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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

कोविद विमर्श १

कोविद विमर्श १:
अभिशाप में वरदान
जटायु
*
ऐसा कोई दिया नहीं है  जिसके नीचे तम न पले
ऐसी आपद कोई नहीं है जिसमें से सुख नहीं फले

कोविंद के राज्य में कोविद का आना, दुनिया के समृद्ध और विकसित देशों की तुलना में  अपेक्षाकृत बहुत कम समृद्ध और विकसित देश भारत में कई गुना अधिक जनसंख्या, निम्न जीवन स्तर, न्यून चिकित्सकीय संसाधन होते हुई रोगियों और दिवंगतों की सबसे कम संख्या गोविन्द की कृपा ही है। कोविद, कोविंद और गोविन्द का नाता तो वही जाने, हमें तो बचपन में पढ़ी कविता याद आ रही है -

कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहकर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो इसमें कुछ व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को

इसलिए निराशा को दूर रखते हुए हम कुछ बिंदुओं का संकेत करेंगे जी भक्तों को सख्त नागवार गुजरेगा और हमें अपशब्दों से विभूषित करने में वे देर न करेंगे। शायद हमारे बड़ों को इस असहनशील संवर्ग के उद्भव की जानकारी पहले से ही थी इसलिए उनहोंने हमें 'तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा' की नीति बचपन से याद करा दी।

१ दिसंबर २०१९ को वुहान में पहले मरीज को कोरोना संक्रमण होने की पुष्टि होने के साथ महामारी ने पैर फ़ैलाने आरंभ कर दिए थे। दूरदर्शी भारत सरकार ने यह मानकर कि, बर्फीली हवाओं, सेना, घटिया सामान और स्मगलरों के अलावा चीन से भारत में कोई घुसपैठ नहीं कर सकता, अपने नयनपट बंद रखे। अंध भक्त चीनियों के खान-पान के वीडियो लगाते नहीं थक रहे थे। वक्तव्यवीर अहर्निश घोषणा कर रहे थे कि उनके परम तेजस्वी नेता हुए उनके सात्विक खाने-पीने (?) के कारण भारत में कोरोना का बाप भी नहीं आ सकता।

जनवरी में थाईलैंड (१३ जनवरी); जापान (१५ जनवरी); दक्षिण कोरिया (२० जनवरी); ताइवान और संयुक्त राज्य अमेरिका (२१ जनवरी); हांगकांग और मकाऊ २२ जनवरी); सिंगापुर (२३ जनवरी); फ्रांस, नेपाल और वियतनाम (२४ जनवरी); ऑस्ट्रेलिया और मलेशिया (२५ जनवरी); कनाडा (२६ जनवरी); कंबोडिया (२७ जनवरी); जर्मनी (२८ जनवरी); फिनलैंड, श्रीलंका और संयुक्त अरब अमीरात (२९ जनवरी); भारत, इटली और फिलीपींस (३०जनवरी); यूनाइटेड किंगडम, रूस, स्वीडन और स्पेन (३१ जनवरी) में कोरोना ने दस्तक दे दी। १ फरवरी तक विश्व  में १४,००० से अधिक मामले मिले। १ फरवरी को चीन से बाहर कोरोना ने पहली बली फिलीपींस में ली। क्या इसी समय भारत में सतर्कता बरतते हुए विदेशों से आ रहे सभी यात्रियों को सख्ती से १४ दिनी एकांतवास पर भेजकर सघन जाँच नहीं कराई जानी थीं? इस समय तक भारत में कोरोना ने पैर  नहीं पसारे थे। कहते हैं ''अग्र सोची सदा सुखी'', हमारा शासन-प्रश्न अग्रसोची इस समय हो गया होता तो भारत में कोरोना आ ही नहीं पाता। फरवरी में  चीन में हाहाकार मचा हुआ था, लोक डाउन आरंभ कर दिया गया था। भारतीय मीडिया सनसनीख़ेज दृश्य चटखारे ले-लेकर परोस रहा था। 

कहाँ हुई चूक ? 

भारत सरकार ने आरंभिक जद्दोजहद के बाद सराहनीय पहल करते हुए चीन से भारतीयों को निकाला। जापान, भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका, जर्मनी और थाईलैंड अपने नागरिकों की निकासी की योजना बनाने वाले पहले देशों में से थे। पाकिस्तान ने चीन से किसी नागरिक को नहीं निकाला। लाये गए नागरिकों को संगरोध (क्वारंटाइन) किया गया। यही समय था जब सब हवाई अड्डे सील कर आनेवाले सब यात्रियों को संगरोध के बाद छोड़ा जाना था किंतु केवल तापमान जाँच कर यात्रियों को छोड़ा जाता रहा। तब्लीगी जमाती भारत में एकाएक नहीं प्रगट हुए। वे विधिवत वीसा लेकर आये, प्रशासन को एक-एक की जानकारी थी कि किस देश से आये, कहाँ गए? कोरोना संक्रमण फैलने की खबर के साथ ही इन पर नज़र रखकर इन्हें बाहर भेजने का कदम उठाया जाता तो बाद में जो  विकराल  समस्या खड़ी हुई वह नहीं हो पाती। शासन-प्रशासन ही नहीं विपक्षी दल और खबरनवीस भी असफल सिद्ध हुआ। जिम्मेदारी सबकी होती है। लेकिन दुर्भाग्य से राजनैतिक नेताओं के व्यक्तिगत संबंध मधुर नाहने हैं और पत्रकार इस या उस खेमे में बँटकर गला फाड़ने को पत्रकारिता मान बैठे हैं। ये दोनों चूकें बहुत भारी पड़ीं। 

मार्च में ११ कर्णाटक, १३ दिल्ली, १७ महाराष्ट्र, १९ पंजाब में कोरोना से हुई मौतें खतरे की घंटी थी। इसी समय लोकडाउन योजना पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना था। इसके लिए हर शहर में बाहर से आये श्रमिकों और छोटे व्यापारियों की संख्या का अनुमान कर उन्हें लौटने के लिए समयावधि दी जानी थी। इस समय तक कोरोना ने भारत में पैर नहीं पसारे थे। समयबद्ध तरीके से बेरोजगार होनेवाले लोग अपने घरों को लौट सकते तो बाद में लाखों मजदूरों के एकत्र होने जैसी समस्या नहीं खड़ी होती। सबसे बड़े राजनैतिक दल और सबसे अधिक स्वयं सेवकों वाले संगठन की इस समय उदासीनता देश को भरी पड़ी। किसी मजदूर संगठन ने भी पूर्वानुमान कर अपने सदस्यों को घर लौटने या बेरोजगारी के समय हेतु साधन जुटाने की सलाह नहीं दी। 

तालाबंदी एकाएक और विलंब से?

इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि प्राथमिकता मध्य प्रदेश में चुनाव बाद बनी सरकार को पलटने को दी गयी. कोरोना से निबटने की बारी उसके बाद आयी। क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि मध्य प्रदेश में २४ मार्च को नए मुख्यमंत्री ने शपथ ली और २५ मार्च की रात १२ बजे से २१ दिनों के लिए तालाबंदी (लोक डाउन) घोषित की गयी।
इसके पूर्व २२ मार्च को जनता कर्फ्यू घोषित किया गया था। क्या तभी तालाबंदी नहीं की जा सकती थी जबकि तब तक भारत में कोविड-१९ के पॉजिटिव मामलों की संख्या लगभग ५०० थी यहाँ कुछ प्रश्न उठते हैं - १. क्या सरकार बदलने के लिए तालाबंदी देर से  की गयी? या २. यदि २४ को भी सरकार नहीं बदलती तो तालाबंदी तब भी न की जाती? ३. यदि सरकार पहले ही गिर जाती तो तालाबंदी पहले कर दी जाती? 

इन प्रश्नों की अनदेखी भी की जाए तो तालाबंदी करने के तरीके पर चर्चा की ही जानी चाहिए। यह एक ऐसा निर्णय था जिससे सवा अरब देशवासियों की ज़िंदगी प्रभावित होनी थी। क्या इसके पूर्व पर्याप्त अध्ययन और तैयारी थी? क्या इसका संकेत या सुचना कम से कम राज्य सरकारों को नहीं दी जा सकती थी। सैन्य और अर्ध सैन्य बलों, पुलिस आदि को पूर्व सुचना से वे भौंचक न रह जाते और पहले से कुछ तैयारी कर पाते। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नोटबंदी के एकाएक निर्णय से जन सामान्य को हुई भारी असुविधा से कोई सबक नहीं लिया गया और एक बार फिर आम लोगों को उससे भी अधिक असुविधा में धकेल दिया गया। सरकारों की रूचि इस बात में नहीं थी कि लोग अपने-अपने गाँवों में पहुँच सकें, इस बात में थी कि चीन्ह-चीन्ह कर रेवड़ी (सहायता राशि और सामग्री) बांटी जाए। किसी लोकतंत्र के लिए इससे अधिक दुर्भाग्य की बात नहीं हो सकती कि नागरिकों को अधिकतम परावलंबी बनने को प्रत्साहित किया जाए, यह जानने के बाद भी की सरकारी मशीनरी, व्यापारी और कुछ नागरिक भी ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कालाबाजारी करते हैं। परिणाम यह हुआ कि बेरोजगार, भुखमरी से परेशांन लाखों नागरिक गाँवों की ओर जाने को विवश हुए, कोढ़ में खाज यह कि यातायात के साधन रेल और बसें भी बंद थीं। इसने सरकार की तालाबंदी को ही खतरे में दाल दिया और थूक कर चाटने की तरह सरकार को बसों की व्यवस्था करने ही पड़ी। 

यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक और प्रधानमंत्री सबसे सहयोग का अनुरोध करते हैं, विपक्षी दल और नागरिक सकारात्मक प्रतिक्रिया भी देते हैं किंतु अंध भक्त सामाजिक माध्यमों पर निरंतर अपमानजनक भाषा और आपत्तिजनक आक्षेप लगते हैं जिन्हें रोकने का कोई प्रयास किसी स्तर पर नहीं किया जाता। यह एक सोची-विचारी दल नीति प्रतीत होती है क्योंकि ऐसा करने वाले किसी भक्त को कभी कोई दंड नहीं दिया जाता।  
शाहीन बाग़

दिल्ली में शाहीन बाग़ के आंदोलन को जिस तरीके से निबटाया गया वह भी कई प्रश्न खड़े करता है। पहले तो उसे पहले दिन ही समाप्त किया जा सकता था। अमरीकी राष्ट्रपति के आगमन के पहले भी उसे हटाया जा सकता था किन्तु उसे २३ मार्च को ही हटाया गया। इसे चलने देने के पीछे एक ही उद्देश्य हो सकता था की इस वजह से अन्य मुद्दे दब गए। भगोड़ों को लाने, विदेश में जमा काला धन, पाकिस्तान की कैद में भारतीय नागरिक  कुलभूषण आदि जिन मुद्दों पर सरकार असफल रही या बढ़ती मँहगाई, घटते रोजगार, गिरती अर्थ व्यवस्था आदि सब पृष्ठ भूमि में चला गया। शाहीन बाग़ आंदोलन दिसंबर से मार्च तक शाहीन बाग़ आंदोलन ने कोरोना प्रसार में क्या और कितनी भूमिका निभाई? उसे इतने दिनों तक क्यों चलने दिया गया बावजूद इसके कि सर्वोच्च न्यायालय का रुख आंदोलन के विरोध में एकदम स्पष्ट था।

तबलीग़ / जमात  / मजलिस

तब्लीग  में हजारों लोग कब एकत्र हुए? दैनंदिन प्रशासन में  एल. आई. बी., सी. बी. आई., स्थानीय पुलिस आदि के मुखबिर निरंतर सक्रिय रहते हैं। दिल्ली की पुलिस व्यवस्था केंद्र सरकार के अधीन है। यह सारा गुप्तचर तंत्र शाहीन बाग़ प्रकरण, दिल्ली दंगे, तब्लीगियों की कोई पूर्व सूचना नहीं जुटा सका तो निकम्मे अधिकारीयों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए किन्तु ऐसा हो नहीं सकता। किसी भी शासकीय विभाग में  कुछ अधिकारी / कर्मचारी निकम्मे हैं पूरा विभाग नहीं। तब गुप्तचर विभागों द्वारा जुटाई गयी सूचनाएँ शासन-प्रशासन तंत्र में कहाँ रुकीं, इन पर यथासमय यथोचित कार्यवाही क्यों न हो सकी, इस पर कदम उठाये ही जाना चाहिए। विदेश तब्लीगी पासपोर्ट पर आये थे। ये नियत समय पर थानों में सूचना देने हेतु बाध्य थे, इनकी जानकारी पुलिस और विदेश मंत्रालय को थी। क्या कारन था की इन्हें जनवरी-फरवरी में ही उनके देशों को नहीं भेजा गया? और अब वे समस्या बन गए, उन्हें खोजना और इलाज कराना बहुत जटिल और खर्चीला काम है। इसका दोषी कौन है?

स्थानीय तब्लीगी भी एकाएक रातों-रात नहीं पहुँचे थे। कोरोना दिसंबर से फ़ैल रहा था। जनवरी में ही तब्लीग़ियों को रोका क्यों नहीं गया? क्या सरकार भयभीत थी? या इन्हें जान-बूझकर आने दिया गया? अब तब्लीग़ियों की संख्या का अनुमान दस हजार के आसपास तक लगाया जा रहा है। इतने लोगों के खाने-पीने का सामान रोज ही जाता रहा था, पुलिस को पता कैसे नहीं चला? केंद्र सरकार के प्रशासन की नाक के नीचे शाहीन बाग़, दिल्ली दंगे और तब्लीगी जमात जैसे प्रकरण होना उसकी सक्षमता और नीयत दोनों को प्रश्नों के घेरे में लाती है? क्या प्रशासन पर शासन की पकड़ या पारस्परिक तालमेल गड़बड़ है या नीति के रूप में ऐसा होने दिया जा रहा है? सचाई जो भी हो चिंतनीय और दुर्भाग्यपूर्ण है। हर नागरिक को देश के विषय में चिंता करनी चाहिए। यह उसका कर्तव्य भी है और अधिकार भी। ऐसे समय में जब पत्रकार जगत निष्पक्ष न रह गया हो, यह और अधिक आवश्यक है। प्रश्न उठाने को असहमति नहीं माना जाना चाहिए। आपके साथ खड़े, आपका हाथ बनता रहे लोग भी प्रश्न पूछ सकते हैं। उन्हें समुचित उत्तर हुए जानकारी दी जानी चाहिए, न दी जा सके तो तदनुसार सूचित किया जाना चाहिए। इन प्रश्नों का सबसे अधिक लाभ भविष्य में लिया जा सकता है। किसी आपदा के समय इन प्रश्नों के प्रकाश में बेहतर तैयारी की जा सकती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि स्थिति सामान्य होने तक हर प्रश्नकर्ता पूरी ईमानदारी से सरकार के साथ कदम से कदम मिलाकर खड़ा रहेगा और स्थिति सामान्य होने पर सरकार भी पूरी ईमानदारी से उत्तर देगी और यह भी कि महामाननीय भक्तगण प्रश्नकर्ताओं के प्रति सम्मन न दिखा सकें तो कम से कम मौन रहेंगे, उत्तेजित होकर अपनी ही सर्कार को असुविधा में न डालेंगे जैसे घाटी बजने के समय सड़कों पर आकर और दिया जलाने के समय पटाखे फोड़कर कर किया।
                                                                                                                                                                                      - क्रमश:

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