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सोमवार, 27 अप्रैल 2020

कोविद विमर्श : ३ कोविद का समाजवाद

कोविद विमर्श : ३ 
कोविद  का समाजवाद और स्वर्णावसर 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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'कोविद' जोड़ें नाम संग, बढ़ता था सम्मान 
अब कोविद के नाम से, निकल रही है जान 
नयी पीढ़ी शायद ही जानती हो कि कोविद एक परीक्षा है जिसे उत्तीर्ण करना ही योग्यता का परिचायक है। इसलिए कई व्यक्ति अपने नाम के साथ कोविद उसी तरह लिखते थे जैसे स्व. लालबहादुर शास्त्री जी शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद 'शास्त्री' लिखने लगे थे। इस काल में जब प्रश्न पत्र खरीदने, नकल करने, अपने स्थान पर अन्य से उत्तर लिखने, मूल्यांकन में हेर-फेर और अंत में व्यापम मध्य प्रदेश की तरह लाखों रुपयों में मेडिकल सीटों का सौदा खुले-आम हो ही नहीं रहा, किसी अपराधी का बाल भी बाँका नहीं हो रहा हो तब परीक्षा किसी महामारी से कम नहीं। इस काल में कौन हिम्मत करेगा किसी उपाधि को नाम के साथ जोड़ने की? अन्य उपाधियों की तरह कोविद भ्रष्टाचार महामारी की शिकार न हुई तो उसके नाम की महामारी ही आ गई। बात आने तक ही सीमित होती तो भी गनीमत होती, वह तो आने के साथ ही पूरी दुनिया पर छा भी गयी और छाई भी इस तरह कि अच्छे-अच्छों की नींद उड़ा गई।  जिन तीसमार खानों ने कोविद को हल्के में लेने की भूल की उनके देशवासियों को तो भारी कीमत चुकानी ही पड़ी, सरकारों को भी पसीना आ गया, खुद सत्ताधारियों, धनपतियों और बाहुबलियों को अस्पतालों की शरण लेकर अपनी जान बचानी पड़ी।  नाज़ो-अदा की नुमाइश कर काम और दाम कमानेवालियाँ भी बच नहीं सकीं, और तो और अपने मंत्र-तंत्र, कर्म-काण्ड और आडंबरों से पतितों को तारने और पापियों को मारने का दवा करनेवाले धर्माचार्य भी कोरोना के आगे नतमस्तक हुए बिना बच नहीं सके। सकल सृष्टि के नियामक, पाक परवरदिगार और आलमाइटी सबके उपासनास्थलों में ताले पड़ गए। ऐसा तो किसी काल में कोई राक्षसराज भी नहीं कर सका। 

कोविद का समाजवाद

कोविद के प्रकोप से हो रही जनहानि और धनहानि ने प्रशासन तंत्र और धन कुबेरों की नींद उड़ा दी है। आप आदमी को रोजी के बिना रोटी के लाले पड़े हैं। सरकार असरकार सिद्ध नहीं हो पा रही। मुखौटों के पीछे छिपी सच्चाइयाँ सामने आ रही हैं। सर्वाधिक उन्नत देशों का घमंड चूर-चूर हो गया है। सबसे अच्छी चिकित्सा व्यवस्थाएँ ताश के महलों की तरह ध्वस्त हो गयी हैं। कहावत है "घूरे के दिन बदलते हैं"। कोरोना ने इस कहावत को सौ टका खरा सिद्ध कर दिया है। 

अपनी तानाशाही से तिब्बत को मिटा चुके और अधिनायकवादी रवैये से सारी दुनिया को परेशान कर रहे चीन को कोरोना ने आरंभ में ही 'चारों खाने चित्त' कर दिया। तथाकथित सर्वशक्तिमान अमेरिका के दंभी राष्ट्र अध्यक्ष के उन्नत 'शीश को झुकाने' में कोरोना ने देर नहीं की। पेट्रोलियम के पैसों पर गगनचुम्बी मीनारें खड़ी कर इतराते देशों को कोरोना ने 'घुटनों के बल' ला दिया। इटली, जर्मनी, ईरान, इराक, रूस, जापान, ऑस्ट्रलिया कोई भी कोरोना के घातक वार से बच नहीं सका। यह सिद्ध हो गया कि 'चमकनेवाली हर वस्तु सोना नहीं होती', यह भी कि 'सब दिन जात न एक समान'। कोरोना को हल्के से लेने की कीमत इंग्लैण्ड के प्रधान मंत्री को चुकानी पड़ी, गनीमत यह कि 'समय पर चेतने' के कारण रेल पूरी तरह 'पटरी से उतरी' नहीं। हमारे नादान पडोसी पकिस्तान ने कोरोनाग्रस्त चीन से अपने नागरिकों को न बुलाकर अपना 'दम-खम दिखाना' चाहा पर यह दाँव काम नहीं आया। कोरोना ने सच्चे समाजवादी की तरह तमाम काम का काम तमाम कर दिया। 

समरथ को ही दोष गुसाईं

कोविद ने सबके साथ  समानता का व्यवहार भी नहीं किया अपितु एक कदम आगे बढ़कर कौन कितनी चोट सहन कर सकता है, उस पर उतनी ही चोट करने की नीति अपनाई। तुलसी बब्बा भले ही लिख गए हों  'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' कोविद ने इसे उचित नहीं माना और 'समरथ को ही दोष गुसाईं' का नया सिद्धांत न केवल खोजा अपितु क्रियान्वित कर दिया। कोविद ने चुन-चुन कर पहलवानों को अखाड़े में नहीं बुलाया अपितु चुन-चुन कर पहलवानों के अखाड़े जाकर उन्हें चित्त कर दिया। हमने बचपन में एक कविता 'नागपंचमी'पढ़ी थी जिसमें पहलवानों के मल्ल युद्ध का सजीव चित्रण था। कुछ पंक्तियाँ  देखें -
यह पहलवान अम्बाले का
वह पहलवान पटियाले का 
ये दोनों दूर विदेशों से 
लड़ आये हैं परदेशों में 
उतरेंगे आज अखाड़े में 
चंदन चाचा के बाड़े में....

कोरोना के काल में यह कविता कुछ इस तरह लिखी जायेगी-

यह पहलवान जो बीजिंग का 
जोकर निकला गिरकर रिंग का 
वह पहलवान डॉलरवाला
उसका निकला है दीवाला 
यह इटलीवाला चित्त हुआ 
जर्मनवाले को पित्त हुआ    
जापानी खस्ताहाल गिरा 
अरबी ईरानी आप गिरा 
सुध-बुध भूला पाकिस्तानी 
मैदां मारे हिंदुस्तानी 

यहाँ नहीं है कोई किसी का 

अब तक दुनिया के समर्थदेश सामान्य परिस्थिति और मुश्किल हालत दोनों में अपनी चौधराहट दिखाते हुए अपेक्षाकृत कमजोर देशों को इस या उस खेमे में जाने को मजबूर करते थे, और संकट के समय उनके साथ खड़े होने का दावा करते थे। कोविद ने ऐसे सब संगठनों को 'मिट्टी का माधो' सिद्ध कर दिया। सीटों, नाटो आदि का कोई अस्तित्व शेष नहीं बचा।  संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान का सच्चा दोस्त करनेवाला चीन कोविद-काल में पाकिस्तानी नागरिकों की रक्षा नहीं कर सका, नहीं उन्हें सुरक्षित पाकिस्तान भेजने का प्रयास किया।

पश्चिमी देशों की सरकारें और उनकी तथाकथित श्रेष्ठ चिकित्सा व्यवस्था नाकाफी और नाकाबिल साबित हुई। नेता सामने आने की हिम्मत नहीं जुटा सके। यहाँ तक कि वे अपने नागरिकों को समय पूर्व चेतावनी देने, सुरक्षात्मक उपाय अपनाने और उपलब्ध संसाधनों का योजनापूर्वक सीमित प्रयोग करने के लिए सहमत तक नहीं करा सके। जनवरी में जब कोविद प्रारंभिक चरण में था अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों के नागरिक अपनी सरकारों के प्रतिबंधात्मक आदेशों की खुलेआम धज्जिया उड़ाते और मजाक बनाते देखे गए। जल्दी ही उन्हें इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पडी किन्तु यह जग जाहिर हो गया कि सुशिक्षित नागरिक समझदार नहीं हैं और समृद्ध सरकारें असरदार नहीं है। व्यक्तिवादी भोग प्रधान पाश्चात्य संस्कृति में पले-बढ़े लोग सीमित संसाधनों को जुटाने के जुगाड़ में लग गए। फलत: जिन्हें अधिक जरूरत उन तक संसाधन पहुँच ही नहीं सके। 

सबसे अधिक बुरी हालत इटली की हुई। सामान्यत: आपातकाल में कमजोरों की रक्षा पहले की जाती है। बच्चों, वृद्धों और महिलाओं को संसाधन उपलब्ध कराकर उन्हें पहले बचाया जाता है; उसके बाद युवाओं को किन्तु इसके सर्वथा विपरीत इटली में कमजोरों को लावारिस बिना समुचित चिकित्सा या देख-रेख के मरने दिया गया। हद तो यह हुई कि मृत्यु पश्चात् सम्मानजनक अंत्येष्टि संस्कार भी नहीं हो सका। एक-एक कब्र में एक साथ कई-कई लाशें दबाई गईं। पश्चिमी जीवन मूल्यों और सभ्यता का खोखलापन पूरी तरह उजागर हुई कि वासतव में 'यहाँ नहीं कोई किसी का। '  

सभी सुखी हों, सभी निरापद

भारत दुनिया के तमाम देशों से अपने नागरिकों को सुरक्षित लाने तक सीमित नहीं रहा, उसने अन्य देशों के नागरिकों को भी बचाया, उनकी चिकित्सा की और उन्हें उनके देशों को भेजा। भारत को अविकसित कहकर उसका मजाक उड़ानेवाले राष्ट्रपति ट्रंप को जल्दी ही भारतीय नेतृत्व की प्रशंसा करने को बाध्य होना पड़ा किंतु विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र के राष्ट्र अध्यक्ष होने के बाद भी वे यह नहीं समझ सके कि लोकतंत्र में 'लोक' से बड़ा कोई नहीं होता। लोक से नाता मजबूत न हो तो, नेता की कोई अहमियत नहीं रह जाती। यदि अमेरिका की जनता आरंभ में ही सरकार के प्रतिबंधात्मक आदेशों की पालन करती तो स्थिति इतनी अधिक जटिल नहीं होती। संभवत: अमेरिका में वर्तमान पीढ़ी ने पहली बार यह देखा कि उसे अपने हित में न केवल प्रतिबंध मानने चाहिए, विश्व हित के साथ भी खड़ा होना चाहिए।

भारत में सर्वार्थ के लिए स्वार्थ का त्याग विरासत और परंपरा दोनों है। प्राचीन भारत में वनवासी राम की पत्नी का हरण होने पर  पूरा भारत राम के साथ खड़ा था और रावण को मरकर सीता के वापिस आने तक  ही उनके साथ नहीं रहा अपितु राम को इष्ट देव बनाकर अमर कर दिया। असहाय पांडवों के साथ अन्याय होने पर कुरुक्षेत्र में उनकी विजय और बाद तक लोक पांडवों के साथ था। कंस और जरासंध जैसे सबल सत्तधीशों के साथ न अर्हकार लोक समय ग्वाले कृष्ण के साथ था। आधुनिक भारत की बात करें तो धोतीधारी गाँधी और  धोतीधारी सुभाष दोनों को लोक ने न केवल सहयोग दिया उनके हर आदेश को शिरोधार्य किया। भारत चीन युद्ध १९६२ के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री नेहरू के आह्वान पर हर नागरिक यहाँ तक की शालेय छात्रों ने भी सुरक्षा कोष में धन दिया। मैं तब प्राथमिक शाला का विद्यार्थी था, हर माह २ पैसे (तब इसका मूल्य आज को ५ रु. से अधिक था) दिया करता था।  भारत पाकिस्तान युद्ध के समय शास्त्री जी के आह्वान पर पूरा भारत सोमवार को एक समय उपवास करता था, इतने ही नहीं होटल आदि तक स्वेच्छा से बंद रहते थे। बांगला देश के उदय के समय सुरक्षा कोष के अलावा भारत की जनता ने शरणार्थी डाक टिकिट के माध्यम से अरबों रुपये सरकार को दिए। यह नैतिक बल भारतीय नेताओं की पूंजी रहा है। दुर्भाग्य से इस काल में विविध दलों के नेताओं में कटुता चरम पर होने के नाते जनता जो अधिकांश किसी न किसी दल से जुडी होती है, में सरकार की नीतियों और आदेशों का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है तथापि श्री मोदी के आह्वान पर सभी लोगों और दलों ने नोटबंदी और कोविद बंदी के समय शासनादेशों का पालन कर उनके मस्तक ऊंचा रखा है। राजनीति शास्त्र में उपयोगितावाद (यूटेलिटेरियनिस्म) में जेरेमी बेंथम प्रणीत एक सिद्धांत है 'अधिकतम का अधिकतम सुख' (मक्सिमम गुड़ ऑफ़ मैक्सिमम नंबर)।  भारत में इससे आगे 'सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय:' (सभी सुखी हों, सभी निरापद) की नीति मान्य है। इसी का पालन करते हुए भारत को विदेश नागरिकों को बचाने में खतरा उठाने या सीमित संसाधन खर्च करने में संकोच नहीं होता।  

स्वर्णावसर

यह स्पष्ट है कि कोविद ने भारतीय दर्शन, भारतीय परंपराओं और भारतीय लोक की श्रेष्ठता पूरे विश्व में स्थापित की है। यह एक स्वर्णावसर है, विश्व नेतृत्व पाने का। यह अवसर है भारतीय कर्मठता, कार्यकुशलता और उत्पादन सामर्थ्य को प्रमाणित करने का किन्तु यह न तो अपने आप होगा, न सरलता से होगा। क्या हम एक देश के नाते, एक समाज के नाते इस स्वर्णावसर का लाभ उठा सकेंगे? यह यक्ष प्रश्न है जो हमें बूझना है।
                                                                                                                                                                                                         क्रमश:
सम्पर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 

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