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मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

कवितायेँ, ब्रह्म और आत्मा, ब्रह्मचर्य, कायस्थ, चित्रगुप्त, चमन श्रीवास्तव

कृति समालोचना -
"भारत में १५ करोड़ कायस्थों का महापरिवार" - मानवता का सिपहसालार 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
संयोजक : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, विश्व कायस्थ समाज 
पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अभाकाम, पूर्व महामंत्री राकाम
चैयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर  
[कृति विवरण: भारत में १५ करोड़ कायस्थों का महापरिवार, लेखक - सर्वेश्वर चमन श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०२२, आकार - २४ से.मी. x १८.५ से.मी., पृष्ठ १५४, मूल्य - अमूल्य, आवरण - बहुरंगी, पेपरबैक लेमिनेटेड, संदर्भ प्रकाशन भोपाल]
*
मानव सभ्यता और संस्कृति में शब्द, भाषा, पटल, कलम, स्याही और लिपि का योगदान अभूतपूर्व है। सच कहें तो इनके बिना मानव जाति जीवित तो होती पर अन्य पशु-पक्षियों की तरह। ग़ालिब कहता है -'आदमी को मयस्सर नहीं इंसां होना', मेरा मानना है कि आदमी को इंसान बनाने के महायात्रा में 'काया' में अवस्थित  निराकार 'चित'  जिसका चित्र गुप्त है, जो निराकार है, जो हर आकार में समाहित है, उस परमब्रह्म परमेश्वर, कर्मेश्वर, गुप्तेश्वर की ही प्रेरणा है जिसने खुदको उसका अंशज -वंशज माननेवाले ''कायस्थ'' विशेषण को अपनी पहचान बनानेवाले श्रेष्ठ मनुष्यों को उक्त षड उपहारों शब्द, भाषा, पटल, कलम, स्याही और लिपि से अलंकृत किया। 'शब्द ब्रह्म' सबका, सबके लिए है, इसलिए शब्द-साधना कर निपुणता अर्जित करनेवाले 'कायस्थ' अपना उपास्य शब्देश्वर सर्वेश्वर चित्रगुप्त तथा उनकी आदिभौतिक एवं आधिदैविक शक्तियों (नंदिनी और इरावती) को मानें, यह स्वाभाविक ही है। अपनी इष्ट देव मूर्तियों तथा अपने पूर्वजों को जानकर, उनकी विरासत को सम्हालकर, अपनी भावी पीढ़ी को प्रगतिपथ पर बढ़ने की प्रेरणा देने के पवित्र उद्देश्य से इस कृति का प्रयत्न लेखक चमन श्रीवास्तव ने पूरे मनोयोग से किया है। यह कोई साधारण पुस्तक नहीं है अपितु यह लेखा-जोखा है वेद पूर्व काल से अब तक आदमी के इंसान बनने की महायात्रा में औरों की अंगुली थामकर उन्हें आगे बढ़ानेवाली जातीय परंपरा का। 

संस्कृति सेतु कायस्थ   

पुस्तक में वर्णित श्री चित्रगुप्त जी निराकार परात्पर परमब्रह्म ही हैं। पुराणकार कहता है ''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहीनाम्'' अर्थात उन चित्रगुप्त को सबसे पहले प्रणाम जो सभी प्राणियों में आत्मा रूप में विराजमान हैं। लोकश्रुति है ''आत्मा सो परमात्मा'', उपनिषद ''अहं ब्रह्मास्मि'', ''शिवोsहं'' आदि  कहता है। हर काया में स्थित परब्रह्म चित्रगुप्त सृष्टि का सृजन कर सके  विस्तार हेतु साकार होते हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप में सृष्टि रचना-पालन और विनाश की भूमिकाएँ निभाते हैं। अंग्रेजी में कहावत है 'चाइल्ड इस द फादर ऑफ़  मैन' अर्थात ; बच्चा तो है बाप बाप का'। निराकार परब्रह्म चित्रगुप्त जी स्वयं अपने ही अंश 'ब्रह्मा' के माध्यम से साकार देहज अवतार धारण कर देव कन्या 'नंदिनी' और नाग कन्या 'इरावती' से विवाहकर विश्व का प्रथा अंतर्सांस्कृतिक विवाह कर ''वसुधैव कुटुम्बकम्'' तथा ''वसुधैव नीड़म्'' का जीवन सूत्र मनुष्य को देते हैं। काल क्रम में 'कश्यप' ऋषि, शारदा लिपि, कश्मीर प्रदेश और कैकेयी कायस्थों की कर्म कुशलता की कथा कहते हैं। आज से सहस्त्रब्दियों पूर्व कायस्थ भी कश्मीर से निष्क्रमित हुए थे। इतिहास खुद को दुहराता है, अब पंडितों का निष्क्रमण हम देख रहे हैं। चमन जी ने अतीत के म कुछ पन्नों को पलटा है, समूची महागाथा एक बार में, एक साथ कह पाना असंभव है। 

गत-आगत से आज का संवाद 

यह कृति गतागत का आज से संवाद का सुप्रयास है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं -''हम कौन थे?, क्या हो गए हैं?, और क्या होंगे अभी?, आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्याएँ सभी''। लेखन 'कौन थे? और 'क्या हो गए हैं?' में मध्य संवाद सेतु के रूप में इस कृति का प्रकाश कर रहे हैं। वे इसके दूसरे भाग के प्रकाशन का संकेत कर बताते हैं कि 'और क्या होंगे अभी?' की बात अगली कृति में होगी। स्पष्ट है कि यह पुस्तक 'विगत' और 'आगत' के मध्य स्थित 'वर्तमान' की करवट है। किसी ऐसे समाज जो अपनी ही नहीं अपने देश और अपने साथियों के साथ सकल सभ्यता का निर्माता, विकासकर्ता और पारिभाषिक रहा हो, के लिए निरंतर आत्मावलोकन तथा आत्मालोचन करना अपरिहार्य हो जाता है। जिला १९७६ में प्रातस्मरणीय ब्योहार राजेंद्र सिंह जी (कक्का जी) के मार्गदर्शन में जिला कायस्थ सभा से आरंभ कर प्रातस्मरणीय डॉ. रतनचन्द्र वर्मा के नेतृत्व में अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, प्रातस्मरणीय दादा लोकेश्वर नाथ जी की प्रेरणा से राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, वर्ल्ड कायस्थ कॉन्फ्रेंस आदि में सक्रिय रहकर मैंने यह जाना है कि बुद्धिजीवियों को एकत्र कर एकमत कर पाना मेंढकों को तौलने से अधिक कठिन कार्य है। ऐसा होना स्वाभाविक है 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना' यह भी सत्य है कि कठिन होने से कार्य असंभव नहीं हो जाता, कठिन को संभव बनाने के लिए स्नेह, समानता, सद्भाव, संकल्प और साहचर्य आवश्यक होता है। 

सुनहरा अवसर 

विवेच्य कृति का संयोजन भारत के १५ करोड़ से अधिक कायस्थों से जुड़ने का सद्प्रयास सचमुच सुनहरा अवसर है जब हम मत-मतान्तरों के चक्रव्यूह में अभिमन्यु तरह बलि का बकरा न बनकर, चक्रव्यूह भेदनकर, एक साथ मिलकर 'योग: कर्मसु कौशलम्' के पथ पर चलें। याद रखें अकेली अँगुली झुक जाती पर सभी अँगुलियाँ एक साथ मिलकर मुट्ठी बन जाएँ तो युग बदल सकती हैं। 'साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला तक जाएगा, सब मिल बोझ उठाना' की भावना हममें से हर एक में हो तो दुनिया की कोई भी ताकत हमारी राह नहीं रोक सकती। 'कायस्थ एक नज़र में' के अंतरगत अपने प्रेरणा पुरुषों का उल्लेख, हममें सहभागिता का भाव जगाता है कि ये सब हम सबके हैं, हम सब इनके हैं।कायस्थ महापुरुषों के सूची वास्तव में इतनी लंबी है कि सहस्त्रों पृष्ठ भी कम पड़ जाएँ इसलिए बतौर बानगी कुछ नामों का उल्लेख कर दिया जाता है। यह गौरवमयी विरासत आदिकाल से अब तक अक्षुण्ण है।     

'चमन' आबाद तब होगा, 'विनय' का भाव जब जागे 

'कायस्थ शब्द की व्युत्पत्ति एवं चित्रगुप्त भगवान का परिवार परिचय' शीर्षक अध्याय  मत-मतांतर को महत्व न देकर, नई पीढ़ी के सम्मुख सिलसिलेवार जानकारियाँ प्रस्तुत करने का प्रयास है। 'हरि अनंत हरि कथा अनंता, बहुविधि कहहिं-सुनहिं सब संता।'' चित्रगुप्त जी तो सकल सृष्टि जिसमें देव भी सम्मिलित हैं, के मूल हैं। उनकी कथाओं में विविधता होना स्वाभाविक है। प्रागट्य संबंधी अनेकता में एकता यह है कि वे कर्मेश्वर हैं, कर्म विधाता हैं, सबसे पहले पूज्य हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक असम से गुजरात तक कायस्थों की कर्मनैपुण्यता किस्सों में कही जाती है. विस्मय से सुनी जाती है पर इसके बाद भी शिखर पर कायस्थों की संख्या घटती जाती है इसका एक कारण यह है कि कायस्थ लोकतंत्र में 'लोक' की तरह एक जुट होकर 'तंत्र' को उपकरण बनाने की ओर अग्रसर नहीं हो सके। 

चमन आबाद तब होगा, विनय का भाव जब जागे
सभी आगे बढ़ेंगे तब, बढ़े एक-एक जब आगे
नहीं माँगा, न माँगेंगे कभी अनुदान हम साथी -
करें खुद को बुलंद इतना, ज़माना दान आ माँगे 

'कान्त सहाय' तभी होते जब होता भक्त 'सुबोध'  

'भगवान् चित्रगुप्त का स्तवन' शीर्षक अध्याय में विविध ग्रंथों से सकल प्राणियों के भाग्य विधाता चित्रगुप्त जी की वंदना के उद्धरण, प्रभु की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। वास्तव में गीता में 'कृष्ण जो अपने विषय में कहते हैं, वह सब चित्रगुप्त जी के लिए भी सत्य है। त्रेता में, कुरुक्षेत्र में कृष्ण 'कर्ता' थे, नियामक थे। जहाँ कृष्ण वहीं धर्म, जहाँ धर्म वहीं विजय। सभी युगों में, सभी स्थानों पर, सभी प्राणियों के लिए चित्रगुप्त जी एकमात्र करता है, नियामक हैं, भाग्य विधाता हैं इसलिए सकल दैवीय रूप चित्रगुप्त जी के हैं। सब साधनाएँ, सब वंदनाएँ, सब प्रार्थनाएँ चित्रगुप्त जी की ही हैं। विविध देव पर्वत हैं तो चित्रगुप्त जी हिमालय हैं। विविध देव नदियाँ हैं तो चित्रगुप्त जी महासागर हैं। वे सुरों-असुरों, यक्षों-गंधर्वों, भूत-प्रेतों, नर-वानरों, पशु-पक्षियों, जड़-चेतन, जन्मे-अजन्मे के कर्मदेवता हैं। इसीलिए वे सबके पूज्य और सब उनके अनुगामी हैं। किसी भी रूप की, किसी भी भाषा में, किसी भी भाव से, किसी भी छंद में स्तुति करें वह चित्रगुप्त जी की ही स्तुति हो जाती है, हम मानें या न मानें, कोई जाने या न जाने, इस सनातन सत्य पर आँच नहीं आती किन्तु चित्रगुप्त जी की कृपा के वही कर्मफल से मुक्त होता है जो अपना हर काम निष्काम भाव से उन्हें समर्पित कर करे। सबके कान्त (स्वामी)  चित्रगुप्त जी की कृपा पाने के लिए भक्त को सुबोध होना होता है।   

'कान्त सहाय' तभी होते जब, होता भक्त 'सुबोध' 
रावण सा विद्वान् मिट गया, हो स्वार्थी दुर्बोध 

सकल सृष्टि 'कायस्थ' है 

कायस्थों के इतिहास का सूक्ष्म उल्लेख 'कायस्थों के प्रकार' नामक अध्याय में है। हकीकत यह है कि सब कायाधारी कायस्थ हैं क्योंकि उनकी 'काया' में वह जो सबसे पहले पूज्य है, आत्मा रूप में स्थित है। यहाँ 'कायस्थ' शब्द से आशय मानव समाज से हैं जो इस तथ्य को जानता और मानता है। हैं तो शेष जन भी 'कायस्थ' किन्तु वे इस सत्य को या तो जानते नहीं या जानकर भी मानते नहीं। इसे इस तरह भी समझें कि कायस्थ ब्रह्म (सत्य) को जानकर पौरोहित्य, वैद्यक, शिक्षण कर्म करने के कारण ब्राह्मण, शासन-प्रशासन प्रमुख होने के नाते क्षत्रिय, विविध व्यवसाय करने में दक्ष होने के कारण वैश्य तथा सकल सृष्टि की सेवा कर दीनबंधु होने के नाते शूद्र हैं किन्तु उन्हें इन चरों में कोई समाज अपना 'अंश' या 'अंग' नहीं मान सकता क्योंकि वे 'अंश' नहीं 'पूर्ण' हैं। कायस्थ पंचम वर्ण नहीं अपितु चरों वर्णों का समन्वित समग्र विराट रूप हैं। कायस्थों के अंश ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य शूद्र ही नहीं बौद्ध, जैन, सिख, यवन आदि भी हैं इसीलिये दुनिया के किसी  पूजालय, पंथ, संप्रदाय, महापुरुष को कायस्थ नकारते नहीं, वे सबके सद्गुणों को स्वीकारते हैं और असदगुणों से दूर रहते हैं। 

सकल सृष्टि कायस्थ है, मान सके तो मान। 
भव बंधन तब ही कटे, जब हो सच्चा इंसान।।

कण कण प्रभु का लेख है, देख सके तो देख 

कायस्थों संबंधी शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि से पुरातत्व के ग्रंथ भरे पड़े हैं। उन अभिलेखों की एक झलक के माध्यम से नई पीढ़ी को गौरवमय अतीत से परिचित कराने का प्रशंसनीय प्रयास किया है चमन जी ने। समसामयिक व्यक्तित्वों के चित्र व जीवनियाँ नई पीढ़ी को अधिक विश्वसनीय तथा प्रामाणिक प्रतीत होती है क्योंकि अन्यत्र भी इसकी पुष्टि की जा सकती है। सारत:, ''भारत में १५ करोड़ से अधिक कायस्थों का महापरिवार'' ग्रंथ गागर में सागर' संहित करने का श्लाघ्य प्रयास है। ऐसे प्रयास हर जिले, हर शहर से हों तो अनगिन बिंदु मिलकर सिंधु बना सकेंगे। लंबे समय बाद कायस्थों की महत्ता प्रतपदित करने का यह गंभीर प्रयास सराहनीय है, प्रशंसनीय है। भाई चमन जी को इस सार्थक प्रस्तुति हेतु साधुवाद। 
***
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com   
     



कवितायेँ 
१. ब्रह्म और आत्मा
*
ब्रह्म विराजित है कण-कण में
मिली चेतना
कर्म कर सके।

कर्म करे वह
जो सुकर्म हो,
जो ले जाए
निकट ब्रह्म के।

काम-क्रोध-मद-लोभ आदि हैं
पाप-कर्म हैं त्याज्य सभी वे।
*
ढँका अविद्या ने, माया ने
शिशु है सुखी; अधिक अन्यों से।
करें लालसा तो दुःख पाएँ
है संतोष, न सुख यह मानें।

होता है आनंद आत्म को
सुख पाती है देह हमारी।
सुख है क्षणिक, नष्ट हो जाता
है आनंद अनश्वर जानो।
*
चाह हमारी है क्या जानें?
परमात्मा या जग मायामय?
प्रिय संसार' न छोड़ रहे हम,
और न जग ही हमें छोड़ता।

जग-जंजाल हमें प्रिय लगता
जग को प्रिय लगते क्या हम भी?
सुख को ही सर्वस्व मानते
भले क्षणिक, हम छोड़ न पाते।

रसानंद मिलता कविता से
ब्रह्मानंद सहोदर है यह।
शब्द-शब्द में अर्थ छिपा है
अर्थ-अर्थ प्रगटे आत्मा से।

परापरा, वैखरी, ब्रह्म भी, बसे शब्द में;
आत्मार्पित कर सकें अगर तो
पर्दे के पीछे माशूका
मिल पाए अपने आशिक़ से।

हैं विभूति सब परमेश्वर की।
देख न सकते चक्षु हमारे
दिव्य रूप जो परम् ब्रह्म का।
दिव्य दृष्टि जब मिल पाए तब
झलक लखे कान्हा की मीरा।

सद्गुरु बिन भटका करती मति
जग में होकर दुखी-अधीरा।
सुख मरीचिका सम भटकाता
मृग आत्मा भटका करती है।
११-४-२०२२
***
ब्रह्मचर्य
*
ब्रह्मचर्य का अर्थ नहीं है
देह परे हो सभी सुखों से।
ब्रह्मचर्य- चर्या स्वाभाविक 
होती जो निष्काम भाव रख। 

प्रभु को अर्पित, प्रभु करता जब 
तब न तनिक दूरी रहती है।
तब न आत्म यह संश्लिष्ट हो 
कर्मों का कुछ फल गहती है।

खुद से खुद मिल जाता है जब 
तब न आवरण रहता कोई, 
धरती शैया, दिशा वसन हों,  
अंबर होता निर्मल लोई। 

देख दिगंबर लगे न लज्जा 
तनिक न शेष वासना रहती। 
मानवात्म तन की प्रतीति तज
अवचेतन में प्रिय संग रहती। 
१२-४-२०२२ 
***
   

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