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बुधवार, 13 अप्रैल 2022

लेख : नारी-दोहा दूहते

लेख :
नारी-दोहा दूहते
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

नारी जननी है, जन्मदायिनी है। वह जीवन में हर परिस्थिति से सार ग्रहण करती है। कन्या, भगिनी, सहचरी और माँ सभी भूमिकाओं में नारी जीवन में रस संचार करती है। नारी, 'सार सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय' को मूर्तित करती है। यही विशेषताएँ हिंदी के छंदराज दोहा में भी हैं। संस्कृत में इसका नाम 'दोग्धक' है, 'दोग्धि चित्तिमित्ति दोग्धकम्' जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन कर ले।१ नारी भी हर भूमिका में अपने स्वजनों-परोजनों के चित्त में स्थान पाती है। आधुनिक हिंदी के जन्म के पूर्व इसकी जननी प्राकृत भाषा में लगभग ३००० वर्ष पूर्व से दोहा कहा जाता रहा है। दोहा ने हर युग में नारी की हर भूमिका का प्रशस्ति गान ही नहीं किया है अपितु नारी के दर्द और पीड़ा, संघर्ष और उत्कर्ष में साक्षी भी रहा है। दोहा ने नारी की अद्भुत छवियों को अभिव्यक्त कर अमर कर दिया है। बदलते समाज के साथ-साथ बदलती नारी की बदलती छवियों, दायित्वों तथा अवदान का संयुक्त मूल्यांकन दोहे ने किया है। आइए, दृष्टिपात करें-

नारी वंदना

विक्रम संवत १६७७ में रचित 'ढोला मारू दा दोहा' में नारी को समस्त सुरों तथा असुरों की स्वामिनी मानते हुए,सरस्वती कहकर वंदना करते हुए अविरल मति का वरदान माँगा गया है। यहाँ सुरासुर में श्लेष अलंकार का सुन्दर प्रयोग है। सुरासुर के दो अर्थ देव-दानव तथा स्वर-अ स्वर (संगीत संबंधी) है।

सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति।
विनय करीन इ वीनवूं,मुझ तउ अविरल मत्ति।।२

उत्सर्ग

काव्य शास्त्र, योग शास्त्र तथा जैनदर्शन के अप्रतिम विद्वान आचार्य हेमचन्द्र सूरी (११४५-१२२९) रचित ग्रंथ 'शब्दानुशासन' के एक दोहे में नायिका अपने पति का देहांत होने पर संतोष व्यक्त कर कहती है 'भला हुआ'। सामान्यत: सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपने सुहाग के लिए मंगलकामना ही करती हैं किन्तु विपरीत आचरण कर रही यह स्त्री अपने सुहाग के साथ-साथ राष्ट्र के प्रति भी कर्तव्य बोध के दिव्य भाव से भी संपन्न है। दोहा उसके इस आचरण पर प्रकाश डालता है-

भल्ला हुआ जु मारिया, बहिणी म्हारा कंतु।
लज्जेजं तु बयसि अहू, जइ भग्गो घर एन्तु।।३

भला हुआ; मारा गया मेरा बहिन सुहाग।
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग।।

विदुषि

कर्णाटक के चालुक्य नरेश तैलप को ६ बार पराजित कर क्षमादान करने के बाद मालवा का परमार नरेश मुंज सातवें युद्ध में छलपूर्वक हराकर, बंदी बना लिया गया। उसकी ख्याति और व्यक्तित्व का प्रभाव यह की तैलप की विधवा बहिन मृणालिनी बंदी मुंज को दिल दे बैठी।काठियावाड़ गुजरात निवासी आचार्य मेरुतुंग रचित ऐतिहासिक कृति 'प्रबंध चिंतामणि'(१३०४ ई.) में मुंज मृणालवती प्रसंग में नीतिगत दोहों के माध्यम से ज्ञात होता है कि उस समय की नारियाँ विविध विषयों पर विद्वतापूर्ण विमर्श भी कर लेती थीं-

भुञ्ज भणइ मृणालवइ, जुब्बण गयुं न झूरि।
जइ सक्कर सय खंडथिय, तौ इस मीठी चूरि।।

जा मति पच्छइ संपजइ, सा मति पहिली होइ।
भुञ्ज भणइ मृणालवइ, बिघन न बेढ़इ कोइ।।

माया

संत शिरोमणि कबीर (सं १४५५-१५७५) के बीजक में नारी संबंधी कई दोहे प्राप्त होते हैं। कबीर नारी को 'माया' मानते हुए कहते हैं -

कबिरा माया चोरटी, मुसि मुसि लावै हाट।
एक कबीरा ना मुसै, कीन्हि बारहबाँट।।

पथ प्रदर्शक

गोस्वामी तुलसीदास (संवत १५५४-१६८०) जब अपनी पत्नी रत्नावली के रूप-पाश में अत्यधिक आसक्त होकर अपना धर्म और कर्तव्य भूल गए तब उनकी पत्नी रत्नावली ने उन्हें धिक्कारते हुए राह दिखाकर राम-भक्ति की ओर उन्मुख करते हुए कहा-

लाज न आवतु आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ।।

अस्थि-चर्ममय देह मम, तामें जैसी प्रीति।
तिसु आधी जो राम प्रति, होति न तौ भवभीति।।

जगजननी, पथप्रदर्शक तथा मर्यादाप्रिय रामचरित मानसकार  तुलसीदास  नारी को परखते रहने की सलाह देते हुए कहते हैं -

उरग तुरग नारी नृपति, नर नीचे हथियार।
तुलसी परखब रहब नित, इनहिं न पलटत बार।।

मंत्र तंत्र तंत्री तिया, पुरुष अश्व धन पाठ।
प्रतिगुण योग-वियोग ते, तुरत जाहिं ये आठ।।

नारि नगर भोजन सचिव, सेवक सखा अगार।
सरस परिहरे रंग रस, नीरस विषद विकार।।४

विदुषी रत्नावली (सं. १५६७-१६५१) अपने पति रामबोला को कर्तव्य का पाठ पढ़कर तुलसीदास बना देती हैं। तुलसी राम भक्ति मार्ग पर पग बढ़ाते हैं तो रत्नावली बाधक नहीं होतीं, वे अपने परित्यग हेतु तुलसी को कभी दोष नहीं देतीं, इसे प्रारब्ध मानकर संतोष करती हैं।

'रतन' देव बस अमृत बिष, बिष अमरित बनि जात।
सूधि हू उलटी परै, उलटी सूधी बात।।

'रतनावलि' औरै कछू, चहिय होइ कछू और।
भल चाहत 'रतनावली' विधि बस अनभल होइ।

रत्नावली से मिलने की चाह में तुलसी, सर्प को रस्सी समझकर उसे पकड़कर रत्नावली के कक्ष में पहुँच गए थे। रत्नावली इस प्रसंग को भूली नहीं, वे लिखती हैं -

जानि परै कहुँ रज्जु अहि, कहिं अहि रज्जु लषात।
रज्जु-रज्जु अहि-अहि कबहुँ, 'रतन' समय की बात।

तुलसी के रत्नावली से विमुख होकर राम भक्ति में लीन होने पर भी रत्नावली उनके प्रति मन कोई कटुता नहीं रखतीं और पति को नारी का सच्चा श्रृंगार कह कर अपनी उदार वृत्ति का परिचय देती हैं -

पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार।
सिब सिंगार 'रतनावली', इक पियु बिन निस्सार।।

तुलसी को कर्तव्य बोध कराने के लिए कहे गए अपने कटु वचन के प्रति खेद व्यक्त करते हुए रत्नावली लिखती हैं -

'रतनावलि' मुखबचन हूँ, इक सुख-दुःख को मूल।
सुख सरसावत वचन मधु, कटु उपजावत सूल।।

'रतनावलि' काँटो लग्यो, वैदनि दयो निकारि।
वचन लग्यो निकस्यो कहुँ, उन डारो हिय फारि।।

संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान, अप्रतिम दोहाकार अब्दुर्रहीम खानखाना (सं. १६१०-१६८२) के नीति परक दोहे समय और साहित्य की थाती हैं। रहीम नारी के संरक्षण को आवश्यक मानते हैं-

उरग तुरग नारी नृपति, नीच जाति हथियार।
रहिमन इन्हें सँभारिए, पलटत लगै न बार।।

नारी के रूप की वंदना करते हुए कहा गया रहीम का यह दोहा कालजयी है-

नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन।
मीठो भावै लोन पर, अरु मीठे पर लोन।।

समाज में नारी को अभिव्यक्ति का अवसर न मिले तो अयोग्य जन आगे बढ़ जाते हैं। यह सनातन सत्य संसद में भारतीय स्त्रियों की अल्प संख्या और निरंतर बढ़ते जाते अपराधी सांसदों को देखकर भी कहा जा सकता है। तुलसी और रहीम दोनों ही इस सनातन सत्य को दोहा में कोयल के माध्यम से व्यक्त करते हैं -

'तुलसी' पावस के समय, धरी कोकिलन मौन।
अब तो दादुर बोलिहैं, हमहिं पूछिहैं कौन।। - तुलसी

पावस देखि रहीम मन, कोयल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन।। - रहीम

दोहा सम्राट बिहारी (सं. १६६०-१७७३) नारी (राधा) से भव-बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -

मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाईं परै, स्यामु हरित दुति होइ।।

बिहारी नारी के दैहिक सौंदर्य पर आत्मिक सौंदर्य को वरीयता देते हुए, सौंदर्य को समय-सापेक्ष बताते हैं-

समै समय सुंदर सबै, रूपु कुरूपु न कोइ।
मन की रुचि जेती जितै, तित तेति रुचि होइ।।

नारी अस्मिता का रक्षक दोहा

बुंदेलखंड की अतीव सुंदरी विदुषी कवयित्री-नर्तकी राय प्रवीण की कीर्ति दसों दिशों में फ़ैल गयी थी। वे ओरछा नरेश इंद्रजीत के प्रति समर्पित, उनकी प्रेयसी थीं। अकबर ने इस नारीरत्न को अपने दरबार में भेजने का संदेश भेजा। बादशाह की हुक्मउदूली करने पर राज्य संकट में पड़ जाता। राजगुरु केशवदास राज्य हित में रायप्रवीण के साथ अकबर के दरबार में गए। बादशाह द्वारा आमंत्रण दिए जाने पर राय प्रवीण ने एक दोहा कहा जिसे सुनकर अकबर पानी-पानी हो गया और अतिथियों का सम्मान कर उन्हें बिदा किया। रायप्रवीण की अस्मिता का रक्षक बन दोहा निम्न है-

बिनती राय प्रवीन की, सुनिए शाह सुजान।
जूठी पातल भाखत हैं, बारी बायस स्वान।।

दृढ़ संकल्प की धनी

नारी जो पाना चाहती है, उसे पाने की राह भी निकाल ही लेती है। दृढ़ संकल्प की धनी गोकुल की नारी कुल मर्यादा का पालन करते हुए भी, कृष्ण की मुरली के रस का पान कर ही लेती है-

किती न गोकुल कुल बधू, किहि न काहि सुख दीन।
कौनैं तजि न कुल-गली, व्है मुरली सुर लीन।।

ठाकुर पृथ्वी सिंह 'रसनिधि' (रचनाकाल सं. १६६०-१७१७) भी नारी (राधा) से बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -

राधा सब बाधा हरैं, श्याम सकल सुख देंय।
जिन उर जा जोरी बसै, निरबाधा मुख लेंय।।

मतिराम त्रिपाठी (१६०४ ई.-१७०१ई.) भूख-प्यास की परवाह न कर व्रत कर रही नारी से पूछते हैं -

नींद भूख अरु प्यास तजि, करती हो तन राख।
जलसाई बिन पूजिहैं, क्यों मन के अभिलाख।।

नारी के रूप की वंदना करते हुए मतिराम, उसकी समता का प्रयास कर रहे चंद्रमा को दोषी ठहराते हैं-

तेरी मुख समता करी, साहस करि निरसंक।
धूरि परी अरविंद मुख, चंदहि लग्यो कलंक।।

महाभारत कथा में अभिमन्यु द्वारा माँ के गर्भ में चक्रव्यूह वेधन कला सीखने का वर्णन है। वृन्द (१६४३-१७२३ ई.) माँ के गर्भ में पल रहे शिशु पर पड़ रहे प्रभाव को उल्लेखनीय मानते हैं-

नियमित जननी-उदर में, कुल को लेत सभाव।
उछरत सिंहनि कौ गरभ, सुनी गरजत घनराव।।

बृज की नारियों की महिमा बताते हुए वृन्द कहते हैं कि उनके आगे ठकुराई नहीं चलती, स्वयं त्रिभुवनपति उनके पीछे-पीछे जंगल-जंगल घूमते हैं-

अगम पंथ है प्रेम को, जहँ ठकुराई नाहिं।

गोपिन के पाछे फिरे, त्रिभुवन पति बन माहिं।।
वृन्द नारी की तुलना पंडित और लता से करते हैं -

पंडित बनिता अरु लता, सोभित आस्रय पाय।

अंग दर्पन तथा रसबोध जैसी कालजयी कृतियों के रचयिता सैयद गुलाम अली 'रसलीन' (सं १७७१-१८८२) भी राधा रानी से भव-बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -

राधा पद बाधा हरन, साधा करि रसलीन।

नारी सौंदर्य का शालीनतापूर्वक वर्णन करने में रसलीन का सानी नहीं है। चंद्रमुखी नायिका बालों को स्निग्ध कर इस तरह जूड़ा बाँध रही है कि नायक की पगड़ी भी लज्जित है -

यों बाँधति जूरो तिया, पटियन को चिकनाय।
पाग चिकनिया सीस की, या तें रही लजाय।।

अमी हलाहल मद भरे, स्वेत स्याम रतनार।
जियत मरत झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।।

विक्रम सतसई के रचयिता चरखारी नरेश महाराज विक्रमादित्य सिंह (राज्यकाल सं. १८३९-१८८६) के दोहे नारी-सौंदर्य के लालित्यपूर्ण वर्णन तथा अनूठी उपमाओं से संपन्न हैं-

तरुनि तिहारो देखियतु, यह तिल ललित कपोल।
मनौ मदन बिधु गोद में, रविसुत करत किलोल।।

गौने आई नवल तिय, बैठी तियन समाज।
आस-पास प्रफुलित कमल, बीच कली छवि साज।।

रामसहाय अस्थाना 'भगत' (रचनाकाल सं. १८६०-१८८०) ने 'राम सतसई में ब्रज भाषा का उपयोग करते हुए नारी के लिए 'गहन जोबन नय चातुरी, सुंदरता मृदु बोल' को आवश्यक मानते हैं। इस दोहे में रात्रि-रति से थकी नायिका भोर में आलस्य से जंभा रही है-

नैन उनींदे कच छुटे, सुखहि छुटे अंगिराय।
भोर खरी सारस मुखी, आरस भरी जँभाय।।

शुद्ध साहित्यिक खड़ी हिंदी में रची गई 'हरिऔध सतसई' के रचनाकार अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध (१५ अप्रैल १८६५-१६ मार्च १९४७) 'सारी बाधाएँ हरे, नारी नयनानंद' कहकर नारी की सामर्थ्य का आभास कराते हैं। नारी के मातृत्व को प्रणतांजलि देते हुए उसकी ममता को पय-धार का कारण बताते हैं हरिऔध जी-

जो महि में होती नहीं, माता ममता भौन।
ललक बिठाता पुत्र को, नयन-पलक पर कौन।।

छाती में कढ़ता न क्यों, तब बन पय की धार।
जब माता उर में उमग, नहीं समाता प्यार।

रामचरित उपाध्याय (सं. १९२९) ने 'बृज सतसई' में नारी सौंदर्य और प्रशंसा के अनेक दोहे रचे हैं। वे एक दोहे में धर्म विमुख नारी को भी दंडित करने की सलाह देते हैं -

नारी गुरु पितु मातु सुत, सचिव महीपति मीत।
बंधु विप्रहु डंडिए, धर्म-विमुख यह नीत।।

हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा मंगलप्रसाद पुरस्कार से पुरस्कृत कृति 'वीर सतसई' के रचनाकार हरि प्रसाद द्विवेदी 'वियोगी हरि' (१८९५-१९८८ई.) नारी में चंडिका को देखते हैं। वे नारी की उपस्थिति मात्र से 'काम' को नष्ट होता देखते हैं -

जहँ नृत्यति नित चंडिका, तांडव नृत्य प्रचंड।
कुसुम तीर तँह काम के, होत आप सत-खंड।।

नारीरत्न पद्मिनी को 'सिंहिनी' तथा रूप-लोलुप सुलतान को 'कुत्ता' कहते हुए वियोगी हरि जी प्रणतांजलि अर्पित करते हैं-

वह चित्तौर की पद्मिनी, किमि पेहो सुल्तान।
कब सिंहनि अधरान कौ, कियौ स्वयं मधु पान।।

रण जाते चूड़ावत सरदार को मोहासक्त देखकर अपने सर काट कर भेंट देनेवाली रानी, रामकुँवर को बचाने के लिए अपने पुत्र की बलि देनेवाली पन्ना धाय, गढ़ा मंडला की वीरांगना रानी दुर्गावती, मुग़ल सम्राट को चुनौती देनेवाली चाँद बीबी, १८५७ के स्वातंत्र्य संग्राम में अंग्रेजों को नाकों चने चबवानेवाली रानी लक्ष्मीबाई आदि के पराक्रम पर दोहांजलि देकर वियोगी हरि बाल विधवाओं की पीड़ा पर भी दोहा रचते हैं -

जहाँ बाल विधवा हियेँ, रहे धधकि अंगार।
सुख-सीतलता कौ तहाँ, करिहौ किमि संचार।।

सुधा संपादक दुलारेलाल भार्गव (१९५६ ई. -६-९-१९७५) नारी में दीपशिखा के दर्शन करते हैं-

दमकत दरपन-दरप दरि, दीपशिखा-दुति देह।
वह दृढ़ इकदिसि दिपत यह, मृदु दस दिसनि सनेह।।

इतना ही नहीं, यहाँ तक कहते हैं कि कामिनी की कृपा होने पर ईश्वर की ओर भी क्यों देखा जाए?

कविता कंचन कामिनी, करैं कृपा की कोर।
हाथ पसारै कौन फिर, वहि अनंत की ओर।।

गीत सम्राट बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' (८-१२-१८९७-२९-४-१९६०) की मुखरा नायिका नेत्रों में प्रिय की छवि होने का उलाहना देते हुए कहती है-

खीझहु मत; रंचक सुनहु, ओ सलज्ज सरदार।
हमरे दृग में लखि तुम्हें, विहँसि रह्यो संसार।।

राष्ट्रीय आत्मा के विशेषण से प्रसिद्ध राजाराम शुक्ल 'चितचोर' (सं. १९५५-) ने 'आँखों' पर लिखे दोहों में हर रस का समावेश किया है। कौवे अपनी निष्ठुर नायिका के नेत्रों की लाल रेखाओं को प्रेम पंथ नहीं; रसिकों के रुधिर से बनी बताते हैं-

लाल-लाल डोरे नहीं, प्रेम-पंथ की रेख।
हैं रसिकों के रुधिर से, अरुण हो रहे देख।।

'चंद्रमुखी के दृग बने. सूर्यमुखी के फूल', 'बिन बंधन अपराध बिन, बाँध लिया मजबूत', 'आँखों की ही है तुला, आँखों के ही बाँट', 'आनन आज्ञा पत्र पर, आँखें मुहर समान जैसी', 'क्यों न चलाऊँ आपकी आँखों पर अभियोग' सरस अभिव्यक्तियों के धनी चितचोर नारी की मादक मधुरता के गायक हैं-

प्रेम दृष्टि की माधुरी, अधर-माधुरी सान।
रूप माधुरी से मधुर, करा रही जलपान।।

राधावल्लभ पांडेय 'बंधु' (जन्म ऋषि पंचमी सं. १९४५) आधुनिक नारी के छलनामय आचरण पर शब्दाघात कर कहते हैं-

अनुचित उचित न सोचती, हरती है सम्मान।
भरी जवानी ताकती, काम भरी मुस्कान।।

जाल बिछाती फाँसती, करके यत्न महान।
ठगती भोले 'बंधु' को, मतलब की मुस्कान।।

दीनानाथ 'अशंक' नारी में देवियों का दिव्य दर्शन करते हैं-

नारी के प्रति आर्यजन, रखते भाव अनूप।
गिनते उसको शारदा; शक्ति रमा का रूप।।

'श्याम सतसई' के रचनाकार तुलसीराम शर्मा 'दिनेश' (जन्म सं. १५५३) नारी की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए उसे नर से श्रेष्ठ तथा प्रकृति को पतिव्रता बताते हैं -

माधव के उर में यदपि, बसते दीनानाथ। राधा उर को देखिए, बसते दीनानाथ।।

नहीं प्रकृति सी पतिव्रता, जग में नारी अन्य।
मूक-पंगु पति की सदा, करती टहल अनन्य।।

बुंदेलखंड के श्रेष्ठ उपन्यासकार, चित्रकार और राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक अंबिका प्रसाद वर्मा 'दिव्य' (१६ मार्च १९०७-५ सितंबर १९८६) ने 'दिव्या दोहावली में चित्रों पर आधारित दोहे लिखकर कीर्तिमान स्थापित किया। नारी के नयनों को चाँद कहें या सूर्य? यह प्रश्न दिव्य जी का दोहा पूछ रहा है-

का कहिए इन दृगन कौं, कै चंदा कै भानु।
सौहैं ये शीतल लगें, पीछे होंय कृशानु।।

अलंकारों, उपमाओं और बिम्बों से सज्जित और समृद्ध दिव्य जी के बुंदेली में रचित दोहों में नारी की प्रकृति और स्वाभाव को संकेतों के माध्यम से केंद्र में रखा गया है। ननद - भौजाई के मधुर संबंध पर रचित एक दोहे में दिव्य जी कहते हैं-

परभृत कारे कान्ह की, भगिनी लगे सतभाइ।
ननद हमारी कुहिलिया, कस न हमें तिनगाइ।।

रामेश्वर शुक्ल 'करुण' श्रमजीवी नारी की विपन्नता और आधुनिक की दिशाहीनता को दो दोहों के माध्यम से सामने लाते हैं -

कृषक वधूटीं की दशा, को करि सकै बखान।
जाल निवारन हेतु जो, नहिं पातीं परिधान।।

धन्य पश्चिम सुंदरी, मोहनि मूरति-रूप।
नहिं आकर्षे काहि तव, मोहक रूप अनूप।।

मध्य भारत के दीवान बहादुर चंद्रभानु सिंह 'रज' बृज-अवधी मिश्रित भाषा में लिखी गयी 'प्रेम सतसई' में नारी की महिमा का बखान कई दोहों में करते हैं। वे भी श्याम के पहले राधा की वंदना करते हैं। रज नारी का अपमान करनेवालों को चेताते हुए कहते हैं-

अरे बावरे! ध्यान दे, मति करि तिय अपमान।
सति सावित्री जानकी, 'रज' नारी धौं आन।।

संबु राम नहिं करि सके, नहिं पाई निज तीय।
'रस' सोइ नारी स्वर्ग तें, लिए फेरि निज पीय।।

६३८४ दोहों के रचयिता किशोर चंद्र 'कपूर' (जन्म सं. १९५६, कानपुर) नारी को माया मानकर उसके प्रभाव को स्वीकार करते हैं-

माया से बचता नहीं, निर्धन अरु धनवान।
साधु संत छूटत नहीं, माया बड़ी महान।।

'नावक के तीर' तथा 'उग आई फिर दूब' दोहा सतसई सहित १४ कृतियों के रचयिता हरदोई में अनंत चतुर्दशी सं. २०१३ को जन्मे, विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर दिवय नर्मदा हिंदी रत्न अलंकरण से अलंकृत डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत' वर्षा, पूनम, शरद शाम आदि को नारी से जोड़कर सामयिक संदर्भों के अर्थगर्भित दोहे कहने में सिद्धहस्त हैं। वे नारी के अवदान को संजीवनी कहते हैं -

जब-जब मैं मूर्छित हुआ, लड़कर जीवन युद्ध।
दे चुंबन संजीवनी, तुमने किया प्रबुद्ध।। ५

नारी को प्रेरणा शक्ति के रूप में देखते हैं अनंत जी-

ओठों पर मुक्तक लिखूँ, लिखूँ वक्ष पर छंद।
आँखों पर ग़ज़लें लिखूँ, गति पर मत्तगयंद।। ६

अभियंता कवि चन्द्रसेन 'विराट' (३-१२-१९३६-१५-११-२०१८) अभिनव और मौलिक बिम्ब-विधान तथा नवीन उपमाओं के लिए जाने जाते रहे हैं। गीतों (१२), ग़ज़लों (१०), मुक्तक (३) तथा दोहों (३) के संकलनों के माध्यम से कालजयी साहित्य रचनेवाले विराट ने नारी को केंद्र में रखकर शताधिक दोहे कहे हैं। आधुनिकता के नाम पर सौंदर्य प्रतियोगिताओं में होते नारी शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए विराट कहते हैं-

स्पर्धाएँ सौंदर्य की, रूपाओं की हाट।
धनकुबेर को लग गयी, सुंदरता की चाट।।

नारी शोषण के विरुद्ध दोहे लिखने में विराट जी संकेतों में सत्य को इस तरह उद्घाटित करते हैं कि पाठक के मन तक बात पहुँचे -

ठकुराइन मइके गई, पकी न घर में दाल।
घर की मुर्गी रामकली, उसको किया हलाल।।७

हरियाणा के राज्य कवि उदयभानु 'हंस' (२-८-१९२६-२६-२-२०१९) नारी के जीवन में औरों के हस्तक्षेप को कठपुतली के माध्यम से इंगित करते हैं-

कठपुतली के नाच पर, सब हैं भाव विभोर।
नहीं पता नेपथ्य में, कौन हिलाता डोर।।८

स्वामी श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन' (जन्म २६-११-१९२०) नारी के दो रूपों 'बेटी' और 'बहू' को केंद्र में रखकर एक मर्मस्पर्शी और मार्गदर्शी दोहा कहते हैं-

बेटी जैसी बहू है, इसका रखें विचार।
बहू बने बेटी सरिस, सुखी बसे परिवार।।९

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा पुरस्कृत के नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य भगवत दुबे नारी उत्पीड़न के प्रमुख कारण दहेज की कुप्रथा पर आघात करते हुए लिखते हैं-

सगुणपंछीयों को रहे, उल्लू-गिद्ध खदेड़।
क्वाँरी बुलबुल हो रही, दौलत देख अधेड़।।१०

परिणय प्रसंग में नारी की भूमिका को लेकर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' अपनी बात कुछ व्यंजना और हास्य मिलाकर भिन्न दृष्टिकोण से सामने रखते हैं। यहाँ 'वरदान' में श्लेष का प्रयोग दृष्टव्य है।

नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान।
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान।।

दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन।
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन।।

दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान।
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान।।११

डॉ. किशोर काबरा, कबीर की उलटबाँसी शैली का प्रयोग करते हुए व्यंजना में कहते हैं कि नारी द्वारा तिरस्कृत नर का उद्धार संभव नहीं-

कलियुग में श्री राम का, कैसे हो परित्राण।
स्पर्श अहल्या का मिला, राम हुए पाषाण।।१२

कल्पना रामानी नारी को अन्नपूर्णा कहते हुए उसकी बचत करने की प्रवृत्ति को सामने लाती हैं -

अन्नपूर्णा है सदा, जब भी पड़े अकाल।
संचित दानों से करे, नारी सदा कमाल।।१२

सीता को प्रतीक बनाकर नारी पर दोषारोपण की सामाजिक कुप्रवृत्ति पर आघात करते हैं कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र'। सीता को मिले वनवास को न रोक पाने की आत्मग्लानि से श्री राम जलसमाधि लेकर जीवनांत कर लेते हैं -

सीताजी को त्यागकर, पछताए प्रभु खूब।
खिन्न हुए इस ग्लानि से, गए नदी में डूब।। १३

दुर्गावती, चाँदबीबी, लक्ष्मीबाई, अवंतीबाई, चेन्नमा आदि नारी आदि ने देश की स्वतंत्रता के लिए जान की बाजी लगाने में कोई संकोच नहीं किया। कस्तूरबा गाँधी, सरोजिनी नायडू, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि ने स्वतंत्रता सत्याग्रह में महती भूमिका निभाई। नागार्जुन इन नारी रत्नों को कोयल की उपमा देते हुए एक दोहा कहकर उनके अवदान को नमन करते हैं-

जली ठूंठ पर बैठकर, गयी कोकिला कूक।
बाल न बाँका कर सकी, शासन की बंदूक।।१४

नारी विवाह पश्चात् ससुराल आ जाती है तो सावन में भाई का स्मरण होना और न मिल पाने की विवशता, उसे व्यथित करती ही है। आर. सी.शर्मा 'आरसी' नारी-वेदना के इस पक्ष को सामने लाते हैं-

सावन बरसे आँख से, ब्याही कितनी दूर।
बाबुल भी मजबूर थे, मैं भी हूँ मजबूर।।

डॉ. शैल रस्तोगी (जन्म १-९-१९२७) नारी जीवन के दो पक्षों को दो दोहों के माध्यम से सामने लाती हैं -

पत्नी, माँ, बेटी, बहिन, भौजी, ननदी, सास।
एक ज़िंदगी में जिए, नारी सौ अहसास।।

बहुएँ बड़बोली हुईं, सासें दिन-दिन मौन। 
उलटी गंगा बाह रही, घर को बाँधे कौन।।

डॉ. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र' (१.४.१९३४-२०१९) संतानों के अन्यत्र जा बसने से उपजी विसंगति को इंगित करते हुए कहते हैं -

बीबी-बच्चे संग ले, शहर जा बसा पूत।
बूढ़ी आँखें साँझ से, घर में देखें भूत।।

नर्मदांचल के ख्यात साहित्यकार माणिक वर्मा (जन्म २५.१२.१९३८) अत्याधुनिकता की चाह में शालीनता-त्याग की कुप्रवृत्ति को इंगित करते हुए कहते हैं -

कटि जंघा पिंडलि कमर, दिया वक्ष भी खोल।
और कहाँ तक सभ्यता, बदला लेगी बोल।।

मधुकर अष्ठाना (२७.१०.१९३९) निरंतर बढ़ते यौन अपराधों पर अपनी चिंता व्यक्त करते हैं -

नाबालिग से रेप क्यों, पतित हुआ यूँ देश।
हैवानों ने धर लिया, इंसानों का वेश।।

नारी विमर्श की बात स्थूल रूप से न कर, धूप, चाँदनी, आकाश, धुएँ और बाज चिड़िया, खेत के माध्यम से करते हैं डॉ. कुँवर बेचैन (१.७.१९४२-२९.४.२०२१) -

धूप साँवली हो गयी, हुई चाँदनी शाम।
जब से यह सारा गगन, हुआ धुएँ के नाम।।

फँस चंगुल में बाज के, चिड़िया हुई अचेत।
खड़ा देखता रह गया, हरी चरी का खेत।।

डॉ. राधेश्याम शुक्ल (२६.१०.१९४२) इस चलभाष काल में बिसराई जा चुकी चिट्ठी को नारी से जोड़ते हुए कहते हैं-

औरत चिट्ठी दर्द की, जिस पर पेट मुकाम।
फेंक गया है डाकिया, पत्थरवाले गाम।।

दिनेश शुक्ल (१-१-१९४३) तमाम बाधाओं के बावजूद आगे बढ़ते रहने के नारी के हौसले को सलाम करते हैं -

गाँठ लगी धोती फ़टी, सौ थिगड़े पैबंद।
लड़की बुनती रात दिन, मुस्कानों के छंद।।

सूर्यदेव पाठक 'पराग' (२३-७-१९४३) नारी को नर की शक्ति कहते हैं -

नारी नर की शक्ति है, वही प्रेरणापुञ्ज
जीवन रेगिस्तान में, सुंदर कुसुमित कुञ्ज।।

डॉ. रमा सिंह (१७.१०.१९४५) नारी के स्वाभिमान की रक्षा को महत्वपूर्ण मानती हैं -

अम्मा की आँखें मुझे, सदा दिलातीं याद।
कमज़र्फों के सामने, मत करना फरियाद।।

डॉ. मिथलेश दीक्षित (१-९-१९४६) नारी के दो रूपों की दो चरित्रों के माध्यम से चर्चा करते हुए युगीन विसंगति को इंगित करती हैं-

शूर्पणखा की धूम है, रही जानकी चीख।
झूठ कार में घूमता, सत्य माँगता भीख।।

हिंदी के कालजयी छंद दोहा ने हर देश-काल में नारी की अस्मिता का सम्मान कर, उसके अधिकारों के बात की है, शौर्य का गुणगान किया है और पथ भटकी नारियों को सत्परामर्श देकर मार्ग दर्शन भी किया है। हिंदी के प्रतिष्ठित और नवोदित सभी दोहाकारों ने नारी को केंद्र में लेकर दोहे रचे हैं। आदि काल में देवी वंदना, वीरगाथा काल में वीरांगना प्रशस्ति, भक्ति काल में आत्मा-परमात्मा, रीति काल में श्रृंगार और नायिका वर्णन, आधुनिक काल में समसामयिक सामाजिक विसंगतियों के नारी पर प्रभाव को दोहे ने हमेशा ही ह्रदय में बसाया है। एक लेख में यह सब कुछ समेटा नहीं जा सकता। नारी सृष्टि का अर्धांग ही नहीं जननी भी है। नर और नारी एक-दूसरे के पूरक हैं। मैंने एक दोहे के माध्यम से नर-नारी की सहभागिता और समन्वय को इंगित किया है -

नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान.
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान.
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नारी को माँगे बिना, मिल जाता नर-दास.
कुल-वधु ले नर दान में, सहता जग-उपहास.
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दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन.
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन.
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चीन्ह-चीन्ह आदेश दे, हक लेती है छीन.
समता कर सकता न नर, कोशिश नाहक कीन.
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दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान.
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान.
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यह उसका रहमान है, वह इसकी रसखान.
उसमें इसकी जान है, इसमें उसकी जान.
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संदर्भ -
१. अनंतराम मिश्र 'अनंत', नावक के तीर।
२. दोहा-दोहा नर्मदा, संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।
३. हिंदी दोहा सार, सम्पादक बरजोर सिंह 'सरल',
४. रामचरित मानस, गोस्वामी तुलसीदास
५. नावक के तीर, डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत'
६. उग आयी फिर दूब, डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत'
७. चुटकी-चुटकी चाँदनी - चन्द्रसेन 'विराट'
८. दोहा सप्तशती - उदयभानु हंस
९. होते ही अंतर्मुखी - श्यामानंद सरस्वती 'रौशन'
१०. शब्दों के संवाद - आचार्य भगवत दुबे
११. दिव्यनर्मदा.इन / दोहा सलिला - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
१२. बाबूजी का भारत मित्र, दोहा विशेषांक - संपादक रघुविंदर यादव
१३. स्वरूप सहस्रसई - कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र'
१४. समकालीन दोहा कक्ष - संपादक हरेराम 'समीप'
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४
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