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शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

कृष्ण कला, कृष्ण प्रज्ञा

कृष्ण प्रज्ञा की भाषा नीति

०१.  स्वर-व्यंजन निम्न अनुसार होंगें-
       (अ) स्वर - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अनुस्वार- अं विसर्ग: अ:। 

      (आ ) व्यंजन - क, ख, ग, घ, ङ (क़, ख़, ग़), च, छ, ज, झ, ञ (ज़, झ़), ट, ठ, ड, ढ, ण (ड़, ढ़), त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, (फ़),          य, र, ल, व, श, ष, स, ह। 

      (इ) संयुक्त वर्ण- क्ष, त्र, ज्ञ, श्र, क्र, प्र, ब्र, स्र, ह्र, ख्र आदि। संयुक्त वर्ण (अ) खड़ी पाईवाले व्यंजन - ख्यात, लग्न, विघ्न, कच्चा, छज्जा, नगण्य, कुत्ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास, प्यास, अब्बा, सभ्य, रम्य, अय्याश, उल्लेख, व्यास, श्लोक, राष्ट्रीय, स्वीकृति, यक्ष्मा, त्र्यंबक। (आ) अन्य व्यंजन - संयुक्त, पक्का, दफ्तर, वाङ्मय, लट्टू, बुड्ढा, विद्या, ब्रह्मा,प्रकार, धर्म, श्री, श्रृंगार, विद्वान, चिट्ठी, बुद्धि, विद्या, चंचल, अंक, वृद्ध; द्वैत आदि।

      संस्कृत भाषा के मूल श्लोकों को उद्धृत करते समय मूल अंश में प्रयुक्त वर्ण, संयुक्ताक्षर तथा हिंदी वर्णमाला में जो वर्ण शामिल नहीं हैं, वे यथावत लिखे जाएँ। पाली, ब्राह्मी, प्रकृत, कैथी, शारदा आदि लिपियों के उद्धरण मूल उच्चारण के अनुसार देवनागरी में लिखे जाएँ।     

०२. कृष्ण प्रज्ञा की मुख्य भाषा आधुनिक (खड़ी) हिंदी तथा लिपि देवनागरी है। संस्कृत, भारतीय भाषाओँ-बोलिओं, आंचलिक बोलिओं           तथा विदेशी भाषा-बोलिओं के उद्धरण यथास्थान दिए जा सकते हैं। अहिन्दी भाषाओँ के उद्धरण देते समय मूल उच्चारण देवनागरी            लिपि में तथा हिंदी अर्थ दिया जाना चाहिए। 

०३. लेखक उद्धरणों की शुद्धता तथा प्रामाणिकता हेतु जिम्मेदार होंगे। प्रयुक्त उद्धरणों के संदर्भ आरोही (बढ़ते हुए) क्रम में लेख के अंत में देंगे। पृष्ठ डिजाइनर हर पृष्ठ पर मुद्रित सामग्री संबंधी उद्धरणों के संदर्भ उसी पृष्ठ पर पाद टिप्पणी के रूप में देंगे। 

०४. रचनाओं में तत्सम-तद्भव शब्दों का प्रयोग स्वीकार्य है। 

०५. रचनाओं में केवल यूनिकोड या यूनिकोड समर्थित फॉण्ट का उपयोग करें जिसे कोकिला फॉण्ट में परिवर्तित कर मुद्रित किया जायेगा। 

०६. कृष्णप्रज्ञा में हिंदी संस्करण में देवनागरी अंकों तथा अंग्रेजी संस्करण में अंग्रेजी अंकों का प्रयोग किया जाए। 

०७. हिंदी में पारंपरिक रूप से नुक्ता का प्रयोग नहीं किया जाता है। लेखक अपनी भाषा-शैली में चाहे तो नुक्ता का प्रयोग यथास्थान कर सकता है।   

०८. कारक चिह्न (परसर्ग) - 

(अ) हिंदी के कारक : कर्ता - ने, कर्म - को, करण - से; द्वारा, संप्रदान - को; के लिए, अपादान - से (पृथक होना), संबंध - का; के; की; ना, नी ने, रा, री, रे, अधिकरण - में; पर, संबोधन - हे; अहो, अरे, अजी आदि हैं। 

(आ) संज्ञा शब्दों में कारक प्रतिपादक से अलग लिखें। 

(इ) सर्वनाम शब्दों में करक को प्रतिपादक के साथ मिलाकर लिखें।

(ई) सर्वनाम के साथ दो कारक एक साथ हों तो पहला कारक मिलाकर तथा दूसरा अलग लिखा जाए। सर्वनाम और कारक के बीच निपात हों तो कारक को पृथक लिखें।

०९. संयुक्त क्रिया पद - 

सभी अंगीभूत क्रियाएँ अलग-अलग लिखें। 

१०. योजक चिह्न (हाइफ़न -) - इसका प्रयोग स्पष्टता के लिए किया जाता है। 

(अ) द्वंद्व समास में पदों के बीच में योजक चिह्न हो। उदाहरण :-  शिव-पार्वती, लिखना-पढ़ना आदि। 

(आ) सा, से, सी के पूर्व योजक चिह्न हो। जैसे :- तुम-सा, उस-सी, कलम से आदि। 

(इ) तत्पुरुष समास में योजक चिह्न का प्रयोग केवल वहीं हो जहाँ उसके बिना भ्रम की संभावना हो, अन्यथा नहीं। जैसे भू-तत्व = पृथ्वी तत्व, भूतत्व = भूत होने का भाव या लक्षण आदि। 

(ई) कठिन संधियों से बचने के लिए भी योजक  प्रयोग किया जा सकता है। द्वयक्षर के स्थान पर  द्वि-अक्षर, त्र्यंबक के स्थान पर त्रि-अंबक। इससे अहिन्दीभाषियों के लिए समझना आसान होगा।  

११. अव्यय -

(अ) 'तक', 'साथ' आदि अव्यय हमेशा अलग लिखें। जैसे :-वहाँ तक, उसके साथ। 

(आ) जब अव्यय के आगे परसर्ग (कारक) आए तब भी अव्यय अलग ही लिखा जाए। अब से, सदा के लिए, मुझे जाने तो दो, बीघा भर जमीन, बात भी नहीं बनी आदि। 

(इ) सब पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि समास होने पर सकल पद एक माना जाता है। यथा :- 'दस रूपए मात्र , मात्र कुछ रुपए आदि। 

१२. सम्मानसूचक अव्यय 

(अ) सम्मानात्मक अव्यय पृथक लिखें। यथा :- श्री चित्रगुप्त जी, पूज्य स्वामी विवेकानंद आदि। 

(आ) श्री संज्ञा का भाग हो तो अलग नहीं लिखें।  जैसे :- श्रीगोपाल श्रीवास्तव। 

(इ) सभी पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय जोड़कर लिखें। उदाहरण :- प्रतिदिन, प्रतिशत, नित्यप्रति, मानवमात्र, निमित्तमात्र, यथासमय, यथोचित, यथाशक्ति आदि।        

१३. अनुस्वार (शिरोबिंदु/बिंदी)

(अ)  अनुस्वार व्यंजन है। 

(आ) संस्कृत शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग अन्य वर्णीय वर्णों (य से ह तक) से पहले रहेगा। यथा :- यंत्र, रंचमात्र, लंब, वंश, शंका, संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, संक्षेप, संतोष, हंपी, अंश, कंस, सिंह आदि। 

(इ) संयुक्त वर्ण में पाँचवे अक्षर ('ङ्', ञ्, ण, न, म) के बाद सवर्णीय वर्ण हो तो अनुस्वार का प्रयोग करें। यथा :- कंगाल, खंगार, गंगा, घंटा, चंचु, छंद, जंजाल, झंझट, टंकर, ठंडा, डंडी, तंदूर, थंब, दंश, धंधा, नंद, पंच, फंदा, बंधु, भंते, मंदिर आदि। 

(ई) पाँचवे अक्षर के बाद अन्य वर्ग का वर्ण आए तो पांचवा अक्षर अनुस्वार के रूप में नहीं बदलेगा। जैसे :- वाङ्मय, अन्य, उन्मुख, चिन्मय, जन्मेजय, तन्मय आदि। 

(उ) पाँचवा वर्ण साथ-साथ आए तो अनुस्वार में नहीं बदलेगा। जैसे :- अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि। 

(ऊ) अन्य भाषाओँ (उर्दू, अंग्रेजी आदि) से लिए गए शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को दूर करने के लिए नासिक्य (न, म) व्यंजन पूरा लिखें। जैसे :- लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि। 

१४. अनुनासिक (चंद्रबिंदु) 

(अ) अनुनासिक स्वर का नासिक्य विकार है। यह, व्यंजन नहीं,स्वरों का ध्वनि गुण है। अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में मुँह और नाक से वायु प्रवाह होता है। जैसे :- अँ, आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ आदि।

(आ) अनुस्वार और अनुनासिक के गलत प्रयोग से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। जैसे :- हंस = पक्षी, हँस - क्रिया, आंगन 

(इ) जहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का प्रयोग भ्रम न उत्पन्न करे वहाँ निषेध नहीं है। जैसे :- में, मैं, नहीं, आदि में अनुनासिक के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग। 

१५. विसर्ग 

(अ) तत्सम रूप में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों में विसर्ग का प्रयोग यथास्थान किया जाए। जैसे :- दु:खानुभूति।

(आ) तत्सम शब्दों के अंत में विसर्ग का प्रयोग अवश्य हो। यथा :- अत:. पुन:, स्वत:, प्राय:, मूलत:, अंतत:, क्रमश: आदि। 

(इ) विसर्ग के स्थान पर उसके उच्चरित रूप 'ह' का प्रयोग कतई न किया जाए।  

(ई) दुस्साहस, निस्स्वार्थ तथा निश्शब्द का नहीं, दु:साहस, नि:स्वार्थ तथा नि:शब्द का प्रयोग करें। 

(उ) निस्तेज, निर्वाचन, निश्छल लिखें। नि:तेज, नि:वचन,नि:चल न लिखें। 

(ऊ) अंत:करण, अंत:पुर, दु:स्वप्न, नि:संतान, प्रात:काल विसर्ग सहित ही लिखें। 

(ए) तद्भव / देशी शब्दों में विसर्ग का प्रयोग न करें। छः नहीं छह लिखें। 

(ऐ) प्रायद्वीप, समाप्तप्राय आदि में विसर्ग नहीं है। 

(ओ) विसर्ग को वर्ण के साथ चिपकाकर लिखा जाए जबकि उपविराम (कोलन) चिन्ह शब्द से कुछ दूरी पर हो। अत:, जैसे :- आदि। 

१६. हल् चिह्न ( ् )

(अ) व्यंजन के नीचे लगा हल् चिह्न बताता है कि वह व्यंजन स्वर रहित है। हल् चिह्न लगा शब्द 'हलंत' शब्द है। जैसे :- जगत्। 

(आ) संयुक्ताक्षर बनाने में हल् चिह्न का प्रयोग आवश्यक है। यथा :- बुड्ढा, विद्वान आदि। 

(इ) तत्सम शब्दों का प्रयोग हलन्त रूपों के साथ हो। प्राक्, वाक्, सत्, भगवन्, साक्षात्, जगत्, तेजस्, विद्युत्, राजन् आदि। महान, विद्वान आदि में हल् चिह्न न लगाएँ। 

१७. स्वन परिवर्तन 

संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी ज्यों की त्यों रखें। 'ब्रह्मा' को ब्रम्हा, चिह्न को चिन्ह न लिखें। अर्ध, तत्त्व आदि स्वीकार्य हैं। 

१८. 'ऐ' तथा 'औ' का प्रयोग 

(अ) 'ै' तथा ' ौ' का प्रयोग दो तरह से (अ) मूल स्वरों की तरह - 'है', 'और' आदि में तथा सन्ध्यक्षरों के रूप में 'गवैया', कौवा' आदि में किया जा सकता है। इन्हें 'गवय्या', 'कव्वा' आदि न लिखें। 

(आ) अहिन्दी शब्दों 'अय्यर', 'नय्यर', 'रामय्या' को 'ऐयर', 'नैयर', 'रामैया' न लिखें। 'अव्वल', 'कव्वाली' आदि प्रचलित शब्द यथावत प्रयोग किए जा सकते हैं। 

(अ) संस्कृत शब्द 'शय्या' को 'शैया' या 'शइया' न लिखें। 

१९. पूर्वकालिक कृदंत 

(अ) पूर्वकालिक कृदंत क्रिया से मिलाकर लिखें। जैसे :- आकर, सुलाकर, दिखलाकर आदि। 

(आ) कर + कर = 'करके', करा + कर = 'कराके' होगा।

२०. 'वाला' प्रत्यय 

(अ) क्रिया रूप में अलग लिखें।  जैसे :- करने वाला, बोलने वाला आदि। 

(आ) योजक प्रत्यय के रूप में एक साथ लिखें। यथा :- दिलवाला, टोपीवाला, दूधवाला आदि। 

(इ) निर्देशक शब्द के रूप में 'वाला' अलग से लिखें। जैसे :- अच्छी वाली बात, कल वाली कहानी, यह वाला गीत आदि। 

२१. श्रुतिमूलक 'य', 'व्' 

(अ) विकल्प रूप में प्रयोग न किया जाए। जैसे :- 'किए', 'नई', 'हुआ' आदि के स्थान पर 'किये', 'नयी', 'हुवा' आदि का प्रयोग न करें। 

(आ) जहाँ 'य' शब्द का मूल तत्व हो वहाँ उसे न बदलें। जैसे :- 'स्थायी', 'अव्ययीभाव', 'दायित्व' आदि को 'स्थाई', 'अव्यईभाव', 'दाइत्व' आदि न लिखें। 

अहिन्दी-विदेशी ध्वनियाँ 

(अ) अरबी-फ़ारसी (उर्दू) शब्द - 

(क) हिंदी का अभिन्न अंग बन चुके अरबी-फ़ारसी शब्द बिना नुक्ते के लिखें। जैसे :- 'कलम', 'किला', 'दाग' लिखें, 'क़लम', 'क़िला', 'दाग़' न लिखें। 

(ख) जहाँ शब्द को मूल भाषा के अनुसार लिखना आवश्यक हो वहाँ हिंदी रूप में यथास्थान नुक्ता (बिंदु) लगाएँ। जैसे- 'खाना', 'राज', 'फन' के स्थान पर 'ख़ाना', 'राज़', 'फ़न' आदि लिखें। 

(आ) अंग्रेजी शब्द 

(क) जिन अंग्रेजी शब्दों में अर्ध विवृत 'ओ' ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध हिंदी रूप के लिए 'ा ' (आ की मात्रा) के ऊपर अर्धचंद्र लगाएँ। जैसे :- हॉल, मॉल, चॉल, डॉल, टॉकीज, मॉम आदि। 

(ख) अंग्रेजी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण मूल उच्चारण के अधिक से अधिक निकट हो। 

(इ) अन्य विदेशी भाषाओँ के शब्द 

चीनी, जापानी, जर्मन आदि भाषाओँ के शब्दों को देवनागरी में लिखते समय उनके उच्चारण साम्य पर ध्यान दें। 'बीजिंग' को 'पीकिंग' न लिखें।        

   


         


   


      



             



  

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कृष्ण विद्याएँ - कलाएँ 
भगवान् श्रीकृष्ण की ६४ विद्याएँ एवं कलाएँ निम्न हैं-
१ - गीतं 
२ - वाद्यं 
३ - नृत्यं 
४ - आलेख्यं
५ - विशेषकच्छेद्यं 
६ - तण्डुलकुसुमवलि विकाराः 
७ - पुष्पास्तरणं 
८ दशनवसनागरागः 
९ - मणिभूमिकाकर्म 
१० - शयनरचनं 
११ - उदकवाद्यं 
१२ - उदकाघातः 
१३ - चित्राश्च योगाः 
१४ - माल्यग्रथन विकल्पाः 
१५ - शेखरकापीडयोजनं 
१६ - नेपथ्यप्रयोगाः 
१७ - कर्णपत्त्र भङ्गाः 
१८ - गन्धयुक्तिः 
१९ - भूषणयोजनं 
२० - ऐन्द्रजालाः 
२१ - कौचुमाराश्च 
२२ -  हस्तलाघवं 
२३ - विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया 
२४ - पानकरसरागासवयोजनं 
२५ - सूचीवानकर्माणि 
२६ - सूत्रक्रीडा 
२७ - वीणाडमरुकवाद्यानि 
२८ - प्रहेलिका 
२९ - प्रतिमाला 
३० - दुर्वाचकयोगाः
३१ - पुस्तकवाचनं 
३२ - नाटकाख्यायिकादर्शनं 
३३ - काव्यसमस्यापूरणं 
३४ - पट्टिकावानवेत्रविकल्पाः 
३५ - तक्षकर्माणि 
३६ - तक्षणं 
३७ -  वास्तुविद्या 
३८ - रूप्यपरीक्षा 
३९ - धातुवादः 
४० - मणिरागाकरज्ञानं 
४१ - वृक्षायुर्वेदयोगाः 
४२ - मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः 
४३ - शुकसारिकाप्रलापनं 
४४ - उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशलं 
४५ - अक्षरमुष्तिकाकथनम् 
४६ - म्लेच्छितविकल्पा: 
४७ - देशभाषाविज्ञानं 
४८ - पुष्पशकटिका 
४९ - निमित्तज्ञानं 
५० - यन्त्रमातृका
५१ - धारणमातृका 
५२ - सम्पाठ्यं 
५३ - मानसी काव्यक्रिया 
५४ - अभिधानकोशः 
५५ - छन्दोज्ञानं
५६ - क्रियाकल्पः 
५७ - छलितकयोगाः 
५८ - वस्त्रगोपनानि 
५९ - द्यूतविशेषः 
६० - आकर्षक्रीडा 
६१ - बालक्रीडनकानि 
६२ - वैनयिकीनां 
६३ - वैजयिकीनां 
६४ - व्यायामिकीनां 
६५ - विद्यानां ज्ञानं इति चतुःषष्टिरङ्गविद्या. कामसूत्रावयविन्यः. ॥कामसूत्र १.३.१५ ॥
६४ कलाएँ 
१ - नृत्य – नाचना
२ - वाद्य- तरह-तरह के बाजे बजाना
३ - गायन विद्या – गायकी।
४ - नाट्य – तरह-तरह के हाव-भाव व अभिनय
५ - इंद्रजाल- जादूगरी
६ - नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना
७ - सुगंधित चीजें- इत्र, तेल आदि बनाना
८ - फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना
९ - बेताल आदि को वश में रखने की विद्या
१० - बच्चों के खेल
११ - विजय प्राप्त कराने वाली विद्या
१२ - मन्त्रविद्या
१३ - शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना
१४ - रत्नों को अलग-अलग प्रकार के आकारों में काटना
१५ - कई प्रकार के मातृका यन्त्र बनाना
१६ - सांकेतिक भाषा बनाना
१७ - जल को बांधना।
१८ - बेल-बूटे बनाना
१९ - चावल और फूलों से पूजा के उपहार की रचना करना। (देव पूजन या अन्य शुभ मौकों पर कई रंगों से रंगे चावल, जौ आदि चीजों और फूलों को तरह-तरह से सजाना)
२० - फूलों की सेज बनाना।
२१ - तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना – इस कला के जरिए तोता-मैना की तरह बोलना या उनको बोल सिखाए जाते हैं।
२२ - वृक्षों की चिकित्सा
२३ - भेड़, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति
२४ - उच्चाटन की विधि
२५ - घर आदि बनाने की कारीगरी
२६ - गलीचे, दरी आदि बनाना
२७ - बढ़ई की कारीगरी
२८ - पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना यानी आसन, कुर्सी, पलंग आदि को बेंत आदि चीजों से बनाना।
२९ - तरह-तरह खाने की चीजें बनाना यानी कई तरह सब्जी, रस, मीठे पकवान, कड़ी आदि बनाने की कला।
३० - हाथ की फूर्ती के काम
३१ - चाहे जैसा वेष धारण कर लेना
३२ - तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना
३३ - द्यू्त क्रीड़ा
३४ - समस्त छन्दों का ज्ञान
३५ - वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या
३६ - दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण
३७ - कपड़े और गहने बनाना
३८ - हार-माला आदि बनाना
३९ - विचित्र सिद्धियां दिखलाना यानी ऐसे मंत्रों का प्रयोग या फिर जड़ी-बुटियों को मिलाकर ऐसी चीजें या औषधि बनाना जिससे शत्रु कमजोर हो या नुकसान उठाए।
४० - कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना – स्त्रियों की चोटी पर सजाने के लिए गहनों का रूप देकर फूलों को गूंथना।
४१ - कठपुतली बनाना, नाचना
४२ - प्रतिमा आदि बनाना
४३ - पहेलियां बूझना
४४ - सूई का काम यानी कपड़ों की सिलाई, रफू, कसीदाकारी व मोजे, बनियान या कच्छे बुनना।
४५  – बालों की सफाई का कौशल
४६ - मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना
४७ - कई देशों की भाषा का ज्ञान
४८  - मलेच्छ-काव्यों का समझ लेना – ऐसे संकेतों को लिखने व समझने की कला जो उसे जानने वाला ही समझ सके।
४९  - सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा
५०  - सोना-चांदी आदि बना लेना
५१  - मणियों के रंग को पहचानना
५२ - खानों की पहचान
५३ - चित्रकारी
५४ - दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना
५५ - शय्या-रचना
५६ - मणियों की फर्श बनाना यानी घर के फर्श के कुछ हिस्से में मोती, रत्नों से जड़ना।
५७ - कूटनीति
५८ - ग्रंथों को पढ़ाने की चातुराई
५९ - नई-नई बातें निकालना
६० - समस्यापूर्ति करना
६१ - समस्त कोशों का ज्ञान
६२ - मन में कटक रचना करना यानी किसी श्लोक आदि में छूटे पद या चरण को मन से पूरा करना।
६३ -छल से काम निकालना
६४ - कानों के पत्तों की रचना करना यानी शंख, हाथीदांत सहित कई तरह के कान के गहने तैयार करना।
सच तो यह है भगवान श्री कृष्ण परमात्मा है यह ६४ कलाएँ क्या वह तो ईश्वर हैं सम्पूर्ण हैं, सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापी हैं, पालनहारी और बहुत दयालु हैं।

कृष्ण-प्रज्ञा

प्रतिष्ठा में-
माननीय श्री / सुश्री/श्रीमती ....................................................
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सविनय निवेदन है कि-

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका के प्रवेशांक को अपने आशीर्वचन से सिंचित कर इसके अंकुरण, पल्लवन में सहायक हों। कृष्ण-राधा भावधारा की वैश्विक पत्रिका कृष्ण प्रज्ञा का प्रवेशांक आपके अमृतमय सचित्र संदेश से समृद्ध होकर सुहृद पाठकों के ह्रदयों में रसानंद का संचार करेगा।  

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका का प्रकाशन आनंदकंद श्रीकृष्ण एवं श्री राधा के लीला-प्रसंगों, भक्ति-धारा, लोक-कल्याण, दर्शन-चिंतन, जीवन मूल्य, रीति-नीति तथा त्याग-बलिदान आदि पर नवोन्मेषित दृष्टिपात हेतु वैश्विक धरातल पर आरंभ किया जा रहा है। 

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका में देश-विदेश के कवि, लेखक, समीक्षक, चिंतक, दार्शनिक, चित्रकार, लोकसेवक, राजनेता आदि अपनी श्रेष्ठ सृजन सामर्थ्य के माध्यम से पाठकों-श्रोताओं को कृष्ण-चिंतन धारा में अवगाहन कराएँगे। 

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका के हर पृष्ठ और हर रचना में नवता, ऋजुता, मौलिकता, चिंतनपरकता तथा सृजनत्मकता प्रधान स्वर होगा ताकि पाठक की मानसिक तनाव से मुक्ति और  रसानंद से युक्ति हो सके। 

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका का अध्ययन मात्र पर्याप्त नहीं होगा, रचनाओं में अन्तर्निहित सकारात्मक विचार मानव मन को नव स्फूर्ति, प्रेरणा तथा उत्साह देकर नव सृजन हेतु प्रेरित करेंगे। 

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका किसी राजनैतिक दल / विचारधारा विशेष के समीप या दूर नहीं है। यह विशुद्ध लीलावतार कृष्ण-राधा के अवतरण, संघर्ष, अवदान तथा भविष्य निर्माण की आधार भूमि होने की संभावना पर केंद्रित है। 

कृष्ण-प्रज्ञा पत्रिका में लेखन हेतु सस्नेह आमंत्रण है उन सभी को जिन्हें वेणु के स्वर भाते हैं, मयूर पंख के रंग लुभाते हैं, गोवत्स भाते हैं, नृत्य-गान लुभाते हैं, जो सतत दृढ़ संकल्प कर बाधाओं पर जय पाते हैं, नवाशा के अंकुर उपजाते हैं और सफलता का श्रेय सबको देकर लोक मंगलमयी रास रचाते हैं। 

आपके अमूल्य सहयोग की प्रत्याशा में 

 संपादक मंडल  

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