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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

विरासत : दिनकर

विरासत : दिनकर
(२३-९-१९०८ सिमरिया, बेगूसराय - २४-४-१९७४)



काव्य संग्रह : प्रणभंग १९२९, रेणुका १९३५, हुंकार १९३८, रसवंती १९३९, द्वन्द्गीत १९४०, कुरुक्षेत्र १९४६, धूपछाँह १९४६, सामधेनी १९४७, बापू १९४७, इतिहास के आंसू १९५१, धूप और धुआँ १९५१, रश्मिरथी १९५४, नीम के पत्ते १९५४, दिल्ली १९५४, नीलकुसुम १९५५, सूरज का ब्याह १९५५, नए सुभाषित १९५७,सीपी और शंख १९५७, परशुराम की प्रतीक्षा १९५७, कविश्री १९५७, कोयला और कवित्व १९६४, मृत्तितिलक १९६४, हारे को हरिनाम १९७०। अनुवाद : आत्मा की आँखें - डी. एच. लारेंस १९६४। खंड काव्य :  उर्वशी १९६१। रचना संग्रह : चक्रवाल १९५६, सपनों का धुंआ, रश्मिमला, भग्नवीणा, समर निंद्य है, समानांतर, अमृत मंथन, लोकप्रिय दिनकर १९६०, दिनकर की सूक्तियाँ १९६४, दिनकर के गीत १९७३, संचयिता १९७३। बाल काव्य : चाँद का कुरता, नमन करून मैं, सूरज का ब्याह, चूहे की दिल्ली यात्रा, मिर्च का मजा। प्रतिनिधि रचनाएँ : सिंहासन खली करो की जनता आती है, जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे,  परंपरा, परिचय, दिल्ली, झील, वातायन, समुद्र का पानी, कृष्ण की चेतावनी, ध्वज वंदना, आग की भीख, बालिका से वधु, जियो अय हिंदुस्तान, कुंजी, परदेशी, एक पात्र, एक विलुप्त कविता, गाँधी, आशा का दीपक, कलम आज उनकी जय बोल, शक्ति और क्षमा, हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों, गीत-अगीत, लेन-देन, निराशावादी, रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, लोहे के मर्द, विजयी के सदृश जियो रे, समर शेष है,  पढ़क्कू की सूझ, वीर, मनुष्यता, पर्वतारोही, करघा, चाँद एक दिन, भारत, भगवन के डाकिए, भारत, जनतंत्र का जन्म, शोक की संतान, जब आग लगे, पक्षी और बादल, राजा वसंत वर्ष ऋतुओं की रानी, मेरे नगपति! मेरे विशाल!, लोहे के पेड़ हरे होंगे, सिपाही, रोटी और स्वाधीनता, अवकाशवाली सभ्यता, व्याल-विजय,  माध्यम, स्वर्ग, कलम या कि तलवार, हमारे कृषक। 
*
वह कौन रोता है वहाँ-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की ?
और तब सम्मान से जाते गिने
नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
देश की इज्जत बचाने के लिए
या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।
ईश जानें, देश का लज्जा विषय
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र ,भूखे बालक अकुलाते हैं;
माँ की हड्डी से चिपक ,ठिठुर जाड़ो की रात बिताते हैं।
युवती के लज्जा-वसन बेच,जब ब्याज चुकाये जाते हैं;
मालिक जब -फुलेलों पर,पानी सा द्रव्य बहाते हैं।
'जब तक मनुज मनुज का
यह सुख-भाग नहीं सम होगा।
शमित न होगा कोलाहल,
संघर्ष नहीं कम होगा।
लोहे के पेड़ हरे होंगे
गान प्रेम का गाता चल
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर
आंसू के कण बरसाता चल।
'ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में
मनुज नहीं लाया है;
अपना सुख उसने अपने भुज बल से पाया है।
दिनकर जी ने जनजागरण को प्रखर करने का काम किया।उनकी कविताओं में ओज, तेज है,अग्नि समान तीव्र ताप है।उसमें यौवन का हुंकार है,नव निर्माण की भावना है,कर्म का सन्देश है,आशावाद के स्वर हैं,दिनकर जी अद्वितीय हैं।

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