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बुधवार, 2 जून 2021

नवगीत पंकज परिमल

नवगीत
।।सब जीवित जन थे।।
पंकज परिमल
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ओ संजय!
क्यों कहते--
कितने मरे पक्ष के,
कितने प्रतिपक्षी थे,
पर सब जीवित जन थे
कुछ कछुए की ढालों से
सज्जित साधारण
मरे पदातिक होकर
जो अग्रिम पाँतों में
कुछ हाथी के हौदे पर
बैठे ही लुढ़के
कुछ घोड़ों की वल्गाएँ
थामे दाँतों में
रथी मरे
सारथी मरे
कुछ कुचल-पिचलकर
कुछ को मरने का भय था
कुछ शंकित मन थे
कितने शीश कटे
कितने कर
कितनी टाँगें
संजय!
अब तो छोड़ो
इस सब का विश्लेषण
पिघलेंगे कब
धृतराष्ट्रों के मन इस सब से
क्यों कह कथा-कहानी
करते रोम-प्रहर्षण
निज थे
पर थे
या घुन चक्की के पाटों के
अपने कम
निज तिय-बालक के
वे जीवन थे
मुँह से झाग छोड़ते
जो घोड़े लोटे थे
कभी न उठने के निमित्त
प्राणों को तजकर
उनने भी तो
गीता के उपदेश सुने थे
पर मरना था उनको
हर युद्धक क्षण जीकर
कितने बच्चे
अकस्मात् ही बड़े हो गए
कितने असमय बूढ़े-से
होते युवजन थे
धृतराष्टों से कहो
कि कितनी हैं विधवाएँ
जिनकी आँखों के आँसू तक
सूख गए हैं
जो खपच्चियों की कमान पर
तृण साधे थे
उन बच्चों के सभी निशाने
चूक गए हैं
भीमकाय तो
आशीषों की झड़ी लगाते
पर इस माटी के
मारक-घातक
कन-कन थे
यम को पथ दिखलाने को
कितने ही पुरजन
हाथों में अपने
यमदीपक ले फिरते थे
अब अकालमृत्यु से
उन्हें डर लग जाता है
जो जीवन भी
ज़्यादा जीने से डरते थे
रिपु या हितू मित्र की
हर पहचान मिटी है
कितने तपते जेठों की
आँखों सावन थे
01.06.2021
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