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गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

दोहा, चैत्र, नदी काव्य, क्षणिका, मुक्तक,

दोहे
*
चेत सके चित् चैत में, साँस-साँस सत् साथ।
कहे हाथ से हाथ मिल, जिओ उठाकर माथ।।
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हम नंदन वैशाख के, पके न; आया चैत।
द्वैत हृदय में बसाए, जिह्वा पर अद्वैत।।
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महुआ महुआ के तले, मोहे गंध बिखेर।
ढाई आखर बाँचती, नैन मूँद अंधेर।।
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चैती देख पलाश को, तन-मन रही निसार।
क्रुद्ध-तप्त सूरज जला, बरसाता अंगार।।
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ज्यों की त्यों चादर धरी, हुए कबीरा खेत।
बन कमाल खलिहान ने, चादर धरी समेट।।
*
कल तक मालामाल थे, आज खेत कंगाल।
कल खाली खलिहान थे, अब हैं मालामाल।।
*
बूँद पसीने की गिरी, भू पर उपजी बाल।
देख फसल खलिहान में, मिहनत हुई निहाल।।
*
७-४-२०२२
***
नदी काव्य
*
स्वर्ण रेखा!
अब न हो निराश,
रही तट पर गूँज
आप आ गीता।

काश,
फिर मंगल
कर सके जंगल,
पा पुन: सीता।

अवध
और रजक
गँवा निष्ठा सत
मलिन कर सरयू
गँवा देते राम।

नदी मैया है
जमुन जल राधा,
काट भव बाधा
कान्ह को कर कृष्ण
युग बदलता है।

बीन कर कचरा
रोप पौधा एक
बना उसको वृक्ष
उगा फिर सूरज
हो न जो बीता।
सुन-सुना गीता।।

स्वर्ण रेखा = एक नदी
***
एक रचना
बीस साल में जेल है, दो दिन में है बेल.
पकड़ो-छोड़ो में हुआ, चोर-पुलिस का खेल.
चोर-पुलिस का खेल, पंगु है न्याय व्यवस्था,
लाभ मिले शक का, सुधरे किस तरह अवस्था?
कहे सलिल कविराय, छूटता क्यों रईस है?
मारे-कुचले फिर भी नायक?, टीस यही है
७-४-२०१८
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क्षणिकाएँ...
*
कर पाता दिल
अगर वंदना
तो न टूटता
यह तय है।
*
निंदा करना
बहुत सरल है,
समाधान ही
मुश्किल है।
*
असंतोष-कुंठा
कब उपजे?
बूझे कारण कौन?
'सलिल' सियासत स्वार्थ साधती
जनगण रहता मौन।
*
मैं हूँ अदना
शब्द-सिपाही।
अर्थ सहित दें
शब्द गवाही।
*
मुक्तक 
दोस्तों की आजमाइश क्यों करें?
मौत से पहले ही बोलो क्यों मरें..
नाम के ही हैं. मगर हैं साथ जो-
'सलिल' उनके बिन अकेले क्यों रहें?
***
दिल लगाकर दिल्लगी हमने न की।
दिल जलाकर बंदगी तुमने न की।
दिल दिया ना दिला लिया, बस बात की-
दिल दुखाया सबने हमने उफ़ न की।।
७-४-२०१०
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