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शनिवार, 16 सितंबर 2023

हिंदी के विकास में क्षेत्रीय भाषाओं/बोलिओं का योगदान

लेख
हिंदी के विकास में क्षेत्रीय भाषाओं/बोलिओं का योगदान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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भाषा क्या है?

                   भाषा के माध्यम से मनुष्य बोलकर, लिखकर या संकेत कर परस्पर अपना विचार सरलता, स्पष्टता, निश्चितता तथा पूर्णता के साथ प्रकट करता है। अपनी अनुभूतियों या मनोभाव को व्यक्त करना भाषा है। भाषा के तीन रूप वाचिक (मौखिक), लिखित तथा सांकेतिक हैं ।

                   अन्य जीवों की तरह मनुष्य ने भी आरंभ में बोलकर तथा संकेत कर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया। चिंतन शक्ति का विकास होने पर प्रकृति में निहित ध्वनियों की नकल कर मनुष्य ने संवाद किया। वन में सिंह को देखकर वानर जिस तरह हूप-हूप की ध्वनि कर अपने साथियों को सूचित करता है, वैसे ही मनुष्य भी करता रहा होगा। क्रमश: ध्वनि विशेष तथा ध्वनियों की आवर्त्ति, ध्वनियों का योग कर मनुष्य ने अक्षर (सबसे छोटा ध्वनि खंड जिसे नष्ट न किया जा सके), शब्द, वाक्यांश, वाक्य आदि को अपनाया। कालांतर में ध्वनियों के लिए संकेत चिह्न निश्चित किए गए जिन्हें वर्ण कहा गया। चिह्नों के सरह अर्थ संश्लिष्ट किए जाने पर लिपि का जन्म हुआ। सांकेतिक भाषा के ३ अँग रंग संकेत- चौराहों पर यातायात नियंत्रण हेतु लाल-हरे संकेत, ध्वनि संकेत- विद्यालय में अवकाश की घंटी आदि तथा अँग संकेत यातायात सिपाही द्वारा हस्त संचालन कार यातायात नियंत्रण है।

                   भाषा शास्त्री डॉ. बाबूराम सक्सेना के अनुसार, “भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और एक ऐसी शक्ति है, जो मनुष्य के विचारों, अनुभवों और संदर्भों को व्यक्त करती है, जिन ध्वनि चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उनकी समष्टि को ही भाषा कहा जाता है।”

                   ग्रियर्सन के अनुसार भारत में 6 भाषा-परिवार, 179 भाषाएँ और 544 बोलियाँ हैं-

(क) भारोपीय परिवार: उत्तरी भारत में बोली जानेवाली भाषाएँ।

(ख) द्रविड़ परिवार: तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम।

(ग) आस्टिक परिवार: संताली, मुंडारी, हो, सवेरा, खड़िया, कोर्क, भूमिज, गदवा, फलौंक, वा, खासी, मोनख्मे, निकोबारी।

(घ) तिब्बती-चीनी : लुशेइ, मेइथेइ, मारो, मिश्मी, अबोर-मिरी, अक।

(ड़) अवर्गीकृत : बुरूशास्की, अडमानी

(च) करेन तथा मन: बर्मा की भाषा (जो अब स्वतंत्र है)

बोली क्या है?

                   बोली भाषा का आरंभिक रूप है। बोलि एक सीमित क्षेत्र में बोली जाती है, भाषा अपेक्षाकृत अधिक बड़े क्षेत्र में बोली जाती है। बोली में व्याकरण संबंधी बंधन लचीले होते हैं, भाषा में रूढ़। बोलियों में कहा-लिखा आगे साहित्य लोक साहित्य कहा जाता है। बोली वह नींव है जिस पर भाषा का भव्य प्रसाद निर्मित किया जाता है। भारत के विविध अंचलों में लगभग ६५० बोलियाँ बोली जाती हैं।

हिंदी की बोलियाँ

                   हिंदी के मूल में विविध अंचलों में प्रचलित बोलियाँ रही हैं, इसी कारण देश के विविध भागों में आम जनों द्वारा बोली जाती हिंदी में अंतर मिलता है। अपभ्रंश से राजस्थानी हिन्दी, शौरसेनी से पश्चिमी हिन्दी, अर्द्धमागधी से पूर्वी हिन्दी, मागधी से बिहारी हिन्दी’ तथा खस से पहाड़ी हिन्दी का विकास हुआ है राजस्थानी हिंदी की बोलियाँ मारवाड़ी, मेवाती, मेवाड़ी, हाड़ौती, शेखावाटी, झुंझाड़ी आदि, पश्चिमी हिंदी की बोलियाँ बृज, बांगर, बुन्देली, कन्नौजी आदि, पूर्वी हिंदी की बोलियाँ अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी आदि, बिहारी हिंदी की बोलियाँ अंगिका, बज़्जिका, भोजपुरी, मैथिली, मगही आदि तथा पहाड़ी हिंदी की बोलियाँ गढ़वाली आदि हैं। हिन्दी भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से नहीं, अपभ्रंश भाषाओं से और अपभ्रंश की उत्पत्ति प्राकृत से हुई है। प्राकृत भाषाओं के बाद अपभ्रंशों का जन्म हुआ और उनसे वर्तमान संस्कृतोत्पन्न भाषाओं की। हमारी वर्तमान हिन्दी, अर्द्धमागधी और शौरसेनी अपभ्रंश से निकली है।

राष्ट्र-भाषा

                   किसी राष्ट्र के अधिकांश क्षेत्र में अधिकांश जनों द्वारा समझी, बोली, पढ़ी और/या लिखी जानेवाली भाषा को राष्ट्र-भाषा कहते हैं। हिंदी इसी अर्थ में राष्ट्र-भाषा है। भारत की अन्य कोई भी भाषा हिंदी से अधिक समझी, बोली, पढ़ी और/या लिखी नहीं जाती है।

राज-भाषा

                   किसी राष्ट्र के संविधान द्वारा देश की सरकार के काम-काज हेतु निर्धारित भाषा को राज-भाषा कहा जाता है। यह शासन-प्रशासन के दैनंदिन काम-काज की भाषा होती है। भारत सरकार की राज-भाषा हिंदी है।

राज्य-भाषा

                   किसी राज्य के अधिकांश भूभाग में और/या अधिकांश लोगों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली भाषा उस राज्य की राज्य-भाषा होती है। जैसे राजस्थान में राजस्थानी, मध्य प्रदेश में हिंदी, महाराष्ट्र में मराठी, बंगाल में बांग्ला वहाँ की राज्य भाषा हैं।

भाषा के आधार

                   भाषा के दो मुख्य आधार मानसिक आधार (Mental Aspect)- वक्ता द्वारा अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त विचार या भाव तथा भौतिक आधार (Physical Aspect) वर्ण, अनुतान, स्वराघात आदि जिनके सहारे भाषा में प्रयुक्त ध्वनियाँ और इनसे निकलनेवाले विचारों या भावों को ग्रहण किया जाता है, होते हैं। उदाहरण 'नदी' शब्द के अर्थ से वक्ता और श्रोता दोनों को ज्ञात होगा। भौतिक आधार अभिव्यक्ति का साधन है और मानसिक आधार साध्य। दोनों के मिलने से ही भाषा का निर्माण होता है। इन्हें ही ‘बाह्य भाषा’ (Outer Speech) और आन्तरिक भाषा(Inner Speech) कहा जाता है।

देवनागरी लिपि

                   ‘हिन्दी’ और ‘संस्कृत’ देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। ‘देवनागरी’ लिपि का विकास ‘ब्राह्री लिपि’ से हुआ, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात नरेश जयभट्ट के एक शिलालेख में मिलता है। 8वीं एवं 9वीं सदी में क्रमशः राष्ट्रकूट नरेशों तथा बड़ौदा के ध्रुवराज ने अपने देशों में इसका प्रयोग किया था। महाराष्ट्र में इसे ‘बालबोध’ के नाम से संबोधित किया गया।देवनागरी लिपि पर तीन भाषाओं का महत्वपूर्व प्रभाव है।

(i) प्रभाव: पहले देवनागरी लिपि में जिह्वामूलीय ध्वनियों को अंकित करने के चिन्ह नहीं थें, जो बाद में फारसी से प्रभावित होकर विकसित हुए- क, ख, ग, ज, फ।

(ii) बांग्ला प्रभाव: गोल-गोल लिखने की परम्परा बांग्ला लिपि के प्रभाव के कारण शुरू हुई।

(iii) रोमन प्रभाव: इससे प्रभावित हो विभिन्न विराम चिन्हों, जैसे- अल्प विराम, अर्द्ध विराम, प्रश्नसूचक चिन्ह, विस्मयसूचक चिन्ह, उद्धरण चिन्ह एव पूर्ण विराम में ‘खड़ी पाई’ की जगह ‘बिन्दु (Point) का प्रयोग होने लगा।

देवनागरी लिपि की विशेषताएँ : 

                   वैज्ञानिक ध्वनि क्रम, प्रत्येक वर्ग में अघोष फिर सघोष वर्ण, वर्गों की अंतिम ध्ववियाँ नासिक्य, एक समान छपाई एवं लिखाई, ह्रस्व एवं दीर्घ स्वर विभाजन, निश्चित मात्राएँ, उच्चारण एवं प्रयोग में समानता तथा प्रत्येक के लिए अलग लिपि चिन्ह हैं।

हिंदी पर बोलिओं / लोक भाषाओं का प्रभाव

१. शब्द: हिंदी का शब्द भंडार समृद्ध है। इस समृद्धि का मूल बोलियाँ ही हैं। हिंदी ने भारत की सभी बोलियों से निस्संकोच शब्द ग्रहण कर अपने बना लिए हैं। कुछ शब्द ज्यों की त्यों लिए गए हैं, कुछ को हिंदी ने अपनी प्रकृति के अनुसार ढाल लिया है। देशज तथा हिंदी में प्रयुक्त कुछ शब्द: देशज अवगुन - अवगुण, बुंदेली अठवाई (आठ पूड़ी), अवधी- परपंच - प्रपंच, पहुना - अतिथि, ब्रज गोधन - गौएँ, भोजपुरी अँकवार - आलिंगन, मालवी माच - मञ्च, कौरवी इनने-उनने - इन्होंने, उन्होंने, मगही - दुल्हिन - दुल्हन, भोजपुरी गोड़ - पैर, लबरधोंधों - मंद बुद्धि, मैथली बाभन - ब्राह्मण, छत्तीसगढ़ी माई - माता, मराठी आई - माँ, गुजराती अथाणुं - अचार, काठियावाड़ी काठी - कद, मारवाड़ी चोखा - सुंदर, मेवाड़ी बखाण - बखान, हाड़ौती चुनड़ -चुनरी, ऊबटणो - उबटन, शेखावाटी बावळी - बावली, ढुंढाड़ी आंपा - आप, रांखो - रखिए, कन्नौजी बिट्टी - बेटी, बैंसवाड़ी कलसा - कलश, हरियाणवी बाळना - बालना या जलाना, पंजाबी यकदम - एकदम आदि, डोगरी जजमान - यजमान, गढ़वाली, बन/बोण - वन, असमी मोय - मैं, तोय/तुमि - तुम, बोडो राजि - राजी/सहमत, खुसि - ख़ुशी, बांग्ला जॉल - जल, ओनुग्रहो - अनुग्रह, गल्प- गप्प/कहानी, उड़िया तुमे - तुम, चालिबा - चलो, संथाली सुकरी - सुअर, कोंहडा - कुम्हड़ा, तमिल तपला - तबला, तुण्टु- टुकड़ा, तेलुगु कष्टमु - कष्ट, तक़रारु - तकरार, मलयालम मात्रं - मात्र, स्थलत्त् - जगह, कन्नड़ लवंग लौंग, सक्करे - शकर, कोंकड़ी भितरलें - भीतरी, काळोख - कालिख, अँधेरा आदि। हिंदी ने विदेशी भाषाओँ से शब्द ग्रहण में भी कोताही नहीं की है। उदाहरण- अरबी- मतलब, कीमत, फ़ारसी- आराम, दूकान, तुर्की- कनात, नाशपाती, पुर्तगाली- अनन्नास, गमला, फ़्रांसिसी- पुलिस, काजू, स्पेनी- सिगरेट, सिगार, जापानी- रिक्शा, हाइकु, रुसी- स्पुतनिक, जार, ग्रीक- सुरंग, चीनी- चाय, लीची, लैटिन - ओशो, सुपर, बोनस, डच- ड्रिल, बम, फ्रेंच- मेयर, मीनू, सूप, अंग्रजी- सर, हेलो, अंकल आदि।

२. मुहावरे एवं कहावतें: हिंदी ने देश के विविध अंचलों की बोलियों से उनमें प्रचलित मुहावरे ग्रहण किए हैं। मुहावरे व कहावतें भाषा को संकेत में कम शब्दों में गहन अर्थ व्यक्त करने में समर्थ तथा बनाते हैं। हिंदी में बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी आदि के अनगिनत मुहावरे हैं। उदाहरण: अकेलो चना भार नईं फोरत (अकेला कहना भाड़ नहीं फोड़ता), घी देत बामन नर्रात, करिया अक्षर भैंस बराबर आदि।

३. छंद : अलग-अलग बोलिओं में उनके क्षेत्र के मौसम, फसल, पर्व, लोक प्रथाओं आदि के अनुरूप छंदों का विकास हुआ है। अपभ्रंश से होते हुए ये छंद हिंदी में भी आ गए हैं। हिंदी ने केवल बोलिओं ही नहीं अन्य देशी-विदेशी भाषाओं से भी छंद ग्रहण कर खुद को समृद्ध किया है। उदाहरण पंजाबी से माहिया, बुंदेली से आल्हा, मराठी से लावड़ी, फारसी से रुबाई, गजल आदि, अंग्रेजी से सॉनेट, जापानी से हाइकु, ताँका, बाँका, स्नैर्यु आदि।

                   सारत: हिंदी विश्ववाणी है इसलिए वह आवश्यकतानुसार विश्व की किसी भी भाषा-बोली से शब्द ग्रहण करती और उसे देती है।  हमें हिंदी की उदारतावादी सहिष्णुता को अपने जीवन में भी उतरना चाहिए तभी हम विश्व मानव बनकर वसुधैव कुटुंबकं, अयमात्मा ब्रह्म और  वैश्विक नीड़म की उदात्त विरासत के पात्र हो सकेंगे। 
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com  


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