नवगीत 
तुम्हें प्रणाम 
*
मेरे पुरखों! 
*
सूक्ष्म काय थे,
चित्र गुप्त रख, विधि बन
सृष्टि रची अंशों से।
नाद-ताल-ध्वनि, सुर-सरगम
व्यापे वंशों में।
अणु-परमाणु-विषाणु 
विष्णु हो धारे तुमने। 
कोष-वृद्धि कर 
'श्री' पाई है। 
जल-थल-नभ पर 
कीर्ति-पताका 
फहराई है। 
बन श्रद्धा-विश्वास 
व्याप्त हो हर कंकर में।
जननी-जनक देखते हम
गौरी-शंकर में।
पंचतत्व तुम
नाम अनाम। 
मेरे पुरखों! 
सतत प्रणाम। 
*
भूत-अभूत तुम्हीं ने 
नाते, बना निभाए।
पैर जमीं पर जमा
धरा को थे छू पाए।
द्वैत दिखा,
अद्वैत-पथ वरा।
कहा प्रकृति ने 
मनुज हो खरा। 
लड़े, मर-मिटे 
असुर और सुर।
मिलकर जिए 
किंतु वानर-नर।
सेतुबंध कर मिटा दूरियाँ
काम करे रहकर निष्काम। 
मेरे पुरखों! 
विनत प्रणाम। 
*
धरा-पुत्र हे!
प्रकृति-मित्र हे! 
गही विरासत, 
हाय! न हमने।
चूक करी 
रौंदा प्रकृति को।
अपनाया मोहक विकृति को।
आम न रहकर
'ख़ास' हो रहे। 
नाश बीज का 
अपने हाथों आप बो रहे। 
खाली हाथों जाना फिर भी 
जोड़ मर रहे
विधि है वाम। 
मेरे पुरखों!
अगिन प्रणाम।।
***
: अलंकार चर्चा १३ :
चित्रमूलक अलंकार 
काव्य रचना में समर्थ कवि ऐसे शब्द-व्यवस्था कर पाते हैं जिनसे निर्मित छंदों को विविध आकृतियों  चक्र, चक्र-कृपाण, स्वस्तिक, कामधेनु, पताका, मंदिर, नदी, वृक्ष आदि चित्रों के रूप में अंकित किया सकता है.
कुछ छंदों को किसी भी स्थान से पढ़ा जा सकता है औए उनसे विविध अन्य छंद बनते चले जाते हैं. इस वर्ग के अंतर्गत प्रश्नोत्तर, अंतर्लिपिका, बहिर्लिपिका, मुकरी आदि शब्द चमत्कारतयुक्त काव्य रचनाएँ समाहित की जा सकती हैं. 
चित्र काव्य का मुख्योद्देश्य मनोरंजन है. इसका रसात्मक पराभव नगण्य है. इस अलंकार में शब्द वैचित्र्य और बुद्धिविलास के तत्व प्रधान होते हैं. 
 शोध लेख:
चित्र मूलक अलंकार और चित्र काव्य 
हिंदी साहित्य में २० वीं सदी तक चित्र काव्य का विस्तार हुआ. चित्र काव्य के अनेक भेद-विभेद इस कालखण्ड में विकसित हुए. प्राचीन काव्य ग्रंथों में इनका व्यवस्थित उल्लेख प्राप्त है. सामंतवादी व्यवस्था में राज्याश्रय में चित्र अलंकार के शब्द-विलास और चमत्कार को विशेष महत्व प्राप्त हुआ. फलत: उत्तरमध्ये काल और वर्तमान काल के प्रथम चरण में समस्यापूर्ति का काव्य विधा के रूप में प्रचलन और लोकप्रियता बढ़ी. इस तरह के काव्य प्रकार ऐसे समाज में हो रचे, समझे और सराहे जाना संभव है जहाँ पाठक/श्रोता/काव्य मर्मज्ञ को प्रचुर समयवकाश सुलभ हो. 
चित्र अलंकार सज्जित काव्य एक प्रकट का कलात्मक विनोद और कीड़ा है. शब्द=वर्ण क्रीड़ा के रूप में ही इसे देखा-समझा-सराहा जाता रहा. संगीत के क्षेत्र में गलेबाजी को लेकर अनेक भाव-संबद्ध अनेक चमत्कारिक पद्धतियाँ और प्रस्तुतियाँ विकसित हुईं और सराही गयीं.  इसी प्रकार काव्य शास्त्र में चित्रात्मक अलंकार का विकास हुआ. 
चित्र काव्य को १. भाव व्यंजना,  २. वास्तु - विचार निरूपण तथा ३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा के दृष्टिकोण से  परखा जा सकता है.  
१. भाव व्यंजना: 
भाव व्यंजना की दृष्टि से चित्र काव्य / चित्र अलंकार का महत्त्व न्यून है. भावभिव्यंजना चित्र रहित शब्द-अर्थ  माध्यम से सहज तथा अधिक सारगर्भित होती है. शब्द-चित्र, चैत्र काव्य तथा चित्र अलंकार जटिल तथा गूढ़ विधाएँ हैं. रस अथवा भाव संचार के निकष पर शब्द पढ़-सुन कर उसका मर्म सरलता से ग्रहण किया जा सकता है. यहाँ तक की चक्षुहीन श्रोता भी मर्म तक पहुँच सकता है किन्तु चित्र काव्य को ब्रेल लिपि में अंकित किये बिना चक्षुहीन उसे पढ़-समझ नहीं सकता। बघिर पाठक के लिए शब्द या चित्र देखकर मर्म समान रूप से ग्रहण किया जा सकता है. 
२. वास्तु - विचार निरूपण: 
निराकार तथा जटिल-विशाल  आकारों का चित्रण संभव नहीं है जबकि शब्द प्रतीति करने में समर्थ होते हैं.  विपरीत संश्लिष्ट आकारों को शब्द वर्णन कठिन पर चित्र अधिक स्पष्टता  से प्रतीति करा सकता है. बाल पाठकों के लिए अदेखे आकारों तथा वस्तुओं का ज्ञान चित्र काव्य बेहतर तरीके से करा सकता है. ज्यामितीय आकारों, कलाकृतियों, शिल्प, शक्य क्रिया आदि की बारीकियाँ  एक ही दृश्य में संचारित कर सकता है जबकि शब्द काव्य को वर्णन करने में अनेक काव्य पंक्तियाँ लग सकती हैं. 
३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा:
चित्र अलंकारों तथा चित्र काव्य का मूल अधिक रहा है. स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ प्रतिपादित करने के  असाधारण शक्ति प्रदर्शन की तरह असाधारण बौद्धिक क्षमता दिखने की वृति चित्रात्मकता के मूल में रही है. चित्र अलंकार तथा चित्र काव्य का प्रयोग करने में समर्थ जन इतने कम हुए हैं कि स्वतंत्र रूप से इसकी चर्चा प्रायः नहीं होती है. 
मम्मट आदि संस्कृत काव्याचार्यों ने तथा उन्हीं के स्वर में स्वर मिलते हुई हिंदी के विद्वानों ने चित्र काव्य को अवर या अधम कोटि का कहा है. जीवन तथा काव्य की समग्रता को ध्यान में रखते हुए ऐसा मत उचित नहीं प्रतीत होता. संभव है कि स्वयं प्रयोग न कर पाने की अक्षमता इस मत के रूप में व्यक्त हुई हो. चित्र काव्य में बौद्धिक विलास ही नहीं बौद्धिक विकास की भी  संभावना है. चित्र काव्य का एक विशिष्ट स्थान तथा महत्व स्वीकार किये जाने पर रचनाकार इसका अभ्यास कर दक्षता पाकर रचनाकर्म से वर्ग विशेष के ही नहीं सामान्य श्रोताओं-पाठकों को आनंदित कर सकते हैं. 
४. नव प्रयोग: 
जीवन में बहुविध क्रीड़ाओं का अपना महत्व होता है उसी तरह चित्र काव्य का भी महत्त्व है जिसे पहचाने जाने की आवश्यकता है. पारम्परिक चित्र काव्यलंकारों और उपादानों के साथ बदलते परिवेश तथा वैज्ञानिक उपकरणों  ने चित्र काव्य को नये आयाम  कराकर समृद्ध किया है. काव्य पोस्टर,  चित्रांकन, काव्य-चलचित्र आदि का प्रयोग कर चित्र काव्य के माध्यम से काव्य विधा का रसानंद श्रवण तथा पठन के साथ दर्शन कर भी लिया जा सकेगा. नवकाव्य तथा शैक्षिक काव्य में चित्र काव्य की उपादेयता असंदिग्ध है. शिशु काव्य ( नर्सरी राइम)   का प्रभाव तथा ग्रहण-सामर्थ्य में चित्र काव्य से अभूतपूर्व वृद्धि होती है. चित्र काव्य को मूर्तित कर उसे अभिनय विधा के साथ संयोजित किया जा सकता है. इससे काव्य का दृश्य प्रभाव श्रोता-पाठक को दर्शक की भूमिका में ले आता है जहाँ वह एक साथ श्रवणेंद्रिय  दृश्येन्द्रित का  प्रयोग कर कथ्य से अधिक नैकट्य अनुभव कर सकता है. 
चित्र काव्य को रोचक, अधिक ग्राह्य तथा स्मरणीय बनाने में चित्र अलंकार की महती भूमिका है.  अत: इसे हे, न्यून या गौड़ मानने के स्थान पर विशेष मानकर इस क्षेत्र के समर्थ रचनाकारों को प्रत्साहित किया जाना आवश्यक है.  चित्र काव्य कविता और बच्चों, कम पढ़े या कम समझदार वर्ग के साथ विशेषज्ञता के क्षेत्रों में उपयोगी और प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकता है. 
इस दृष्टि से अभिव्यक्ति विश्वम ने २०१४ में लखनऊ में संपन्न वार्षिकोत्सव में उल्लेखनीय प्रयोग किये हैं.  श्रीमती पूर्णिमा बर्मन, अमित कल्ला, रोहित रूसिया आदि ने नवगीतों पर चित्र पोस्टर, गायन, अभिनय तथा चलचित्रण आदि विधाओं का समावेश किया. आवश्यक है कि पुरातन चित्र काव्य परंपरा को आयामों में विकसित किया जाए और चित्र अलंकारों  रचा, समझ, सराहा जाए. 
यहाँ  हमारा उद्देश्य  काव्य का विश्लेषण नहीं, चित्र अलंकारों से परिचय मात्र है.  कुछ उदाहरण देकर इस प्रसंक का पटाक्षेप करते हैं: 
उदाहरण:   
१. धनुर्बन्ध चित्र: देखें संलग्न चित्र  १.
    मन मोहन सों मान तजि, लै सब सुख ए बाम 
    ना तरु हनिहैं बान अब, हिये कुसुम सर बाम 
    देखें संलग्न चित्र  १. 
२. गतागति चित्र: देखें संलग्न चित्र  २. 
(उल्टा-सीधा एक समान). प्रत्येक पंक्ति का प्रथमार्ध बाएं से दायें तथा उत्तरार्ध दायें से बाएं सामान होता है तथापि  पूरी पंक्ति बाएं से दायें पढ़ने पर अर्थमय होती है. 
    की नी रा न न रा नी की.
    सो है स दा दास है सो.
    मो हैं को न न को हैं मो.
    ती खे न चै चै न खे ती.  
३. ध्वज चित्र: देखें संलग्न चित्र  ३.
    भोर हुई सूरज किरण, झाँक थपकति द्वार
    पुलकित सरगम गा रही, कलरव संग बयार
    चलो हम ध्वज फहरा दें.
    संग जय हिन्द गुँजा  दें.  
*
    भोर हुई 
    सूरज किरण 
    झाँक थपकती द्वार। 
    पुलकित सरगम गा रही 
    कलरव संग बयार।।
    चलो 
    हम 
    ध्वज 
    फहरा 
    दें। 
    संग 
    जय 
    हिन्द 
    गुँजा 
    दें।
४. चित्र: देखें संलग्न चित्र  ४.
     हिंदी जन-मन में बसी,  जन प्रतिनिधि हैं दूर.
     परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
     जनवाणी पर छा रहा कैसा अद्भुत नूर
     जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित  संतूर
     अंग्रेजी-प्रेमी कुढ़ें, देख रहे हैं  घूर
     हिंदी जग-भाषा बने, विधि को है मंजूर
     हिंदी-प्रेमी हो रहे, 'सलिल' हर्ष से चूर 
                                                         ॐ 
                                                       हिंदी 
                                                जन-मन में बसी 
                                              जन प्रतिनिधि हैं दूर.
                                    परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
                                 जन आकांक्षा गीत है,जनगण-हित  संतूर
                                 ज                                               कै 
                                 ग                                              सा  
                                 वा                                              अ                                      
                                णी                     ॐ                      द    
                                 प                                               भु  
                                 र                                                त 
                                छा                                               नू 
                                रहा                                              र।  
                            अंग्रेजी  -  प्रेमी   कुढ़ें ,    देख    रहे    हैं    घूर 
                        हिंदी   जग   -   भाषा   बने ,   विधि   को  है   मंजूर 
                   हिंदी   -    प्रेमी     हो      रहे ,    'सलिल'     हर्ष     से    चूर 
५. लगभग ५००० सम सामयिक काव्य कृतियों में से केवल एक में मुझे चित्र मूलक लंकार का  प्रभावी प्रयोग देखें मिल. यह महाकाव्य  है महाकवि डॉ. किशोर काबरा रचित 'उत्तर भागवत'. बालक कृष्ण तथा सुदामा आदि शिक्षा ग्रहण करने के लिये महाकाल की नगरी उज्जयिनी स्थित संदीपनी ऋषि के आश्रम में भेजे जाते हैं. मालव भूमि के दिव्य सौंदर्य तथा महाकाल मंदिर  से अभिभूत कृष्ण द्वारा स्तुति-जयकार  प्रसंग चित्र मूलक लंकार द्वारा वर्णित है. 
देखें संलग्न चित्र ५.   
मालव पठार!
मालव पठार!!
सतपुड़ा, देवगिरि, विंध्य, अरवली-
नगराजों से झिलमिल ज्योतित
           मुखरित अभिनन्दित पठार, 
           मालव का अभिनन्दित पठार, 
                        मालव पठार!
                        मालव पठार!!
चंबल, क्षिप्रा, नर्मदा और 
शिवना की जलधाराओं से 
           प्रतिक्षण अभिसिंचित पठार, 
           मालव का अभिनन्दित पठार, 
                        मालव पठार!
                        मालव पठार!!
दशपुर, उज्जयिनी, विदिशा, धारा- 
आदि नगरियों के जन-जन से 
           प्रतिपल अभिवन्दित पठार, 
           मालव का अभिनन्दित पठार, 
                        मालव पठार!
                        मालव पठार!!
***
नवगीत:
संजीव 
*
समय-समय की बलिहारी है 
*
पर दुर्गंधों को  
छूट मिली है.  
भोर उगी है बाजों के घर 
गिद्धों के घर  
साँझ ढली है. 
दिन दोपहरी गर्दभ श्रम कर  
भूखा रोता, 
प्यासा सोता. 
निशा-निशाचर भोग भोगकर  
भत्ता पाता   
नफरत बोता.  
तुलसी बिरवा त्याज्य हुआ है 
कैक्टस-नागफनी प्यारी है 
समय-समय की बलिहारी है 
*
शूर्पणखायें सज्जित होकर 
जनप्रतिनिधि बन
गर्रायी हैं.
किरण पूर्णिमा की तम में घिर 
कुररी माफिक 
थर्रायी हैं. 
दरबारी के अच्छे दिन है 
मन का चैन 
आम जन खोता.
कुटी जलाता है प्रदीप ही 
ठगे चाँदनी 
चंदा रोता.
शरद पूर्णिमा अँधियारी है 
समय-समय की बलिहारी है 
*    
ओम-व्योम अभिमंत्रित होकर 
देख रहे 
संतों की लीला. 
भस्मासुर भी चंद्र-भाल पर 
कर धर-भगा 
सकल यश लीला.
हरि दौड़ें हिरना के पीछे 
होश हिरन,   
सत-सिया गँवाकर. 
भाषा से साहित्य जुदाकर 
सत्ता बेचे 
माल बना कर. 
रथ्या से निष्ठा हारी है 
समय-समय की बलिहारी है 
***
मुक्तक:
हर रजनी हो शरद पूर्णिमा, चंदा दे उजियाला 
मिले सफलता-सुयश असीमित, जीवन बने शिवाला 
देश-धर्म-मानव के आयें काम सार्थक साँसें-
चित्र गुप्त उज्जवल अंतर्मन का हो दिव्य निराला
२८-९-२०१५ 
***
दोहा सलिला:
पितृ-स्मरण
*
पितृ-स्मरण कर 'सलिल', बिसर न अपना मूल
पितरों के आशीष से, बनें शूल भी फूल
*
जड़ होकर भी जड़ नहीं, चेतन पितर तमाम
वंश-वृक्ष के पर्ण हम, पितर ख़ास हम आम
*
गत-आगत को जोड़ता, पितर पक्ष रह मौन
ज्यों भोजन की थाल में, रहे- न दिखता नौन
*
पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़े, वंश वृक्ष अभिराम
सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़े, पाने लक्ष्य ललाम
*
कल के आगे विनत हो, आज 'सलिल' हो धन्य
कल नत आगे आज के, थाती दिव्य अनन्य
*
जन्म अन्न जल ऋण लिया, चुका न सकते दाम
नमन न मन से पितर को, किया- विधाता वाम
*
हमें लाये जो उन्हीं का, हम करते हैं दाह
आह न भर परवाह कर, तारें तब हो वाह
२८-९-२०१३ 
*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें