्द प्रजापति का जो, नहीं चाहता उसे प्राप्त हो।।
सौ आनंद प्रजापति के मिल, ब्रह्मा का आनंद एक हो।
चाह न रखता जो मनुष्य वह, अपने आप इसे पा लेता।।
ब्रह्म मनुज में जो रवि में भी, भिन्न न एक; जानता है जो।
नर-तन छोड़ बिदा हो जब वह, अन्नमयी आत्मा पा लेता।।
प्राणमयी आत्मा पा लेता, मनोमयी आत्मा पा लेता।
विज्ञानमय आत्म पा लेता, आनंदमय आत्मा पा लेता।।
अनुवाक ९
वाक् इंद्रियाँ उसे न पाकर, मन के साथ लौट आती हैं।
ब्रह्मानंद जानता जो वह, भय न किसी से किंचित करता।।
सज्जन करते भीति न चिंता, पाप क्यों किया, पुण्य नहीं क्यों?
पुण्य-पाप संताप-हेतु, जो जाने- रक्षा करे आत्म की।।
***
भृगुवल्ली
अनुवाक १
पिता वरुण से भृगु बोला- 'पितु!, दें उपदेश ब्रह्म का मुझको।
कहा वरुण ने अन्न प्राण अरु, चक्षु-श्रोत्र-मन-वाक् द्वार हैं।।
होते हैं उत्पन्न भूत सब, जिनसे; जिएँ सहारे जिनके।
जिसमें हों प्रविष्ट जीवन जी, उसको जानो ब्रह्म वही है।।
अनुवाक २
तप कर भृगु ने 'अन्न' ब्रह्म है, जाना प्रगटें-पल-मिल जाते।
जीव अन्न में, कहा वरुण से: 'अन्न ब्रह्म' यह मैंने जाना।।
देख वरुण को मौन; कहे भृगु: 'भगवन! ब्रह्म बताएँ मुझको'।
बोला वरुण: 'तत्व को जानो, तप कर; तप ही ब्रह्म जान लो।।
अनुवाक ३
तप कर अब यह भृगु ने जाना, 'प्राण' ब्रह्म; उत्पन्न प्राण से
प्राणी होते; जीवन जीते, लीन प्राण में ही हो जाते।।
कहा पिता से; मौन देख फिर' करी प्रार्थना: 'ब्रह्म बताएँ'।
ऋषि ने कहा: 'जान तू तपकर', करने लगा तपस्या फिर भृगु।।
अनुवाक ४
'मन' है ब्रह्म; इसी से जन्में, जीवन जी; मर मिलें इसी में।
सत्य समझ यह वरुण गया फिर, भृगु के निकट यही बतलाया।।
भृगु को मौन देख विनती की: 'भगवन! मुझको ब्रह्म बताएँ।
'जान तत्वत: तप कर ही तू', ऋषि बोले; तप किया पुत्र ने।।
अनुवाक ५
अब जाना 'विज्ञान ब्रह्म है, जन्में-पलें-मिलें मर इसमें'।
कहा वरुण से; मिला न उत्तर, विनय करे भृगु 'उपदेशें प्रभु!'।।
'जान ब्रह्म को तप के द्वारा', आज्ञा पा तप-लीन हुआ फिर।
बोध तपस्या कर जो पाया, भिन्न पूर्व से थी प्रतीति यह।।
अनुवाक ६
है 'आनंद' ब्रह्म; यह जाना, उपजें-जिएँ-विलीन इसी में
होते जीव सभी; यह भृगु ने, जाना सत्य वरुण के द्वारा।।
जो जाने यह सत्य; न शंका शेष रहे; वह खुद भी 'सत' हो।
सुख-समृद्धि-संतान-कीर्ति-पशु, पा भोगे; हो महान भी वह।।
अनुवाक ७
कभी न निंदा करें अन्न की, व्रत है अन्न, प्राण भी है वह।
अन्न-भोsक्ता है तन; तन में प्राण प्रतिष्ठित; अन्न प्राण है।।
यह रहस्य जो जान गया वह, अन्नवान-अन्नाद हो सके।
युक्त प्रजा-पशु-ब्रम्हतेज से, हो पा कीर्ति महान वह बने।।
अनुवाक ८
अवहेला मत करें अन्न की, वह व्रत जल है; और ज्योति है।
जल में ज्योति; ज्योति में जल है, वही अन्न में हुई प्रतिष्ठित।।
इस रहस्य को जो जाने वह, अन्नवान-अन्नाद कहाता।
पा संतान तेज पशु कीरति, वह सच ही महान हो जाता।।
अनुवाक ९
व्रत है अन्न; बढ़ाएँ उसको, पृथ्वी अन्नाधार प्रतिष्ठित।
नभ में भू है; अन्न भूमि में, मनुज अन्न में जो जाने यह।।
अन्नवान-अन्नाद वही हो, पा संतान-तेज-पशु यश वह।
सकल जगत में रहे प्रतिष्ठित, हो जाता महान वह खुद ही।।
अनुवाक १०
व्रत- कटु वचन न कहें अतिथि से, अन्न प्रचुर ला उचित राह से।
भोज कराए प्रेम सहित यदि, प्रचुर अन्न दाता को मिलता।।
मध्यम श्रद्धा-प्रेम अतिथि प्रति, मध्यम राह अन्न तब आता।
हीन भाव यदि अतिथि के लिए, अन्न निकृष्ट राह अपनाता।।
इस रहस्य को जो जाने वह, सद्व्यवहार अतिथि से करता।
सर्वोत्तम फल अन्न देव की, परम कृपा से उसको मिलता।।
ब्रह्माशीष वाक् बन रक्षे, प्राण-अपान शक्ति जीवन की।
कर्म करें कर; चलते हैं पग, गुदा तजे मल-शक्ति ईश दे।
यही मानुषी सामाज्ञा है, आध्यात्मिक उपासना यह ही।
दैविक तत्वों से जो मिलती, वही आधिदैविक उपासना।।
तृप्ति वृष्टि में; बल विद्युत में, यश पशुओं में, ज्योति नखत में।
संतति प्रजनन बल उपस्थ में, वीर्यामृत आनंदप्रदाता।।
है सबका आधार गगन यह, सब विभूतियाँ हैं प्रभु की ही।
प्रभु व्याप्त सर्वत्र; सभी में, रक्षा करें सभी की प्रभुवत।।
मान प्रतिष्ठित प्रभु पूजे तो, साधक आप प्रतिष्ठा पाता।
हैं महान वह जिसको पूजा, मान महान आप हो जाता।।
अगर उपासे मन कहकर तो, होता मननशक्ति मय खुद भी।
नमनयोग्य कह प्रभु पूजे तो, भोग सभी होते विनीत हैं।।
ब्रह्म समझ करता उपासना, जो वह ब्रह्मवान होता है।
प्रभु को दण्डक कह पूजें तो, शत्रु उपासक के मिट जाते।।
जो मानव में; वही सूर्य में, एक ब्रह्म जो जान सके वह
अन्न-प्राण-मन-विज्ञानंदी, हो कामान्नी-कामरूप भी।।
सब लोकों में विचरण करता, करता गायन साम का सदा।
वह तब तन में रहे न सीमित, हो ऐकत्व ब्रह्म से उसका।।
अचरज मैं हूँ अन्न; अन्न का भोक्ता हूँ; संयोजक भी हूँ।
हूँ प्रत्यक्ष जगत का ब्रह्मा, जन्म देवों से भी पहले।।
दे-रक्षे जो इसी कार्यवश, वह मेरी रक्षा करता है।
जो खुद भक्षे अन्न; उसे हो अन्न रूप भक्षण करता हूँ।।
करूँ भुवन का तिरस्कार मैं, झलक तेज की सूर्य सरीखी।
जो यह जाने वह मुझ सम हो, पूर्ण ब्रह्म विद्या अब होती।।
शांति पाठ
दिवस-प्राण प्रभु मित्र शुभद हों, वरुण ईश रजनी-अपान के।
शुभद अर्यमा नयन-सूर्य प्रभु, हमें हमेशा हों परमेश्वर!
भुज-बल दाता इंद्र करें शुभ, शांति मिले; मति-वाणी प्रभु गुरु।
दीर्घ डगी हरि कल्याणद हो, नमस्कार हे ब्रह्मण आत्मद।।
नमस्कार हे वायुदेव! प्रत्यक्ष ब्रह्म हे! ऋत के मुखिया।
सत्य ईश ने कहा कीजिए, रक्षा मेरी आचार्यों की।।
अवादिषम् हे! करी ब्रह्म ने, मेरी आचार्यों की रक्षा।
रक्षण मुझको-आचार्यों को, शांति शांति दो शांति सभी को।.
***
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