पुस्तक सलिला :
चाणक्य के दाँत : हवा के ताजा झोंके सी लघुकथाएँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण : चाणक्य के दाँत, लघुकथा संग्रह, कनल डॉ. गिरिजेश सक्सेना 'गिरीश', प्रथम संस्करण
२०१९, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १३६, मूल्य २०० रु., अपना प्रकाशन भोपाल ]
२०१९, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १३६, मूल्य २०० रु., अपना प्रकाशन भोपाल ]
मानव सभ्यता के विकास के आरंभ से 'कहने' की प्रवृत्ति ने विविध रूप धारण करने आरंभ कर दिए। लोक ने भाषा के विकास के साथ 'किस्से', 'कहानी', 'गल्प', 'गप्प' आदि के रूप में इन्हें पहचाना। लोक जीवन में चौपाल, पनघट, नुक्कड़ आदि ने 'लोक कथा' कहने की लोक परंपरा को सतत पुष्ट किया। मंदिरों ने 'कथा' को जन्म देकर विकसित किया। उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने पर्व-त्योहारों के अवसर पर जीवन पूलों और परंपराओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए 'पर्व कथाओं' का उपयोग किया। लिपि के विकास ने वाचिक कथा साहित्य को किताबी रूप दिया। नादान बालन को जीवन दृष्टि देने के लिए पंचतंत्र और हितोपदेश, गूढ़ सिद्धांतों को सहजता से समझाने के लिए 'जातक कथाएँ' और 'बेताल कथाएँ' , पर्यटन को प्रत्साहित करने के लिए घुमक्कड़ी वृत्ति संपन्न 'पर्यटन कथाएँ' (सिंदबाद की कहानियाँ आदि), मनोरंजन के लिए अलीबाबा के किस्से अदि अनेक रूपों में कहने-सुनने की परंपरा विकसित होती गयी। आधुनिक हिंदी (खड़ी बोली) के विकास और स्वतंत्रता के बाद साहित्य को वर्गीकृत करने की प्रक्रिया में आंग्ल भाषा में शिक्षित वर्ग ने अंग्रेजी साहित्य को मानक मानकर उसका अनुकरण आरंभ किया। तदनुसार सुदीर्घ भारतीय लोक परंपरा की उपेक्षा कर अंग्रेजी की 'शार्ट स्टोरी' के पर्याय रूप में 'लघुकथा' को प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ। वैचारिक प्रतिबद्धतता के नाम पर लघुकथा में सामाजिक विसंगतियों को उभरने को तरजीह दी जाने लगी। लघुकथा, व्यंग्य लेख और नवगीत में नकारात्मकता को उभरना ही श्रेष्ठता का पर्याय मन जाने लगा। गत दशक में स्त्री विमर्श के नाम पर पुरुष-निंदा और सास-बहू प्रसंग के मिलते-जुलते कथ्य वाली लघुकथाओं की बाढ़ आ गयी। इसके साथ ही लघुकथा में खेमेबाजी भी बढ़ती गयी। अर्थशास्त्र में कहावत है कि दो अर्थशास्त्रियों के ३ मत होते हैं, लघुकथा में स्थिति और बदतर है। हर मठाधीश के अपने-अपने मानक हैं, एक-दूसरे को ख़ारिज करने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। इस परिदृश्य का उल्लेख इसलिए कि बहुत दिनों बाद बंद कमरे में हवा के ताजे झोंके की तरह 'चाणक्य के दाँत' लघुकथा संकलन मिला, एक ही बैठक में आद्योपांत पढ़ जाना ही प्रमाण है कि इन लघुकथाओं में दम है।
गिरिजेश जी कनल रहे हैं और डॉक्टर भी, अपने दायित्व निर्वहन हेतु उन्हें न्यायालयों में बार-बार उपस्थित होना पड़ा है। कुछ रोचक प्रसंगों को उन्होंने लघुकथा में ढालकर सफलता पूर्वक प्रस्तुत किया है। ''दस्तूर'' लघुकथा न्यायालय व्यवस्था में घर कर चके भ्रष्टाचार की झलक इतने संयत, प्रामाणिक और रोचक तरीके से प्रस्तुत करती है कि पाठक मुस्कुरा पड़ता है। लघुकथा ''जहाँ चाह'' में न्यायालय का उजला पक्ष सामने आया है। लघुकथाकार कथांत में "जज साहब ने एक मिसाल कायम की और सिद्ध कर दिया जहाँ चाह वहाँ राह'' के माध्यम से न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज़्म) को सराहा है। एक अन्य लघुकथा ''ऐसा भी होता है'' में भी गिरिजेश जी ने न्यायाधीश के दबंग और सुलझे रूप को प्रस्तित किया है। इस लघुकथा में यह भी उभर कर आया है कि जिन वकीलों की आजीविका ही न्याय कराने की है, वे ही न्याय संपादन में बाधक हैं और उनके साथ सख्ती किये बिना अन्य चारा नहीं है। ''जलवे'' शीर्षक लघुकथा न्यायाधीशों द्वारा गलत परंपरा को प्रोत्साहित किये जाने को इंगित करती है। 'पेशी' लघुकथा में न्यायाधीश का अहंकार उभर कर सामने आया है।
"हम क्यों जीते वो क्यों हारे" लघु कथा भारत-पाकिस्तान युद्ध १९७१ में पाकिस्तान की पराजय के बाद बंदी पाकिस्तानी सिपाही द्वारा अपने अफसरों के कदाचरण और भारतीय सैन्य बल की श्रेष्ठता को स्वीकारे जाने पर केंद्रित है। यह सत्य सुविदित होने के बाद भी इसे लघुकथा के रूप देखना सुखद है। "घडी से लटका आदमी" सैन्य जीवन में समय की पाबंदी पर चुटकी है। पाठक के अधरों पर मंद स्मित लाती यह लघुकथा सामान्यता में असामान्यता का उदाहरण है। सामान्यत: सुंदर युवतियों को देखकर रोमानी सोच रखना और बातें करना भारतीय समाज का दस्तूर सा बन गया है। एक अनजान सुंदरी को देखकर अपनी बेटी की याद करना, एक सहज किंतु अप्रचलित बिम्ब है जिसे ''जे की रही भावना जैसी '' शीर्षक लघुकथा में प्रस्तुत किया गया है। यह लघुकथा भी सैन्य पृष्ठ भूमि में रची गयी है। 'मेरी मिट्टी' में सैन्य कर्मी की अदम्य जिजीविषा उद्घाटित हुई है।
कोरोना से लड़ाई में सरकारी सेवा के चिकित्सकों का उजला पक्ष सामने आया है जबकि इसके पूर्व सरकारी चिकित्सकों के गैरजिम्मेदार व्यवहार की ही खबरें सामने आती रहे हैं। आज सरकारी चिकित्सक वर्ग का पूरा देश और समाज अभिनन्दन कर रहा है किन्तु अग्रसोची गिरिजेश जी ने ''डॉक्टर ऑन ड्यूटी'' में यह पक्ष पहले ही उद्घाटित कर दिया है।
''प्रस्तुत लघुकथाएँ क्षणिक प्रतिक्रियाएँ हैं, जो मेरे जीवन या मेरे आसपास के वातावरण में प्रस्फुटित हुई।'' मेरी बात में लघुकथाकार का यह ईमानदार कथन लघुकथा विधा के स्वरूप और मानकों के नीम और संख्या को लेकर विविध मठाधीशों में मचे द्वन्द को निरर्थक सिद्ध कर देता है। लघुकथा 'चेहरे पर लिखे दाम' में ठेले पर फल बेचनेवाले में ग्राहक की सामर्थ्य के अनुसार भाव बताने की संवेदनशीलता सामान्यत: अदेखे रह जाने वाले पहलू को सामने लाती है। 'नकल में अकल' का कथ्य कम विस्तार में अधिक प्रभावी होता। 'उमर का तकाज़ा' में लघुकथा से गायब होता जा रहा सहज हास्य का रंग मोहक है। 'बाज़ी' लघुकथा को पढ़कर बरबस सत्यजीत राय की 'शतरंज के खिलाड़ी' की याद हो आई।
'पेट की आग', 'कूकुर सभा', 'माँ के लिए रोटी', 'इस्तीफा' जैसी लघुकथाओं की व्यंजनात्मकता काबिले-तारीफ है तो नन्हीं का थैंक्यू', पुल आदि लघुकथाओं की सहज सह्रदयता सीधे दिल को छूती है।
'जो नहीं होता वो होता है' शीर्षक लघुकथा की संदेशपरकता हर पाठक के लिए उपयोगी है। 'भस्मासुर' लघुकथा एक अभिनव प्रयोग है। यह सुपरिचित पौराणिक आख्यान को वर्तमान संदर्भों में व्याख्यायित कर लोकतंत्र में जिम्मेदार लोक को कर्तव्योन्मुखी होने की सीख देती है। ऐसी लघुकथाएँ उन समालोचकों को सटीक जवाब देती हैं जो यह कहते नहीं थकते की लघुकथा का काम रास्ता दिखाना नहीं है।
सारत:, स्वाभाविक सहज-सरल शब्दावली का प्रयोग करते हुए गिरिजेश जी ने इन लघुकथाओं के माध्यम से समाज को उसका चेहरा दिखाने की निरर्थक कसरत तक सीमित न रहते हुए उससे आगे जाकर मर्म को छूते हुए , वैचारिक जड़ता को झिंझोड़ने का सफल प्रयास किया है। ऐसी ही लघुकथाएँ इस विधा को आगे बढ़ाने में महती भूमिका निभाएँगी। अपनी शैली आप बनाने, अपने मुहावरे आप गढ़ने की यह कोशिश देखने हुए ''अल्लाह करे जोरे-करम और जियादा'' के स्थान पर कहना होगा अगले संग्रह में ''अल्लाह करे जोरे-कलम और जियादा।
***
संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष : ९४२५१८३२४४ salil.sanjiv@gmail.com
गिरिजेश जी कनल रहे हैं और डॉक्टर भी, अपने दायित्व निर्वहन हेतु उन्हें न्यायालयों में बार-बार उपस्थित होना पड़ा है। कुछ रोचक प्रसंगों को उन्होंने लघुकथा में ढालकर सफलता पूर्वक प्रस्तुत किया है। ''दस्तूर'' लघुकथा न्यायालय व्यवस्था में घर कर चके भ्रष्टाचार की झलक इतने संयत, प्रामाणिक और रोचक तरीके से प्रस्तुत करती है कि पाठक मुस्कुरा पड़ता है। लघुकथा ''जहाँ चाह'' में न्यायालय का उजला पक्ष सामने आया है। लघुकथाकार कथांत में "जज साहब ने एक मिसाल कायम की और सिद्ध कर दिया जहाँ चाह वहाँ राह'' के माध्यम से न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज़्म) को सराहा है। एक अन्य लघुकथा ''ऐसा भी होता है'' में भी गिरिजेश जी ने न्यायाधीश के दबंग और सुलझे रूप को प्रस्तित किया है। इस लघुकथा में यह भी उभर कर आया है कि जिन वकीलों की आजीविका ही न्याय कराने की है, वे ही न्याय संपादन में बाधक हैं और उनके साथ सख्ती किये बिना अन्य चारा नहीं है। ''जलवे'' शीर्षक लघुकथा न्यायाधीशों द्वारा गलत परंपरा को प्रोत्साहित किये जाने को इंगित करती है। 'पेशी' लघुकथा में न्यायाधीश का अहंकार उभर कर सामने आया है।
"हम क्यों जीते वो क्यों हारे" लघु कथा भारत-पाकिस्तान युद्ध १९७१ में पाकिस्तान की पराजय के बाद बंदी पाकिस्तानी सिपाही द्वारा अपने अफसरों के कदाचरण और भारतीय सैन्य बल की श्रेष्ठता को स्वीकारे जाने पर केंद्रित है। यह सत्य सुविदित होने के बाद भी इसे लघुकथा के रूप देखना सुखद है। "घडी से लटका आदमी" सैन्य जीवन में समय की पाबंदी पर चुटकी है। पाठक के अधरों पर मंद स्मित लाती यह लघुकथा सामान्यता में असामान्यता का उदाहरण है। सामान्यत: सुंदर युवतियों को देखकर रोमानी सोच रखना और बातें करना भारतीय समाज का दस्तूर सा बन गया है। एक अनजान सुंदरी को देखकर अपनी बेटी की याद करना, एक सहज किंतु अप्रचलित बिम्ब है जिसे ''जे की रही भावना जैसी '' शीर्षक लघुकथा में प्रस्तुत किया गया है। यह लघुकथा भी सैन्य पृष्ठ भूमि में रची गयी है। 'मेरी मिट्टी' में सैन्य कर्मी की अदम्य जिजीविषा उद्घाटित हुई है।
कोरोना से लड़ाई में सरकारी सेवा के चिकित्सकों का उजला पक्ष सामने आया है जबकि इसके पूर्व सरकारी चिकित्सकों के गैरजिम्मेदार व्यवहार की ही खबरें सामने आती रहे हैं। आज सरकारी चिकित्सक वर्ग का पूरा देश और समाज अभिनन्दन कर रहा है किन्तु अग्रसोची गिरिजेश जी ने ''डॉक्टर ऑन ड्यूटी'' में यह पक्ष पहले ही उद्घाटित कर दिया है।
''प्रस्तुत लघुकथाएँ क्षणिक प्रतिक्रियाएँ हैं, जो मेरे जीवन या मेरे आसपास के वातावरण में प्रस्फुटित हुई।'' मेरी बात में लघुकथाकार का यह ईमानदार कथन लघुकथा विधा के स्वरूप और मानकों के नीम और संख्या को लेकर विविध मठाधीशों में मचे द्वन्द को निरर्थक सिद्ध कर देता है। लघुकथा 'चेहरे पर लिखे दाम' में ठेले पर फल बेचनेवाले में ग्राहक की सामर्थ्य के अनुसार भाव बताने की संवेदनशीलता सामान्यत: अदेखे रह जाने वाले पहलू को सामने लाती है। 'नकल में अकल' का कथ्य कम विस्तार में अधिक प्रभावी होता। 'उमर का तकाज़ा' में लघुकथा से गायब होता जा रहा सहज हास्य का रंग मोहक है। 'बाज़ी' लघुकथा को पढ़कर बरबस सत्यजीत राय की 'शतरंज के खिलाड़ी' की याद हो आई।
'पेट की आग', 'कूकुर सभा', 'माँ के लिए रोटी', 'इस्तीफा' जैसी लघुकथाओं की व्यंजनात्मकता काबिले-तारीफ है तो नन्हीं का थैंक्यू', पुल आदि लघुकथाओं की सहज सह्रदयता सीधे दिल को छूती है।
'जो नहीं होता वो होता है' शीर्षक लघुकथा की संदेशपरकता हर पाठक के लिए उपयोगी है। 'भस्मासुर' लघुकथा एक अभिनव प्रयोग है। यह सुपरिचित पौराणिक आख्यान को वर्तमान संदर्भों में व्याख्यायित कर लोकतंत्र में जिम्मेदार लोक को कर्तव्योन्मुखी होने की सीख देती है। ऐसी लघुकथाएँ उन समालोचकों को सटीक जवाब देती हैं जो यह कहते नहीं थकते की लघुकथा का काम रास्ता दिखाना नहीं है।
सारत:, स्वाभाविक सहज-सरल शब्दावली का प्रयोग करते हुए गिरिजेश जी ने इन लघुकथाओं के माध्यम से समाज को उसका चेहरा दिखाने की निरर्थक कसरत तक सीमित न रहते हुए उससे आगे जाकर मर्म को छूते हुए , वैचारिक जड़ता को झिंझोड़ने का सफल प्रयास किया है। ऐसी ही लघुकथाएँ इस विधा को आगे बढ़ाने में महती भूमिका निभाएँगी। अपनी शैली आप बनाने, अपने मुहावरे आप गढ़ने की यह कोशिश देखने हुए ''अल्लाह करे जोरे-करम और जियादा'' के स्थान पर कहना होगा अगले संग्रह में ''अल्लाह करे जोरे-कलम और जियादा।
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संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष : ९४२५१८३२४४ salil.sanjiv@gmail.com
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