चिंतन : आप क्या सोचते हैं बताएँ.
प्रश्न: भारतीय बोलियाँ हिंदी का हिस्सा हैं या नहीं?
हिस्सा हैं तो अलग मान्य क्यों?,
हिस्सा नहीं हैं तो उनके साहित्यकारों को हिंदी का माना जाए या नहीं??
*
भारत की सभी बोलियाँ भाषाएँ हिंदी की बहनें हैं. विद्यापति भारत और हिंदी के भी हैं. आपस में फूट डालने का कार्य निंदनीय है. सूर को ब्रज, तुलसी को अवधी, जगनिक और ईसुरी को बुंदेली, चंद बरदाई को राजस्थानी, खुसरो-कबीर को उर्दू का कवि बताकर हिंदी को विपन्न करने की दुर्बुद्धि हमें कदापि स्वीकार्य नहीं है. हम हिंदीभाषी तो भारत की हर भाषा और बोली के हर रचनाकार को अपनाते हैं. हिंदी महासागर है. होना तो यह चाहिए कि हर भाषा बोली के सामान्य प्रयोग में आनेवाले शब्द हिंदी शब्दकोष में उसी तरह सम्मिलित किये जाएँ जैसे अंग्रेजी विश्व की विविध भाषाओँ के शब्द लेती है. भारत की सब भाषाओँ केबहु उपयोगी शब्दों से समृद्ध हिंदी उन्हें तभी अपनी लगेगी जब हिंदी में वे अपने शब्द भी पायेंगे. आवश्यकता डॉ. प्रभाकर माचवे जैसे बहुभाषा-बोलीविद होने की है. सब एक-दुसरे की बोलीओं में लिखें. साहित्यकार को राजनीति में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है. सियासत सिया के सत से पूरी तरह दूर है. साहित्यकार शब्द-सेतु बनाकर ही सद्भावना-सेतु बना सकेगा.
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें