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शनिवार, 23 सितंबर 2023

मंदिर-मस्जिद, श्रेया, अर्णव, आरोही, नवगीत, दोहे, कुण्डलिया, शशि पाधा

दोहा सलिला
*
मीरा का पथ रोकना, नहीं किसी को साध्य।
दिखें न लेकिन साथ हैं, पल-पल प्रभु आराध्य।।
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श्री धर कर आचार्य जी, कहें करो पुरुषार्थ।
तभी सुभद्रा विहँसकर, वरण करेगी पार्थ।।
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सरस्वती-सुत पर रहे, अगर लक्ष्मी-दृष्टि।
शक्ति मिले नव सृजन की, करें कृपा की वृष्टि।।
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राम अनुज दोहा लिखें, सतसई सीता-राम।
महाकाव्य रावण पढ़े, तब हो काम-तमाम।।
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व्यंजन सी हो व्यंजना, दोहा रुचता खूब।
जी भरकर आनंद लें, रस-सलिला में डूब।।
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काव्य-सुधा वर्षण हुआ, श्रोता चातक तृप्त।
कवि प्यासा लिखता रहे, रहता सदा अतृप्त।।
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शशि-त्यागी चंद्रिका गह, सलिल सुशोभित खूब।
घाट-बाट चुप निरखते, शास्वत छटा अनूप।।
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दीप जलाया भरत ने, भारत गहे प्रकाश।
कीर्ति न सीमित धरा तक, बता रहा आकाश।।
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राव वही जिसने गहा, रामानंद अथाह।
नहीं जागतिक लोभ की, की किंचित परवाह।
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अविरल भाव विनीत कहँ, अहंकार सब ओर।
इसीलिए टकराव हो, द्वेष बढ़ रहा घोर।।
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तारे सुन राकेश के, दोहे तजें न साथ।
गयी चाँदनी मायके, खूब दुखा जब माथ।।
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कथ्य रखे दोहा अमित, ज्यों आकाश सुनील।
नहीं भाव रस बिंब में, रहे लोच या ढील।।
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वंदन उमा-उमेश का, दोहा करता नित्य।
कालजयी है इसलिए, अब तक छंद अनित्य।।
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कविता की आराधना, करे भाव के साथ।
जो उस पर ही हो सदय, छंद पकड़ता हाथ।।
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कवि-प्रताप है असीमित, नमन करे खुद ताज।
कवि की लेकर पालकी, चलते राजधिराज।।
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अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय सृष्टि।
कथ्य, भाव रस बिंब लय, करें सत्य की वृष्टि।।
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करे कल्पना कल्पना, दोहे में साकार।
पाठक पढ़ समझे तभी, भावों का व्यापार।।
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दूर कहीं क्या घट रहा, संजय पाया देख।
दोहा बिन देखे करे, शब्दों से उल्लेख।।
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बेदिल से बेहद दुखी, दिल-डॉक्टर मिल बैठ।
कहें बिना दिल किस तरह, हो अपनी घुसपैठ।।
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मुक्तक खुद में पूर्ण है, होता नहीं अपूर्ण।
छंद बिना हो किस तरह, मुक्तक कोई पूर्ण।।
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तनहा-तनहा फिर रहा, जो वह है निर्जीव।
जो मनहा होकर फिर, वही हुआ संजीव।।
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पूर्ण मात्र परमात्म है, रचे सृष्टि संपूर्ण।
मानव की रचना सकल, कहें लोग अपूर्ण।।
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छंद सरोवर में खिला, दोहा पुष्प सरोज।
प्रियदर्शी प्रिय दर्श कर, चेहरा छाए ओज।.
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किस लय में दोहा पढ़ें, समझें अपने आप।
लय जाए तब आप ही, शब्द-शब्द में व्याप।।
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कृष्ण मुरारी; लाल हैं, मधुकर जाने सृष्टि।
कान्हा जानें यशोदा, अपनी-अपनी दृष्टि।।
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नारायण देते विजय, अगर रहे यदि व्यक्ति।
भ्रमर न थकता सुनाकर, सुनें स्नेहमय उक्ति।।
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शकुंतला हो कथ्य तो, छंद बने दुष्यंत।
भाव और लय यों रहें, जैसे कांता-कंत।।
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छंद समुन्दर में खिले, दोहा पंकज नित्य।
तरुण अरुण वंदन करे, निरखें रूप अनित्य।।
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विजय चतुर्वेदी वरे, निर्वेदी की मात।
जिसका जितना अध्ययन, उतना हो विख्यात।।
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श्री वास्तव में गेह जो, कृष्ण बने कर कर्म।
आस न फल की पालता, यही धर्म का मर्म।।
*
राम प्रसाद मिले अगर, सीता सा विश्वास।
जो विश्वास न कर सके, वह पाता संत्रास।।
२३.९.२०१८
***
मुक्तक
एक से हैं हम मगर डरे - डरे
जी रहे हैं छाँव में मरे - मरे
मारकर भी वो नहीं प्रसन्न है
टांग तोड़ कह रहे अरे! अरे!!
२३.९.२०१६
***
दो रचनाकार एक कुंडलिनी
*
गरजा बरसा मेघ फिर , कह दी मन की बात
कारी बदरी मौन में सिसकी सारी रात - शशि पाधा
सिसकी सारी रात, अश्रु गिर ओस हो गए
मिला उषा का स्नेह, हवा में तुरत खो गए
शशि ने देखा बिम्ब सलिल में, बादल गरजा
सूरज दमका धूप साथ, फिर जमकर लरजा - संजीव 'सलिल'
***
नवगीत:
संजीव
*
एक शाम
करना है मीत मुझे
अपने भी नाम
.
अपनों से,
सपनों से,
मन नहीं भरा.
अनजाने-
अनदेखे
से रहा डरा.
परिवर्तन का मंचन
जब कभी हुआ,
पिंजरे को
तोड़ उड़ा
चाह का सुआ.
अनुबंधों!
प्रतिबंधों!!
प्राण-मन कहें
तुम्हें राम-राम.
.
ज्यों की त्यों
चादर कब
रह सकी कहो?
दावानल-
बड़वानल
सह, नहीं दहो.
पत्थर का
वक्ष चीर
गंग
सलिल सम बहो.
पाये को
खोने का
कुछ मजा गहो.
सोनल संसार
हुआ कब कभी कहो
इस-उस के नाम?
.
संझा में
घिर आयें
याद मेघ ना
आशुतोष
मौन सहें
अकथ वेदना.
अंशुमान निरख रहे
कालचक्र-रेख.
किस्मत में
क्या लिखा?,
कौन सका देख??
पुष्पा ले जी भर तू
ओम-व्योम, दिग-दिगंत
श्रम कर निष्काम।


बेंगलुरु, २२.९.२०१५
***
बाल रचनाएँ:
१. श्रेया रानी
श्रेया रानी खूब सयानी
प्यारी लगती कर नादानी
पल में हँसे, रूठती पल में
कभी लगे नानी की नानी
चाहे मम्मी कभी न टोंकें
करने दें जी भर मनमानी
लाड लड़ाती है दादी से
बब्बाजी से सुने कहानी
***
२. अर्णव दादा
अर्णव दादा गुपचुप आता
रहे शांत, सबके मन भाता
आँखों में सपने अनंत ले-
मन ही मन हँसता-मुस्काता
मम्मी झींके:'नहीं सुधरता,
कभी न खाना जी भर खाता
खेले कैरम हाथी-घोड़े,
ऊँट-वज़ीरों को लड़वाता
***
३. आरोही
धरती से निकली कोंपल सी
आरोही नन्हीं कोमल सी
अनजाने कल जैसी मोहक
हँसी मधुर, कूकी कोयल सी
उलट-पलटकर पैर पटकती
ज्यों मछली जल में चंचल सी
चाह: गोद में उठा-घुमाओ
करती निर्झर ध्वनि कलकल सी
***
सामयिक रचना:
मंदिर बनाम मस्जिद
नव पीढ़ी सच पूछ रही...
*
ईश्वर-अल्लाह एक अगर
मंदिर-मस्जिद झगड़ा क्यों?
सत्य-तथ्य सब बतलाओ
सदियों का यह लफड़ा क्यों?
*
इसने उसको क्यों मारा?
नातों को क्यों धिक्कारा?
बुतशिकनी क्यों पुण्य हुई?
किये अपहरण, ललकारा?
*
नहीं भूमि की तनिक कमी.
फिर क्यों तोड़े धर्मस्थल?
गलती अगर हुई थी तो-
हटा न क्यों हो परिमार्जन?
*
राम-कृष्ण-शिव हुए प्रथम,
हुए बाद में पैगम्बर.
मंदिर अधिक पुराने हैं-
साक्षी है धरती-अम्बर..
*
आक्रान्ता अत्याचारी,
हुए हिन्दुओं पर भारी.
जन-गण का अपमान किया-
यह फसाद की जड़ सारी..
*
ना अतीत के कागज़ हैं,
और न सनदें ही संभव.
पर इतिहास बताता है-
प्रगटे थे कान्हा-राघव..
*
बदला समय न सच बदला.
किया सियासत ने घपला..
हिन्दू-मुस्लिम गए ठगे-
जनता रही सिर्फ अबला..
*
एक लगाता है ताला.
खोले दूजा मतवाला..
एक तोड़ता है ढाँचा-
दूजे का भी मन काला..
*
दोनों सत्ता के प्यासे.
जन-गण को देते झाँसे..
न्यायालय का काम न यह-
फिर भी नाहक हैं फासें..
*
नहीं चाहता कोई दल.
मसला यह हो पाये हल..
पंडित,मुल्ला, नेता ही-
करते हलचल, हो दलदल..
*
जो-जैसा है यदि छोड़ें.
दिशा धर्म की कुछ मोड़ें..
मानव हो पहले इंसान-
टूट गए जो दिल जोड़ें..
*
पंडित फिर जाएँ कश्मीर.
मिटें दिलों पर पड़ी लकीर..
धर्म न मजहब को बदलें-
काफ़िर कहों न कुफ्र, हकीर..
२३-९-२०१० 
***



हर इंसां हो एक समान.



अलग नहीं हों नियम-विधान..



कहीं बसें हो रोक नहीं-



खुश हों तब अल्लाह-भगवान..



*



जिया वही जो बढ़ता है.



सच की सीढ़ी चढ़ता है..



जान अतीत समझता है-



राहें-मंजिल गढ़ता है..



*



मिले हाथ से हाथ रहें.



उठे सभी के माथ रहें..



कोई न स्वामी-सेवक हो-



नाथ न कोई अनाथ रहे..



*



सबका मालिक एक वही.



यह सच भूलें कभी नहीं..



बँटवारे हैं सभी गलत-



जिए योग्यता बढ़े यहीं..



*



हम कंकर हैं शंकर हों.



कभी न हम प्रलयंकर हों.



नाकाबिल-निबलों को हम



नाहक ना अभ्यंकर हों..



*



पंजा-कमल ठगें दोनों.



वे मुस्लिम ये हिन्दू को..



राजनीति की खातिर ही-



लाते मस्जिद-मन्दिर को..



*



जनता अब इन्साफ करे.



नेता को ना माफ़ करे..



पकड़ सिखाये सबक सही-



राजनीति को राख करे..



*



मुल्ला-पंडित लड़वाते.



गलत रास्ता दिखलाते.



चंगुल से छुट्टी पायें-



नाहक हमको भरमाते..



*



सबको मिलकर रहना है.



सुख-दुख संग-संग सहना है..



मजहब यही बताता है-



यही धर्म का कहना है..



*



एक-दूजे का ध्यान रखें.



स्वाद प्रेम का 'सलिल' चखें.



दूध और पानी जैसे-



दुनिया को हम एक दिखें..



*

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