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सोमवार, 4 सितंबर 2023

बाल कविता, तुहिना-दादी, मुक्तिका, दोहा, अमरेन्द्र नारायण, सॉनेट, नर्मदा

सॉनेट नर्मदा • है शहर पुरातन जबलपुर, सब इसे जानते दूर दूर, नर्मदा नदी के है तट पर, भेड़ाघाट दृश्य सुंदर। नर्मदा गूंँज गिरती अपार, कलकल ध्वनि ज्यों बजता सितार, जल बिंदु सघन बनते फुहार, यह जलप्रपात है धुआंँधार। संजीव करें अंतर्मन को, सुख देती है यह नयनन को, कर जुड़ जाते हैं वंदन को, माँ रेवा के अभिनंदन को। बड़भागी ही दर्शन पाते, परकम्मावासी तर जाते।। ४-९-२०२३ •••
पुस्तक चर्चा
काल है संक्रांति का - एक सामयिक और सशक्त काव्य कृति
- अमरेन्द्र नारायण
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[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे एक सम्माननीय अभियंता, एक सशक्त साहित्यकार, एक विद्वान अर्थशास्त्री, अधिवक्ता और एक प्रशिक्षित पत्रकार हैं। जबलपुर के सामाजिक जीवन में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी यही बहुआयामी प्रतिभा उनकी नूतन काव्य कृति 'काल है संक्रांति का' में लक्षित होती है। संग्रह की कविताओं में अध्यात्म, राजनीति, समाज, परिवार, व्यक्ति सभी पक्षों को भावनात्मक स्पर्श से संबोधित किया गया है। समय के पलटते पत्तों और सिमटते अपनों के बीच मौन रहकर मनीषा अपनी बात कहती है-
'शुभ जहाँ है, उसीका उसको नमन शत
जो कमी मेरी कहूँ सच, शीश है नत।
स्वार्थ, कर्तव्यच्युति और लोभजनित राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के इस संक्रांति काल में कवि आव्हान करता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो, जगो-उठो।
कवि माँ सरस्वती की आराधना करते हुए कहता है-
अम्ल-धवल, शुचि
विमल सनातन मैया!
बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैयाँ
तिमितहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा
नाद-ताल, गति-यति खेलें तव कैयाँ
अनहद सुनवा दो कल्याणी!
जय-जय वीणापाणी!!
अध्यात्म के इन शुभ क्षणों में वह अंध-श्रद्धा से दूर रहने का सन्देश भी देता है-
अंध शृद्धा शाप है
आदमी को देवता मत मानिए
आँख पर पट्टी न अपनी बाँधिए
साफ़ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो
गैर को निज मसीहा मत मानिए
लक्ष्य अपना आप हैं।
संग्रह की रचनाओं में विविधता के साथ-साथ सामयिकता भी है। अब भी जन-मानस में सही अर्थों में आज़ादी पाने की जो ललक है, वह 'कब होंगे आज़ाद' शीर्षक कविता में दिखती है-
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?
गये विदेश पर देशी अंग्रेज कर रहे शासन
भाषण देतीं, पर सरकारें दे न स्की हैं राशन
मंत्री से सन्तरी तक, कुटिल-कुतंत्री बनकर गिद्ध
नोच-खा रहे भारत माँ को, ले चटखारे-स्वाद
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?
आकर्षक साज-सज्जा से निखरते हुए इस संकलन की रचनाएँ आनन्द का स्रोत तो हैं ही, वे न केवल सोचने को मजबूर करती हैं बल्कि अकर्मण्यता दूर करने का सन्देश भी देती हैं।
कवि को हार्दिक धन्यवाद और बधाई।
गीत-नवगीत की इस पुस्तक का स्वागत है।
४-९-२०१६
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समीक्षक परिचय- अमरेंद्र नारायण, ITS (से.नि.), भूतपूर्व महासचिव एशिया पेसिफिक टेलीकम्युनिटी बैंगकॉक , हिंदी-अंग्रेजी-उर्दू कवि-उपन्यासकार, ३ काव्य संग्रह, उपन्यास संघर्ष, फ्रेगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स, द स्माइल ऑफ़ जास्मिन, खुशबू सरहदों के पार (उर्दू अनुवाद)संपर्क- शुभा आशीर्वाद, १०५५ रिज रोड, दक्षिण सिविल लाइन जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २६०४६००, ईमेल- amarnar@gmail.com।
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दोहा सलिला:
यथा समय हो कार्य...
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जो परिवर्तित हो वही, संचेतित सम्प्राण.
जो किंचित बदले नहीं, वह है जड़ निष्प्राण..

जड़ पल में होता नहीं, चेतन यह है सत्य.
जड़ चेतन होता नहीं, यह है 'सलिल' असत्य..

कंकर भी शत चोट खा हो, शंकर भगवान.
फिर तो हम इंसान हैं, ना सुर ना हैवान..

माटी को शत चोट दे, गढ़ता कुम्भ कुम्हार.
चलता है इस तरह ही, सकल सृष्टि व्यापार..

रामदेव-अन्ना बने, कुम्भकार दें चोट.
धीरे-धीरे मिटेगी, जनगण-मन की खोट..

समय लगे लगता रहे, यथा समय हो कार्य.
समाधान हो कोई तो, हम सबको स्वीकार्य..

तजना आशा कभी मत, बन न 'सलिल' नादान..
आशा पर ही टँगा है, आसमान सच मान.
४-९-२०११ 
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मुक्तिका:
उज्जवल भविष्य
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उज्जवल भविष्य सामने अँधियार नहीं है.
कोशिश का नतीजा है ये उपहार नहीं है..
कोशिश की कशिश राह के रोड़ों को हटाती.
पग चूम ले मंजिल तो कुछ उपकार नहीं है..
गर ठान लें जमीन पे ले आएँ आसमान.
ये सच है इसमें तनिक अहंकार नहीं है..
जम्हूरियत में खुद पे खुद सख्ती न करी तो
मिट जाएँगे और कुछ उपचार नहीं है..
मेहनतो-ईमां का टका चलता हो जहाँ.
दुनिया में कहीं ऐसा तो बाज़ार नहीं है..
इंसान भी, शैतां भी, रब भी हैं हमीं यारब.
वर्ना तो हम खिलौने हैं कुम्हार नहीं हैं..
दिल मिल गए तो जात-धर्म कौन पूछता?
दिल ना मिला तो 'सलिल' प्यार प्यार नहीं है..
जागे हुए ज़मीर का हर आदमी 'सलिल'
महका गुले-गुलाब जिसमें खार नहीं है..
४-९-२०१०
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बाल कविता :
तुहिना-दादी
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तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काये तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको : 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटें रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जायेंगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछतायेंगे.'
तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाये वह
वह गाये तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
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७-६-२०१०

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