पुरोवाक्
महाकाव्य तुलसी - सुनीता सिंह
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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विश्ववाणी हिंदी में इस समय विपुल साहित्य सृजन प्रति दिन हो रहा है। असंख्य रचनाकार अहर्निश विविध विधाओं में निरंतर लेखन कर रहे हैं। निश्चय ही काल-प्रवाह में इसमें से ९९% शीघ्र ही विलुप्त हो जाएगा। जो १ % लेखन शेष रहने की आशा की जा सकती है वह वही होगा जो व्यष्टि पर समष्टि को वरीयता देते हुए सत-शिव-सुंदर की स्थापनाकर क्षणभंगुर जीव को सनातन सत्-चित्-आनंद की प्राप्ति में सहायक होगा। समयाभाव के इस समय में हिंदी में महाकाव्य लेखन परंपरा का न केवल जीवित रहना अपितु अनवरत संपन्न-समृद्ध होते जाना प्रमाणित करता है कि उदात्तता, श्रेष्ठता और अलौकिकता को साध्य मानकर तदनुसार हो पाने की जिजीविषा नि:शेष नहीं हुई है। मानव सभ्यता के चिरजीवी होने में आदर्श के प्रति आकर्षित होने की इस आदिम वृत्ति का योगदान अचीन्हा किंतु अप्रतिम है। इस अनुकरणीय प्रवृत्ति की युवा प्रतिनिधि हैं सुनीता सिंह जो महाकवि ही नहीं युग प्रवर्तक संत तुलसीदास पर महाकाव्य का सृजनकर अपनी असाधारण लेखन सामर्थ्य को प्रस्तुत या प्रमाणित ही नहीं प्रतिष्ठित भी कर पा रही हैं। गुरुतर प्रशासकीय दायित्व का दक्षता के साथ निर्वहन करते हुए, भारतीय परिवार की गृहलक्ष्मी की बहुआयामी भूमिका को निपुणता के साथ जीते हुए सुनीता जी रुक्षता और मृदुता के कठोर-मृदुल दायित्वों को सहजता के साथ जीकर सच्ची सारस्वत साधना को विविध विधाओं में सतत सृजन कर साकार कर पाती हैं। यह असाधारण प्रतिभा, परिश्रम, लगन और समर्पण के बिना संभव नहीं हो सकता।
महाकाव्य - क्या और क्यों?
महाकाव्य किसी असाधारण व्यक्तित्व के कालजयी अवदान का ऐसा आकलन है जिसमें नायक के व्यक्तित्व-कृतित्व का नीर-क्षीर विवेचन करते हुए नवाचारी दृष्टि रही हो। महाकाव्य में पिष्टपेषण के लिए स्थान नहीं होता। महाकाव्यकार को तर्क की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी नवता का वरण करना होता है। यही दुष्कर है। महाकाव्य का नायक ख्यात, आदरेय, महाकाव्यकार की श्रद्धा का पात्र होता है तभी तो उसका चयन किया जाता है। अपने श्रद्धेय के व्यक्तित्व-कृतित्व का समालोचकीय दृष्टि से निरीक्षण-परीक्षण करना और तब नवल प्रतिमानों पर उसकी उत्तमता प्रतिपादित कर पाना गहन अध्ययन-मनन-चिंतन पश्चात ही संभव हो पाता है।
भविष्य को प्रभावित करनेवाले किसी व्यक्तित्व या घटना का श्रेष्ठ काव्य शास्त्र के मानकों पर नवल मौलिक अवधारणा प्रतिपादित करते हुए सांगोपांग विवेचन करती कृति ही महाकाव्य है। महाकाव्य का आकार बड़ा होना आवश्यक नहीं है। महाकाव्य लेखन में अंतर्निहित दृष्टि का व्यापक होना आवश्यक है। महाकाव्य वह श्रेष्ठ काव्यकृति है जिससे असंख्य जनमानस दीर्घकाल तक गहन प्रभावित रहे। महाकाव्य में यथार्थ और कल्पना का स्वाभाविक मिश्रण होता है जो सहज ही जन सामान्य को स्वीकार्य हो सके।
महाकाव्य लेखन का उद्देश्य 'कल' (गत) का मूल्यांकन आज करते हुए 'कल' (आगत) के लिए अनुकरणीय नायक (व्यक्ति, घटना, जीव आदि) के माध्यम से उचित-अनुचित आचरण का विश्लेषणकर आदर्श का प्रतिपादन करना है ताकि भविष्य बेहतर हो सके।
महाकाव्य के लक्षण
अग्नि पुराण के अनुसार 'सर्गबंधो महाकाव्यं ' अर्थात महाकाव्य सर्गबंध होता है।
साहित्यदर्पणकार संस्कृत आचार्य विश्वनाथ के अनुसार सर्ग निबंधन, धीरोदात्त नायक, एक रस की प्रधानता, नाटक संधियाँ, ऐतिहासिक कथा, एक चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) का प्रतिपादन, अष्टाधिक सर्ग, आदि महाकाव्य के लक्षण हैं। आरम्भ में नमस्कार, आशीर्वाद, वर्ण्यवस्तुनिर्देश, खल-निंदा या सज्जन माहात्म्य अभीष्ट है। हर सर्ग में से एक मुख्य छंद, सर्गांत में छंद-परिवर्तन व आगामी कथा-सूचना, प्रकृति, वातावरण, रस, भाव आदि होना चाहिए (परिच्छेद 6,315-324)।
आचार्य भामह ने आलंकारिक शिष्ट नागर भाषा को महाकाव्य हेतु उपयुक्त कहा है। महाकाव्य की शैली नानावर्णन क्षमा, विस्तारगर्भा, श्रव्य वृत्तों से अलंकृत, महाप्राण होनी चाहिए।
महाकाव्य के सम्बन्ध में पश्चिमी मत
महाकाव्य के जिन लक्षणों का निरूपण भारतीय आचार्यों ने किया, शब्दभेद से उन्हीं से मिलती-जुलती विशेषताओं का उल्लेख पश्चिम के आचार्यों ने भी किया है। अरस्तू ने त्रासदी (ट्रेजेडी) से महाकाव्य की तुलना करते हुए कहा है कि "गीत एवं दृश्यविघान के अतिरिक्त (महाकाव्य और त्रासदी) दोनों के अंग भी समान ही हैं।" अर्थात् महाकाव्य के मूल तत्त्व चार हैं - कथावस्तु, चरित्र, विचारतत्व और पदावली (भाषा)।
कथावस्तु
कथावस्तु के संबंध में उनका मत है कि(1) महाकाव्य की कथावस्तु एक ओर शुद्ध ऐतिहासिक यथार्थ से भिन्न होती है ओर दूसरी ओर सर्वथा काल्पनिक भी नहीं होती। वह प्रख्यात (जातीय दंतकथाओं पर आश्रित) होनी चाहिए और उसमें यथार्थ से भव्यतर जीवन का अंकन होना चाहिए।(2) उसका आयाम विस्तृत होना चाहिए जिसके अंतर्गत विविध उपाख्यानों का समावेश हो सके। "उसमें अपनी सीमाओं का विस्तार करने की बड़ी क्षमता होती है" क्योंकि त्रासदी की भांति वह रंगमंच की देशकाल संबंधी सीमाओं में परिबद्ध नहीं होता। उसमें अनेक घटनाओं का सहज समावेश हो सकता है जिससे एक ओर काव्य को घनत्व और गरिमा प्राप्त होती है और दूसरी ओर अनेक उपाख्यानों के नियोजन के कारण रोचक वैविध्य उत्पन्न हो जाता है।(3) किंतु कथानक का यह विस्तार अनियंत्रित नहीं होना चाहिए। उसमें एक ही कार्य होना चाहिए जो आदि मध्य अवसान से युक्त एवं स्वत: पूर्ण हो। समस्त उपाख्यान इसी प्रमुख कार्य के साथ संबंद्ध और इस प्रकार से गुंफित हों कि उनका परिणाम एक ही हो।(4) इसके अतिरिक्त त्रासदी के वस्तुसंगठन के अन्य गुण -- पूर्वापरक्रम, संभाव्यता तथा कुतूहल—भी महाकाव्य में यथावत् विद्यमान रहते हैं। उसकी परिधि में अद्भुत एवं अतिप्राकृत तत्त्व के लिये अधिक अवकाश रहता है और कुतूहल की संभावना भी महाकाव्य में अपेक्षाकृत अधिक रहती है। कथानक के सभी कुतूहलवर्धक अंग, जैसे स्थितिविपर्यय, अभिज्ञान, संवृति और विवृति, महाकाव्य का भी उत्कर्ष करते हैं।
पात्र
महाकाव्य के पात्रों के सम्बंध में अरस्तू ने केवल इतना कहा है कि "महाकाव्य और त्रासदी में यह समानता है कि उसमें भी उच्चतर कोटि के पात्रों की पद्यबद्ध अनुकृति रहती है।" त्रासदी के पात्रों से समानता के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं कि महाकाव्य के पात्र भी प्राय: त्रासदी के समान - भद्र, वैभवशाली, कुलीन और यशस्वी होने चाहिए। रुद्रट के अनुसार महाकाव्य में प्रतिनायक और उसके कुल का भी वर्णन होता है।
प्रयोजन और प्रभाव
अरस्तू के अनुसार महाकाव्य का प्रभाव और प्रयोजन भी त्रासदी के समान होना चाहिए, अर्थात् मनोवेगों का विरेचन, उसका प्रयोजन और तज्जन्य मन:शांति उसका प्रभाव होना चाहिए। यह प्रभाव नैतिक अथवा रागात्मक अथवा दोनों प्रकार का हो सकता है।
भाषा, शैली और छंद
अरस्तू के शब्दों में महाकाव्य की शैली का भी "पूर्ण उत्कर्ष यह है कि वह प्रसन्न (प्रसादगुण युक्त) हो किंतु क्षुद्र न हो।" अर्थात् गरिमा तथा प्रसादगुण महाकाव्य की शैली के मूल तत्त्व हैं और गरिमा का आधार है असाधारणता। उनके मतानुसार महाकाव्य की भाषाशैली त्रासदी की करुणमधुर अलंकृत शैली से भिन्न, लोकातिक्रांत प्रयोगों से कलात्मक, उदात्त एवं गरिमावरिष्ठ होनी चाहिए।
महाकाव्य की रचना के लिये वे आदि से अंत तक एक ही छंद - वीर छंद - के प्रयोग पर बल देते हैं क्योंकि उसका रूप अन्य वृत्तों की अपेक्षा अधिक भव्य एवं गरिमामय होता है जिसमें अप्रचलित एवं लाक्षणिक शब्द बड़ी सरलता से अंतर्भुक्त हो जाते हैं। परवर्ती विद्वानों ने भी महाकाव्य के विभिन्न तत्वों के संदर्भ में उन्हीं विशेषताओं का पुनराख्यान किया है जिनका उल्लेख आचार्य अरस्तू कर चुके थे। वीरकाव्य (महाकाव्य) का आधार सभी ने जातीय गौरव की पुराकथाओं को स्वीकार किया है। जॉन हेरिंगटन वीरकाव्य के लिये ऐतिहासिक आधारभूमि की आवश्यकता पर बल देते हैं और स्पेंसर वीरकाव्य के लिये वैभव और गरिमा को आधारभूत तत्त्व मानते हैं। फ्रांस के कवि आलोचकों पैलेतिए, वोकलें और रोनसार आदि ने भी महाकाव्य की कथावस्तु को सर्वाधिक गरिमायम, भव्य और उदात्त करते हुए उसके अंतर्गत ऐसे वातावरण के निर्माण का आग्रह किया है जो क्षुद्र घटनाओं से मुक्त एवं भव्य हो।
हिंदी के महाकाव्य
1. चंदबरदाईकृत पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य कहा जाता है।
2. मलिक मुहम्मद जायसी - पद्मावत
3. तुलसीदास - रामचरितमानस
4. आचार्य केशवदास - रामचंद्रिका
5. मैथिलीशरण गुप्त - साकेत
6. अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' - प्रियप्रवास
7. द्वारका प्रसाद मिश्र - कृष्णायन
8. जयशंकर प्रसाद - कामायनी
9. रामधारी सिंह 'दिनकर' - उर्वशी
10. रामकुमार वर्मा - एकलव्य
11. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' - उर्मिला
12. गुरुभक्त सिंह - नूरजहां, विक्रमादित्य
13. अनूप शर्मा - सिद्धार्थ, वर्द्धमान
14. रामानंद तिवारी - पार्वती
15. गिरिजा दत्त शुक्ल 'गिरीश' - तारक वध
16. नन्दलाल सिंह 'कांतिपति' - श्रीमान मानव की विकास यात्रा
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