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बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

दुर्गा

ॐ 
देवी गीत - 
*
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५ 
हुलस संतानें पुकारें। १४ 
*
नीले गगनवा से उतरो हे मैया! २१ 
धरती पे आओ तनक छू लौं पैंया। २१ 
माँगत हौं अँचरा की छैंया। १६ 
न मो खों मैया बिसारें। १४ 
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५ 
हुलस संतानें पुकारें। १४ 
खेतन मा आओ, खलिहानन बिराजो २१ 
पनघट मा आओ, अमराई बिराजो २१ 
पूजन खौं घर में बिराजो १५ 
दुआरे 'माता!' गुहारें। १४ 
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५ 
हुलस संतानें पुकारें। १४ 
साजों में, बाजों में, छंदों में आओ २२ 
भजनों में, गीतों में मैया! समाओ २१ 
रूठों नें, दरसन दे जाओ १६ 
छटा संतानें निहारें। १४ 
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५ 
हुलस संतानें पुकारें। १४ 
विक्रम वर्षारंभ, १८.३.२०१८ 
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आदि शक्ति दुर्गा वंदना 
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश. 
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश.... 
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार. 
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार..... 
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य. 
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य.. 
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप. 
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप.. 
जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार. 
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार..... 
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद. 
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद.. 
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग. 
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग. 
प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार. 
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार..... 
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब. 
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब.. 
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान- 
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान. 
ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार. 
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार..... 
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दुर्गा वंदन
सिंहस्था शशिशेखरा मरकतप्रख्यैश्चतुर्भिर्भुजैः
शंखं चक्रधनुः शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता।
आमुक्तांगदहारकंकणरणत्काञ्चीरणन्नूपुरा
दुर्गा दुर्गतिहारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला॥
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सिँहारूढ़ शशि सिर सजा, मरकत मणि सी आभ।
शंख चक्र धनु शर भुजा, तीन नयन अरुणाभ।।
कंगन बाजूबंद नथ, कुंडल करधन माल।
भूषित दुर्गा दूर कर, दुर्गति रहें दयाल।।
*
सिंह पर सवार, मस्तक पर चन्द्र मुकुट सजाए, मरकत मणि के समान कांतिनय, चार करों में शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण किए, त्रिनेत्री नेत्रो बाजूबंद ,हार, खनखन करती करधन, रुनझुन करते नूपुरों से विभूषित,कानों में रत्नजटित झिलमिलाते कुंडल पहने माँ दुर्गा हमारी दुर्गति दूर करें।
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संवस
नवसंवत्सर २०७६
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दुर्गा देवी स्तवन 
तव च का किल न स्तुतिरंबिके सकल शब्दमयी किल ते तनु:। 
निखिलमूर्तिषु मे भवदन्वयोमनसिजासु बहि: प्रसरासु च।। 
इति विचिंत्य शिवे! शमिताशिवे! जगति जातमयत्नवशादिदिम्। 
स्तुतिजपार्चनचिंतनवर्जिता न खलु काचन कालकलास्ति मे।। 
भावानुवाद 
किस ध्वनिस्तवन में न माँ, सकल शब्दमय देह। 
मन-अंदर-बाहर तुम्हीं, निखिल मूर्ति भव गेह।। 

सोच-असोचे भी रहे, शिवे तुम्हारा ध्यान। 
स्तुति-जप पूजार्चन रहित, पल न एक भी मान।। 

कौन वांग्मय जो नहीं, करे तुम्हारा गान। 
सकल शब्दमय मातु तुम, तुम्हीं तान सुर गान।। 

हर संकल्प-विकल्प में, मातु मिले दीदार। 
हो भीतर-बाहर तुम्हीं, तुम ही बिंदु प्रसार।। 

बिन प्रयास चिंतन बिना, शिवे! तुम्हारा ध्यान। 
करे अमंगल ध्वंस हर, हो कल्याण सुजान।। 

बिन प्रयास पल-पल रहे, मातु! तुम्हारा ध्यान। 
पूजन चिंतन-मनन जप, स्तवन सतत तव गान।। 
शक संवत् २०७६,५-४-२०१९
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श्री दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र
हिंदी काव्यानुवाद
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शिव बोलेः ‘हे पद्ममुखी! मैं कहता नाम एक सौ आठ।
दुर्गा देवी हों प्रसन्न नित सुनकर जिनका सुमधुर पाठ।१।
ओम सती साघ्वी भवप्रीता भवमोचनी भवानी धन्य।
आर्या दुर्गा विजया आद्या शूलवती तीनाक्ष अनन्य।२।
पिनाकिनी चित्रा चंद्रघंटा, महातपा शुभरूपा आप्त।
अहं बुद्धि मन चित्त चेतना, चिता चिन्मया दर्शन प्राप्त।३।
सब मंत्रों में सत्ता जिनकी, सत्यानंद स्वरूपा दिव्य।
भाएॅं भाव-भावना अनगिन, भव्य-अभव्य सदागति नव्य।४।
शंभुप्रिया सुरमाता चिंता, रत्नप्रिया हों सदा प्रसन्न।
विद्यामयी दक्षतनया हे!, दक्षयज्ञ ध्वंसा आसन्न।५।
देवि अपर्णा अनेकवर्णा पाटल वदना-वसना मोह।
अंबर पट परिधानधारिणी, मंजरि रंजनी विहॅंसें सोह।६।
अतिपराक्रमी निर्मम सुंदर, सुर-सुंदरियॉं भी हों मात।
मुनि मतंग पूजित मातंगी, वनदुर्गा दें दर्शन प्रात।७।
ब्राम्ही माहेशी कौमारी, ऐंद्री विष्णुमयी जगवंद्य।
चामुंडा वाराही लक्ष्मी, पुरुष आकृति धरें अनिंद्य।८।
उत्कर्षिणी निर्मला ज्ञानी, नित्या क्रिया बुद्धिदा श्रेष्ठ ।
बहुरूपा बहुप्रेमा मैया, सब वाहन वाहना सुज्येष्ठ।९।
शुंभ-निशुंभ हननकर्त्री हे!, महिषासुरमर्दिनी प्रणम्य।
मधु-कैटभ राक्षसद्वय मारे, चंड-मुंड वध किया सुरम्य।१०।
सब असुरों का नाश किया हॅंस, सभी दानवों का कर घात।
सब शास्त्रों की ज्ञाता सत्या, सब अस्त्रों को धारें मात।११।
अगणित शस्त्र लिये हाथों में, अस्त्र अनेक लिये साकार।
सुकुमारी कन्या किशोरवय, युवती यति जीवन-आधार।१२।
प्रौढ़ा नहीं किंतु हो प्रौढ़ा, वृद्धा मॉं कर शांति प्रदान।
महोदरी उन्मुक्त केशमय, घोररूपिणी बली महान।१३।
अग्नि-ज्वाल सम रौद्रमुखी छवि, कालरात्रि तापसी प्रणाम।
नारायणी भद्रकाली हे!, हरि-माया जलोदरी नाम।१४।
तुम्हीं कराली शिवदूती हो, परमेश्वरी अनंता द्रव्य।
हे सावित्री! कात्यायनी हे!!, प्रत्यक्षा विधिवादिनी श्रव्य।१५।
दुर्गानाम शताष्टक का जों, प्रति दिन करें सश्रद्धा पाठ।
देवि! न उनको कुछ असाध्य हो , सब लोकों में उनके ठाठ।१६।
मिले अन्न धन वामा सुत भी, हाथी-घोड़े बँधते द्वार।
सहज साध्य पुरुषार्थ चार हो, मिले मुक्ति होता उद्धार।१७।
करें कुमारी पूजन पहले, फिर सुरेश्वरी का कर ध्यान।
पराभक्ति सह पूजन कर फिर, अष्टोत्तर शत नाम ।१८।
पाठ करें नित सदय देव सब, होते पल-पल सदा सहाय।
राजा भी हों सेवक उसके, राज्य लक्ष्मी प् वह हर्षाय।१९।
गोरोचन, आलक्तक, कुंकुम, मधु, घी, पय, सिंदूर, कपूर।
मिला यंत्र लिख जो सुविज्ञ जन, पूजे हों शिव रूप जरूर।२०।
भौम अमावस अर्ध रात्रि में, चंद्र शतभिषा हो नक्षत्र।
स्तोत्र पढ़ें लिख मिले संपदा, परम न होती जो अन्यत्र।२१।
।।इति श्री विश्वसार तंत्रे दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र समाप्त।।
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ॐ 
। अथ देव्या कवचं । 
। यह देवी कवच है । 

ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप छंद: चामुंडा देवता, 
अंगन्यासोक्तमातरो बीजं, दिग्बंधदेवतास्तत्त्वं , 
श्री जगदंबा प्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोग:। 

। ॐ यह श्री चंडी कवच है, ब्रह्मा ऋषि ने गाया है। 
। छंद अनुष्टुप, देव चामुंडा, अंग न्यास हित भाया है। 
। मातृ-बीज दिग्बंध देव का, जगदंबा के हेतु करे। 
। सप्तशती के पाठ जाप, विनियोग हेतु स्मरण करे। 

।। ॐ नमश्चण्डिकायै ।। 
।। ॐ चंडिका देवी नमन।। 

मार्कण्डेय उवाच।। 
मार्कण्डेय बोले।। 

ॐ यद् गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ! ।।१ ।।
ॐ लोक में परम गुप्त जो, सब प्रकार रक्षा करता।
नहीं कहा हो किसी अन्य से, कहें पितामह वह मुझसे।१।।
मार्कण्डेय जी ने कहा - हे पितामह! जो साधन संसार में अत्यन्त गोपनीय है, जिनसे मनुष्य मात्र की रक्षा होती है, वह साधन मुझे बताइए ।
ब्रह्मोवाच:
अस्ति गुह्यतमं विप्र ! सर्व- भूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ।।२ ।।
ॐ लोक में परम गुप्त जो, सब प्रकार रक्षा करता।
नहीं कहा हो किसी अन्य से, कहें पितामह वह मुझसे।२।ब्रह्मा जी ने कहा --हे ब्राह्मन! सम्पूर्ण प्राणियों का कल्याण करने वाला देवों का कवच ( रक्षा कवच ) यह स्तोत्र है,इनके पाठ करने से साधक सदैव सुरक्षित रहता है, अत्यन्त गोपनीय है, हे महामुने! उसे सुनिए ।

प्रथमं शैलपुत्री च , द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्दघण्टेति , कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।३ ।।
पहली शैलपुत्री हैं, दूसरी ब्रह्मचारिणी।
चंद्रघंटा तीसरी हैं, कूष्माण्डा हैं चौथी।३।हे मुने ! दुर्गा माँ की नव शक्तियाँ हैं-----पहली शक्ति का नाम शैलपुत्री ( हिमालय कन्या पार्वती ) , दूसरी शक्ति का नाम ब्रह्मचारिणी (परब्रह्म परमात्मा को साक्षात कराने वाली ) , तीसरी शक्ति चन्द्रघण्टा हैं। चौथी शक्ति कूष्माण्डा ( सारा संसार जिनके उदर में निवास करता हो ) हैं।

पंचमं स्कन्दमातेति , षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रीति , महागौरीति चाष्टमम् ।। ४ ।।
पाँचवी स्कन्द माता, छठी हैं कात्यायनी।
कालरात्रि सातवीं हैं, महागौरी हैं आठवीं।४।पाँचवीं शक्ति स्कन्दमाता ( कार्तिकेय की जननी ) हैं।छठी शक्ति कात्यायनी (महर्षि कात्यायन के अप्रतिभ तेज से उत्पन्न होने वाली) हैं सातवीं शक्ति कालरात्रि ( महाकाली ) तथा आठवीं शक्ति महागौरी हैं।

नवमं सिद्धिदात्री , च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि , ब्रह्मणैव महात्मना ।।५ ।।
हैं नौ देवी सिद्धिदात्री, सुकीर्तिवान हैं नौ दुर्गा।
उक्त नामों को रखा है, ब्रह्मा ने ही महात्मना।५।ये नौ शक्तियाँ सिद्धिदात्री हैं और ये नव दुर्गा कही गई हैं। इनके नौ नाम ब्रह्मा ने ही रखे हैं। 
अग्निना दह्यमानस्तु , शत्रुमध्ये गतो रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव , भयार्ता: शरणं गता: ।।६ ।।
जल रहा मनु अग्नि में या घिरा रण में शत्रुओं से।
विषम संकटग्रस्त हो भयभीत, आ मैया-शरण में ।६।जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, युद्ध भूमि मे शत्रुओं से घिर गया हो तथा अत्यन्त कठिन विपत्ति में फँस गया हो, वह यदि भगवती दुर्गा की शरण का सहारा ले ले ।

न तेषां जायते , किंचिदशुभं रणसंकटे ।
नापदं तस्य पश्यामि , शोक-दु:ख भयं न हि ।।७ ।।
बाल भी बाँका न होता, युद्ध खतरों संकटों में।
छू नहीं पाता उन्हें दुःख, शोक भय विपदा-क्षणों में।७।तो इसका कभी युद्ध या संकट में कोई कुछ विगाड़ नहीं सकता , उसे कोई विपत्ति घेर नहीं सकती न उसे शोक , दु:ख तथा भय की प्राप्ति ही हो सकती है।

यैस्तु भक्तया स्मृता नूनं , तेषां वृद्धि : प्रजायते ।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि ! , रक्षसे तान्न संशय: ।।८।।
भगवती को भक्तिपूर्वक याद जो करते निरंतर।
करें रक्षा अंब उनकी, अभ्युदय होता न संशय।८।जो लोग भक्तिपूर्वक भगवती का स्मरण करते हैं , उनका अभ्युदय होता रहता है। हे भगवती ! जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं , निश्चय ही तुम उनकी रक्षा करती हो।

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा , वाराही महिषासना ।
ऐन्द्री गजसमारूढा , वैष्णवी गरूड़ासना ।।९ ।।
प्रेतवाहनी हैं चामुंडा, वाराही महिषासनी।
ऐन्द्री ऐरावत आसीना, गरुण विराजीं वैष्णवी।९।चण्ड -मुण्ड का विनाश करने वाली देवी चामुण्डा प्रेत के वाहन पर निवास करती हैं ,वाराही महिष के आसन पर रहती हैं , ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है, वैष्नवी का वाहन गरुड़ है।

माहेश्वरी वृषारूढ़ा , कौमारी शिखिवाहना ।
लक्ष्मी: पद्मासना देवी , पद्महस्ता हरिप्रिया ।।१० ।।
वृषारूढ़ माहेश्वरी, कौमारी हैं मोर पर।
विष्णुप्रिया कर-कमल ले, रमा विराजित कमल पर ।१०।माहेश्वरी बैल के वाहन पर तथा कौमारी मोर के आसन पर विराजमान हैं। श्री विष्णुपत्नी भगवती लक्ष्मी के हाथों में कमल है तथा वे कमल के आसन पर निवास करती हैं।

श्वेतरूपधरा देवी , ईश्वरी वृषवाहना ।
ब्राह्मी हंससमारूढ़ा , सर्वाभरण भूषिता ।।११।।
श्वेत रूप धरे देवी, ईश्वरी वृष पर विराजित।
हंस पर आरूढ़ ब्राह्मी, अलंकारों से अलंकृत।११।श्वेतवर्ण वाली ईश्वरी वृष-बैल पर सवार हैं , भगवती ब्राह्मणी ( सरस्वती ) सम्पूर्ण आभूषणों से युक्त हैं तथा वे हंस पर विराजमान रहती हैं।

इत्येता मातर: सर्वा: , सर्वयोग समन्विता ।
नाना भरण शोभाढ्या ,नानारत्नोपशोभिता: ।।१२ ।।
सब माताएँ योग की सर्व शक्ति से युक्त।
सब आभूषण सुसज्जित, रत्न न कोई त्यक्त।१२।अनेक आभूषण तथा रत्नों से देदीप्यमान उपर्युक्त सभी देवियाँ सभी योग शक्तियों से युक्त हैं।

दृश्यन्ते रथमारूढ़ा , देव्य: क्रोधसमाकुला: ।
शंख चक्र गदां शक्तिं, हलं च मूसलायुधम् ।।१३ ।।
सभी देवियाँ क्रोध से आकुल रथ आसीन।
शंख चक्र हल गदा सह, मूसल शक्ति प्रवीण।१३।इनके अतिरिक्त और भी देवियाँ हैं, जो दैत्यों के विनाश के लिए तथा भक्तों की रक्षा के लिए क्रोधयुक्त रथ में सवार हैं तथा उनके हाथों में शंख ,चक्र ,गदा ,शक्ति, हल, मूसल हैं।

खेटकं तोमरं चैव , परशुं पाशमेव च ।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च , शार्ड़गमायुधमुत्तमम्।।१४।।
खेटक तोमर परशु अरु पाश लिए निज हाथ।
कुंत - त्रिशूल लिए हुए, धनु शार्ङ्ग है साथ।१४खेटक, तोमर, परशु , (फरसा) , पाश , भाला, त्रिशूल तथा उत्तम शार्ड़ग धनुष आदि अस्त्र -शस्त्र हैं।

दैत्यानां देहनाशाय , भक्तानामभयाय च ।
धारन्तया युधानीत्थ , देवानां च हिताय वै ।।१५ ।।
दैत्य-दलों का नाश कर, हरें भक्त की पीर। 
धारण करतीं शस्त्र सब, देवहितार्थ अधीर।१५।जिनसे देवताओं की रक्षा होती है तथा देवी जिन्हें दैत्यों को नाश तथा भक्तों के मन से भय नाश करने के लिए धारण करती हैं।

नमस्तेस्तु महारौद्रे , महाघोर पराक्रमें ।
महाबले महोत्साहे , महाभयविनाशिनि ।।१६ ।।
तुम्हें नमन है महारौद्रा, महाघोरा पराक्रमी।
महा बल-उत्साहवली, तुम्हीं भय विनाशिनी।१६।महाभय का विनाश करने वाली , महान बल, महाघोर क्रम तथा महान उत्साह से सुसम्पन्न हे महारौद्रे तुम्हें नमस्कार है।


त्राही मां देवि ! दुष्प्रेक्ष्ये , शत्रूणां भयवद्धिनि ।प्राच्यां रक्षतु मामेन्द्री , आग्नेय्यामग्निदेवता ।।१७ ।।
त्राहिमाम् है कठिन देखना, तुमको देवी अरिभयवर्धक।
पूर्व दिशा में ऐन्द्री रक्षें, अग्निदेवता आग्नेय में।१७।हे शत्रुओं का भय बढ़ाने वाली देवी ! तुम मेरी रक्षा करो। दुर्घर्ष तेज के कारण मैं तुम्हारी ओर देख भी नहीं सकता । ऐन्द्री शक्ति पूर्व दिशा में मेरी रक्षा करें तथा अग्नि देवता की आग्नेयी शक्ति अग्निकोण में हमारी रक्षा करें।

दक्षिणेअवतु वाराही , नैरित्वां खडगधारिणी ।
प्रतीच्यां वारूणी रक्षेद्- , वायव्यां मृगवाहिनी ।।१८ ।।
दक्षिण में वाराही देवी अरु नैऋत्य में खड्गधारिणी।
पश्चिम में वारुणी बचाएँ वायव्य में मृगवाहिनी।१८।वाराही शक्ति दक्षिन दिशा में, खडगधारिणी नैरित्य कोण में, वारुणी शक्ति पश्चिम दिशा में तथा मृग के ऊपर सवार रहने वाली शक्ति वायव्य कोण में हमारी रक्षा करें।

उदीच्यां पातु कौमारी , ईशान्यां शूलधारिणी ।
उर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेद , धस्ताद् वैष्णवी तथा ।।१९ ।।
उत्तर में कौमारी और ईशान में शूलधारिणी।
ऊपर से रक्षे ब्राह्मणी, नीचे से रक्षे वैष्णवी।१९।भगवान कार्तिकेय की शक्ति कौमारी उत्तर दिशा में , शूल धारण करने वाली ईश्वरी शक्तिईशान कोण में ब्रह्माणी ऊपर तथा वैष्णवी शक्ति नीचे हमारी रक्षा करें।

एवं दश दिशो रक्षे , चामुण्डा शववाहना ।
जया मे चाग्रत: पातु , विजया पातु पृष्ठत: ।।२० ।।
रक्षें दसों दिशाओं में चामुंडा शव वाहना।
जया करें रक्षा आगे से, पीछे से रक्षें विजया।२०।इसी प्रकार शव के ऊपर विराजमान चामुण्डा देवी दसों दिशा में हमारी रक्षा करें।आगे जया ,पीछे विजया हमारी रक्षा करें।

अजिता वामपाश्वे तु , दक्षिणे चापराजिता ।
शिखामुद्योतिनी रक्षे, दुमा मूर्घिन व्यवस्थिता ।।२१ ।।
वाम पार्श्व में रक्षें अजिता, दक्षिण में अपराजिता।
उद्योतिनी शिखा रक्षें , मस्तक रक्षें सदा उमा।२१।बायें भाग में अजिता, दाहिने हाथ में अपराजिता, शिखा में उद्योतिनी तथा शिर में उमा हमारी रक्षा करें।


मालाधरी ललाटे च , भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी ।
त्रिनेत्रा च भ्रूवोर्मध्ये , यमघण्टा च नासिके ।।२२ ।।
मालाधरी ललाट रक्षें यशस्विनी जी भौंहों को।
भौंह-मध्य को त्रिनेत्रा, यमघण्टा रक्षें नाक को।२२।ललाट में मालाधरी , दोनों भौं में यशस्विनी ,भौं के मध्य में त्रिनेत्रा तथा नासिका में यमघण्टा हमारी रक्षा करें।

शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये , श्रोत्रयोर्द्वार वासिनी ।
कपोलो कालिका रक्षेत् , कर्णमूले तु शांकरी ।।२३ ।।
चक्षु मध्य शंखिनी रक्षें, कर्ण द्वार माँ वासिनी। 
कपोल कालिका रक्षें, कर्णमूल को शांकरी।२३। दोनों नेत्रों के बीच में शंखिनी , दोनों कानों के बीच में द्वारवासिनी , कपाल में कालिका , कर्ण के मूल भाग में शांकरी हमारी रक्षा करें।

नासिकायां सुगंधा च , उत्तरोष्ठे च चर्चिका ।
अधरे चामृतकला , जिह्वायां च सरस्वती ।।२४ ।।
नासिका को सुगंधा, ऊपरी अधर को चर्चिका।
अमृतकला निचला अधर, सरस्वती रक्षें जिह्वा।२४।नासिका के बीच का भाग सुगन्धा , ओष्ठ में चर्चिका , अधर में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती हमारी रक्षा करें।

दन्तान् रक्षतु कौमारी , कण्ठ देशे तु चण्डिका ।
घण्टिकां चित्रघंटा च , महामाया च तालुके ।।२५ ।।
दंत रक्षें कौमारी, कंठ भाग को चंडिका।
गलघंटिका चित्रघंटा, तालु रक्षें महामाया।२५।कौमारी दाँतों की , चंडिका कण्ठ-प्रदेश की , चित्रघंटा गले की तथा महामाया तालु की रक्षा करें।

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् , वाचं मे सर्वमंगला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च , पृष्ठवंशे धनुर्धरी ।।२६ ।।

कामाक्षी चिबुक रक्षें , सर्वमंगला जी वाणी।
गर्दन रक्षें भद्रकाली, मेरुदंड को धनुर्धारी।२६।कामाक्षी ठोढ़ी की , सर्वमंगला वाणी की , भद्रकाली ग्रीवा की तथा धनुष को धारण करने वाली रीढ़ प्रदेश की रक्षा करें।

नीलग्रीवा बहि:कण्ठे , नलिकां नलकूबरी ।
स्कन्धयो: खंगिनी रक्षेद् , बाहू मे वज्रधारिनी ।।२७ ।।

नीलग्रीवा बाह्यकंठ को, कंठ नली नलकूबरी।
कंधों को खड्गिनी रक्षें, भुजाएँ वज्रधारिणी।२७।कण्ठ से बाहर नीलग्रीवा और कण्ठ की नली में नलकूबरी , दोनों कन्धों की खंगिनी तथा वज्र को धारण करने वाली दोनों बाहु की रक्षा करें।

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षे - , दम्बिका चांगुलीषु च ।
नखाच्छुलेश्वरी रक्षेत् , कुक्षौ रक्षेत् कुलेश्वरी ।।२८ ।।
कर द्वय रक्षें दण्डिनी, अँगुलियों को अम्बिका। 
नखों को शूलेश्वरी, कुक्षि को कुल ईश्वरी।२८। दोनों हाथों में दण्ड को धारण करने वाली तथा अम्बिका अंगुलियों में हमारी रक्षा करें । शूलेश्वरी नखों की तथा कुलेश्वरी कुक्षिप्रदेश में स्थित होकर हमारी रक्षा करें ।

स्तनौ रक्षेन्महादेवी , मन:शोक विनाशिनी ।
हृदये ललिता देवी , उदरे शूलधारिणी ।।२९ ।।
स्तन रक्षें महादेवी, मन को शोक विनाशिनी। 
ललितादेवी ह्रदय रक्षें, उदर को शूलधारिणी।२९।महादेवी दोनों स्तन की , शोक को नाश करने वाली मन की रक्षा करें । ललिता देवी हृदय में तथा शूलधारिणी उत्तर प्रदेश में स्थित होकर हमारी रक्षा करें ।

नाभौ च कामिनी रक्षेद् , गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
पूतना कामिका मेद्रं , गुदे महिषवाहिनी ।।३० ।।
नाभि रक्षें कामिनी देवी, गुह्य भाग गुह्येश्वरी। 
पूतना कामिका लिंग, गुदा महिषवाहिनी। ३०।नाभि में कामिनी तथा गुह्य भाग में गुह्येश्वरी हमारी रक्षा करें। कामिका तथा पूतना लिंग की तथा महिषवाहिनी गुदा में हमारी रक्षा करें।

कट्यां भगवती , रक्षेज्जानुनि विन्ध्यवासिनी ।
जंघे महाबला रक्षेद् , सर्वकामप्रदायिनी ।।३१ ।।
भगवती रक्षें कमर, घुटने विंध्यवासिनी। 
पिंडली महाबला सर्व कामनादायिनी। ३१।भगवती कटि प्रदेश में तथा विन्ध्यवासिनी घुटनों की रक्षा करें। सम्पूर्ण कामनाओं को प्रदान करने वाली महाबला जांघों की रक्षा करें।

गुल्फयोर्नारसिंही च , पादपृष्ठे तु तैजसी ।
पादाड़्गुलीषु श्री रक्षेत् , पादाधस्तलवासिनी ।।३२ ।।
टखने रक्षें नारसिंही, चरण-पृष्ठ तैजसी। 
श्री पैरों की अंगुलियाँ, तलवे द्वय तलवासिनी। ३२।नारसिंही दोनों पैर के घुटनों की , तेजसी देवी दोनों पैर के पिछले भाग की, श्रीदेवी पैर की अंगुलियों की तथा तलवासिनी पैर के निचले भाग की रक्षा करें।

नखान् दंष्ट्राकराली च , केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी ।
रोमकूपेषु कौनेरी , त्वचं वागीश्वरी तथा ।।३३ ।।
पदनख दंष्ट्राकराली केश रक्षें ऊर्ध्वकेशिनी। 
रोमावलियाँ कौबेरी, त्वचा रक्षें वागीश्वरी। ३३।दंष्ट्राकराली नखों की , उर्ध्वकेशिनी देवी केशों की , कौवेरी रोमावली के छिद्रों में तथा वागीश्वरी हमारी त्वचा की रक्षा करें।

रक्त-मज्जा - वसा -मांसा , न्यस्थि- मेदांसि पार्वती ।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च , पित्तं च मुकुटेश्वरी ।।३४ ।।
रक्त मज्जा वसा मांस, मेदास्थि रक्षें पार्वती। 
आँतें रक्षें कालरात्रि, पित्त रक्षें मुकुटेश्वरी। ३४।पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, मांस , हड्डी और मेदे की रक्षा करें । कालरात्रि आँतों की तथा मुकुटेश्वरी पित्त की रक्षा करें ।

पद्मावती पद्मकोशे , कफे चूड़ामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी नखज्वाला , मभेद्या सर्वसन्धिषु ।।३५ ।।
मूलाधार पद्मकोष पद्मावती, कफ चूड़ामणि। 
नखज्वाल ज्वालामुखी, अभेदया रक्षें संधियां। ३५पद्मावती सहस्र दल कमल में , चूड़ामणि कफ में , ज्वालामुखी नखराशि में उत्पन्न तेज की तथा अभेद्या सभी सन्धियों में हमारी रक्षा करें।

शुक्रं ब्रह्माणिमे रक्षे , च्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहंकारं मनो बुद्धिं , रक्षेन् मे धर्मधारिणी ।।३६ ।।
ब्रह्माणी! मम वीर्य बचाएँ, छाया को छत्रेश्वरी। 
स्वाभिमान मन बुद्धि बचाएँ, मैया धर्मधारिणी।३६।ब्रह्माणि शुक्र की , छत्रेश्वरी छाया की , धर्म को धारण करने वाली , हमारे अहंकार , मन तथा बुद्धि की रक्षा करें।

प्राणापानौ तथा , व्यानमुदान च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेद , प्राणंकल्याणं शोभना ।।३७ ।।
प्राण-अपान व् व्यान-उदान बचायें वायु समान भी 
वज्रहस्ता माँ, प्राण रक्षिये हे कल्याणशोभना। ३७।वज्रहस्ता प्राण , अपान , व्यान , उदान तथा समान वायु की , कल्याण से सुशोभित होने वाली कल्याणशोभना ,हमारे प्राणों की रक्षा करें।

रसे रूपे गन्धे च , शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्वं रजस्तमश्चचैव , रक्षेन्नारायणी सदा ।।३८ ।।
रस रूप गंध शब्दस्पर्श की, योगिनी रक्षा करें। 
सत-रज-तम की सुरक्षा, नारायणी मैया करें। ३८।रस , रूप , गन्ध , शब्द तथा स्पर्श रूप विषयों का अनुभव करते समय योगिनी तथा हमारे सत्व , रज , एवं तमोगुण की रक्षा नारायणी देवी करें ।

आयु रक्षतु वाराही , धर्मं रक्षतु वैष्णवी ।
यश: कीर्ति च लक्ष्मी च , धनं विद्यां च चक्रिणी ।।३९ ।।
आयु बचाएँ वाराही, धर्म बचाएँ वैष्णवी। 
बचाएँ यश-कीर्ति-लक्ष्मी-धन-विद्या को चक्रिणी। ३९।वाराही आयु की , वैष्णवी धर्म की , चक्रिणी यश और कीर्ति की , लक्ष्मी , धन तथा विद्या की रक्षा करें। 

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत् , पशुन्मे रक्ष चण्डिके ।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मी , भार्यां रक्षतु भैरवी ।।४० ।।
हे इन्द्राणि! गोत्र रक्षिए, पशु रक्षें हे चंडिका!
पुत्र रक्षें महालक्ष्मी, भार्या रक्षें भैरवी। ४०।हे इन्द्राणी , तुम मेरे कुल की तथा हे चण्डिके , तुम हमारे पशुओं की रक्षा करो ।हे महालक्ष्मी मेरे पुत्रों की तथा भैरवी देवी हमारी स्त्री की रक्षा करें।

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं , क्षेमकरी तथा ।
राजद्वारे महालक्ष्मी , र्विजया सर्वत: स्थिता ।।४१।।
सुपथा रक्षा करें पंथ की और मार्ग में क्षेमकरी। 
राजद्वार में महालक्ष्मी, हर भय से विजया देवी। ४१।सुपथा हमारे पथ की , क्षेमकरी (कल्याण करनेवाली ) मार्ग की रक्षा करें। राजद्वार पर महालक्ष्मी तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया भयों से हमारी रक्षा करें।

रक्षाहीनं तु यत् स्थानं , वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं रक्ष मे देवी ! जयन्ती पापनाशिनी ।।४२ ।।
रक्षाहीन रहे जो स्थल, नहीं कवच में कहे गए। 
वे सब रक्षें देवी जयंती!, तुम हो पाप विनाशिनी। ४२।हे देवी ! इस कवच में जिस स्थान की रक्षा नहीं कही गई है उस अरक्षित स्थान में पाप को नाश करने वाली , जयन्ती देवी ! हमारी रक्षा करें।

पदमेकं न गच्छेतु , यदीच्छेच्छुभमात्मन: ।
कवचेनावृतो नित्यं , यत्र यत्रैव गच्छति ।।४३ ।।
जाएँ एक भी पग नहीं, यदि चाहें अपना भला। 
रक्षित होकर कवच से, जहाँ जहाँ भी जाएँगे। ४३। यदि मनुष्य अपना कल्याण चाहे तो वह कवच के पाठ के बिना एक पग भी कहीं यात्रा न करे । क्योंकि कवच का पाठ करके चलने वाला मनुष्य जिस-जिस स्थान पर जाता है।

तत्र तत्रार्थलाभश्च , विजय: सार्वकामिक: ।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं , प्राप्नोति निश्चितम ।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्।४४।।
वहाँ वहाँ धन लाभ जय सब कामों में पाएँगे। 
चिंतन जिस जिस काम का, करें वही हो जाएँगे। 
पा ऐश्वर्य अतुल परम भूतल पर यश पाएँगे।४४।उसे वहाँ- वहाँ धन का लाभ होता है और कामनाओं को सिद्ध करने वाली विजय की प्राप्ति होती है। वह पुरुष जिस जिस अभीष्ट वस्तु को चाहता है वह वस्तु उसे निश्चय ही प्राप्त होती है।कवच का पाठ करने वाला इस पृथ्वी पर अतुल ऐश्वर्य प्राप्त करता है ।

निर्भयो जायते मर्त्य: , सड़्ग्रामेष्वपराजित: ।
त्रैलोक्ये तु भवेत् पूज्य: , कवचेनावृत: पुमान् ।। ४५ ।।
मरण समीप मनुज निर्भय हो, हार न हो संग्राम में। 
पूज्यनीय हो तीन लोक में, अगर सुरक्षित कवच से। ४५।मरणोन्मुख मनुष्य भी किसी से नहीं डरता और युद्ध में उसे कोई हरा भी नहीं सकता ।तीनों लोकों में उसकी पूजा होती है।यह देवी का कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।


इदं तु देव्या: कवचं देवानामपि दुर्लभं। 
य: पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धान्वित:। ४६। 
यह जो देवी-कवच है, दुर्लभ देवों को रहा। 
पाठ करे जो नित्य प्रति, त्रिसंध्या में सश्रद्धा। ४६। 
यह देवी कवच देवों के लिए भी दुर्लभ रहा है। जो लोग तीनों संध्या में श्रद्धापूर्वक इस कवच का पाठ करते हैं 


दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजित:। 
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जित:।४७। 
दैवी कला मिले उसे, हारे नहीं त्रिलोक में। 
हो शतायु, अपमृत्यु भय उसे नहीं होता कभी।४७।उन्हें देवी कला की प्राप्ति होती है। तीनों लोकों में उन्हें कोई जीत नहीं सकता । उनकी अपमृत्यु नहीं होती । वह सौ से भी अधिक वर्ष तक जीवित रहते हैं। ।


नश्यन्ति व्याधय: सर्वे लूताविस्फोटकादय:।
स्थावरं जंगमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्।४८। 
सकल व्याधियाँ नष्ट हों, मकरी चेचक कोढ़। 
स्थावर जंगम कृत्रिम, विष का भय होता नहीं।४८। इस कवच का पाठ करने से लूता ( सिर में होने वाला खाज का रोग मकरी ,) विस्फोटक (चेचक), कोढ़ आदि सभी रोग नष्ट हो जाते हैं।उन्हें स्थावर, जंगम या कृत्रिम विष का भय नहीं होता। 

स्थावरं जंगमं चैव , कृत्रिमं चाअपि यद्विषम् ।
अभिचाराणि सर्वाणि , मन्त्र-यन्त्राणि भूतले ।।४९ ।।
अभिचाराणि सर्वाणि, मन्त्र-यन्त्राणि भूतले। 
भूचरा: खेचराश्चैव, जलजाश्चोपदेशिका:।४९ ।
आभिचारिक प्रयोग सारे, मंत्र-यंत्र जो धरा पर। 
भूचर खेचर जलज जो, उपदेशक हैं हानिप्रद।४९।मारण , मोहन तथा उच्चाटन आदि सभी प्रकार के किये गए अभिचार यन्त्र तथा मन्त्र , पृथवी तथा आकाश में विचरण करनेवाले ग्राम देवतादि, जल में उत्पन्न होने वाले तथा उपदेश से सिद्ध होने वाले सभी प्रकार के क्षुद्र देवता आदि कवच के पाठ करने वाले मनुष्य को देखते ही विनष्ट हो जाते हैं। 


सहजा कुलजा माला, डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरिक्षचरा घोरा, डाकिन्यश्च महाबला:।५०।
जन्मजा कुलजा माला, डाकिनी शाकिनी आदि। 
अंतरिक्ष में विचरतीं, शक्तिशाली डाकिनी भी।५०जन्म के साथ उत्पन्न होने वाले ग्राम देवता ,कुल देवता , कण्ठमाला, डाकिनी, शाकिनी आदि, अन्तरिक्ष में विचरण करने वाली अत्यन्त भयानक बलवान डाकिनियां , 


ग्रहभूतपिशाचाश्च , यक्ष गन्धर्व - राक्षसा:।
ब्रह्मराक्षसवेताला: कुष्माण्डा भैरवादय:।५१।
ग्रह भूत पिशाच आदि, यक्ष गंधर्व राक्षस भी। 
ब्रह्मराक्षस बैतालादि, कूष्माण्डा भैरवादि भी।५१। ग्रह, भूत पिशाच, यक्ष, गंधर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस,, बैताल, ब्रह्म राक्षस , बेताल , कूष्माण्ड तथा भयानक भैरव आदि सभी अनिष्ट करने वाले जीव


नश्यन्ति दर्शनातस्य, कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्।५२।
देखते ही नष्ट होते, कवच हो यदि हृदय में। 
मान-उन्नति प्राप्त हो, सम्मान राजा से मिले।५२। कवच हृदय में रखनेवाले (पाठ करनेवाले) पुरुष को देखते ही विनष्ट हो जाते हैं।कवचधारी पुरूष को राजा के द्वारा सम्मान की प्राप्ति होती है। यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करने वाला है।


यशसा वर्धते सोsपि कीर्ति मण्डितभूतले।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा।५३।
यश सदा बढ़ता रहे, कीर्ति से मंडित धरा हो। 
जो जपे सत शांति चंडी, पूर्व उसके कवच भी।५३। कवच का पाठ करने वाला पुरुष इस पृथ्वी को अपनी कीर्ति से सुशोभित करता है और अपनी कीर्ति के साथ वह नित्य अभ्युदय को प्राप्त करता है। जो पहले कवच का पाठ करके सप्तशती का पाठ करता है


यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैल वनकाननम्।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्तति: पुत्रपौत्रिकी।५४।
जब तक भूमण्डल टिका, पर्वत-कानन सहित यह। 
तब तक धरती पर रहे, संतति पुत्र-पौत्र भी।५४। उसकी पुत्र - पौत्रादि संतति पृथ्वी पर तब तक विद्धमान रहती है जब तक पहाड़ , वन , कानन , और कानन से युक्त यह पृथ्वी टिकी हुई है।



देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामाया प्रसादत:।५५।
लभते परमं रूपं , शिवेन सह मोदते ।।५६ ।।
देह अंत हो तो मिले, सुरदुर्लभ परलोक। 
मिलता नित्यपुरुष को ही प्रसाद महामाया का । ५५।
परम रूप पा शिव जी के संग पता है आनंद सदा वह।।५६ ।। कवच का पाठ कर दुर्गा सप्तशती का पाठ करने वाला मनुष्य मरने के बाद - महामाया की कृपा से देवताओं के लिए जो अत्यन्त दुर्लभ स्थान है उसे प्राप्त कर लेता है और उत्तम रूप प्राप्त कर शिवजी के साथ आन्नदपूर्वक निवास करता है।
।। इति वाराह पुराणे हरिहरब्रह्मविरचित देव्या: कवचं समाप्तम् ।।
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ॐ 
श्री दुर्गा शप्तसती कीलक स्तोत्र
*
ॐ मंत्र कीलक शिव ऋषि ने, छंद अनुष्टुप में रच गाया। 
प्रमुदित देव महाशारद ने, श्री जगदंबा हेतु रचाया।। 
सप्तशती के पाठ-जाप सँग, हो विनियोग मिले फल उत्तम। 
ॐ चण्डिका देवी नमन शत, मारकण्डे' ऋषि ने गुंजाया।।
*
देह विशुद्ध ज्ञान है जिनकी, तीनों वेद नेत्र हैं जिनके।
उन शिव जी का शत-शत वंदन, मुकुट शीश पर अर्ध चन्द्र है।१। 
*
मन्त्र-सिद्धि में बाधा कीलक, अभिकीलन कर करें निवारण। 
कुशल-क्षेम हित सप्तशती को, जान करें नित जप-पारायण।२।
*
अन्य मंत्र-जाप से भी होता, उच्चाटन-कल्याण किंतु जो 
देवी पूजन सप्तशती से, करते देवी उन्हें सिद्ध हो।३।
*
अन्य मंत्र स्तोत्रौषधि की, उन्हें नहीं कुछ आवश्यकता है। 
बिना अन्य जप, मंत्र-यंत्र के, सब अभिचारक कर्म सिद्ध हों।४। 
*
अन्य मंत्र भी फलदायी पर, भक्त-मनों में रहे न शंका। 
सप्तशती ही नियत समय में, उत्तम फल दे बजता डंका।५।
*
महादेव ने सप्तशती को गुप्त किया, थे पुण्य अनश्वर। 
अन्य मंत्र-जप-पुण्य मिटे पर, सप्तशती के फल थे अक्षर।६।
*
अन्य स्तोत्र का जपकर्ता भी, करे पाठ यदि सप्तशती का। 
हो उसका कल्याण सर्वदा, किंचितमात्र न इसमें शंका।७।
*
कृष्ण-पक्ष की चौथ-अष्टमी, पूज भगवती कर सब अर्पण। 
करें प्रार्थना ले प्रसाद अन्यथा विफल जप बिना समर्पण।८। 
*
निष्कीलन, स्तोत्र पाठ कर उच्च स्वरों में सिद्धि मिले हर। 
देव-गण, गंधर्व हो सके भक्त, न उसको हो कोंचित डर।९। 
*
हो न सके अपमृत्यु कभी भी, जग में विचरण करे अभय हो। 
अंत समय में देह त्यागकर, मुक्ति वरण करता ही है वो।१०।
*
कीलन-निष्कीलन जाने बिन, स्तोत्र-पाठ से हो अनिष्ट भी। 
ग्यानी जन कीलन-निष्कीलन, जान पाठ करते विधिवत ही।११। 
*
नारीगण सौभाग्य पा रहीं, जो वह देवी का प्रसाद है। 
नित्य स्तोत्र का पाठ करे जो पाती रहे प्रसाद सर्वदा।१२।
*
पाठ मंद स्वर में करते जो, पाते फल-परिणाम स्वल्प ही।
पूर्ण सिद्धि-फल मिलता तब ही, सस्वर पाठ करें जब खुद ही।१३। 
*
दें प्रसाद-सौभाग्य सम्पदा, सुख-सरोगी, मोक्ष जगदंबा।
अरि नाशें जो उनकी स्तुति, क्यों न करें नित पूजें अंबा।१४। 
३१-३--२०१७ 
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दुर्गा सप्तशती में सृष्टि उत्पत्ति और सरस्वती जी 
अथ प्राधानिकं रहस्यं
*
ॐ अस्य श्री सप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण 
ऋषिरनुष्टुप छंद:, महाकाली-महालक्ष्मी-महा
सरस्वती देवता यथोक्त फला वाप्यर्थं जपे विनियोग:। 
ॐ सतशती के रहस्य त्रय, ऋषिवर श्री नारायण हैं। 
देव महा काली-रमा-शारद, छंद अनुष्टुप धारण है। 
मिले यथोचित फल इस हेतु करें जप में विनियोग सदा। 
राजोवाच 
भगवन्नवतारा में चंडीकायास्त्वयोदिता:।
एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तुमर्हसि।।१।।
राजा बोले प्रभु! चण्डी के अवतारों की कथा कही।
अब इनकी प्रधान प्रकृति की ब्रह्मन्! मुझसे कथा कहें।।
आराध्यं यन्मया देव्या: स्वरूपं येन च द्विज। 
विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे।।२।।
देवी की आराधना किस छवि में द्विजश्रेष्ठ!
करूँ कहें उसकी विधि चरण-शरण मैं ज्येष्ठ!
ऋषिरुवाच 
इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते। 
भक्तोsसीति न मे किञ्चत्तवावाच्यं नराधिप।।३।।
ऋषि बोले आख्यान यह परम गुप्त है भूप। 
कह न सकूँ निज भक्त से, है कुछ नहीं अनूप।।
सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी। 
लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता।।४।।
सर्व मूल महालक्ष्मी त्रिगुणमयी जगदंब। 
दिखें अदिख रह व्याप्त हैं सकल सृष्टि में अंब।।
मातुलिङ्ग गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती। 
नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्द्धनी।।५।।
कर में सोहे मातुलिंग गदा, ढाल, पानदान।
नाग, लिंग, योनि करे शोभित दिव्य ललाट।।
तप्तकाञ्चन वर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा। 
शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा।।६।।
तप्त स्वर्ण सा रंग है, तप्त स्वर्ण श्रृंगार। 
करतीं अपने तेज से, पूर्ण सकल संसार।। 
शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्वरी। 
बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि।।७।।
शून्य सकल संसार को, देखें देवी आप। 
तमोगुणी नव रूप ले प्रगटें सबमें व्याप।। 
सा भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कित वरानना। 
विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा।।८।।
श्यामल अंजन सदृश वह, मुख पर शोभित दंत। 
मृगनयनी मध्यम बदन, नारी रूप अनंत।।
खड्गपात्रशिर:खेटैरलङ्कृत चतुर्भुजा। 
कबंधहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिर:स्रजम्।।९।।
खड्ग पात्र सिर ढाल ले, भुजा सुशोभित चार।
मुंड माल धारण किये, कर कबंध श्रृंगार।।
सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा। 
नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नम:।।१०।।
तामसी प्रमदोत्तमा ने महालक्ष्मी से कहा। 
माँ! मुझे दें नाम; कह दें काम भी; तुमको नमन।। 
तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमादोत्तमाम्।
ददामि तव नामानि यानी कर्माणि तानि ते।।११।।
महालक्ष्मी ने कहा हे तामसी प्रमदोत्तमा! 
नाम देती हूँ तुम्हें मैं, काम कहती तुम्हारा।। 
महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा। 
निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया।।१२।। 
महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा। 
निद्रा तृष्णा व एकवीरा कालरात्रि दुरत्यया।। 
इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभिः। 
एभि: कर्माणि ते ज्ञात्वा योsधीते सोsश्नुते सुखं।।१३।।
ये हैं नाम तुम्हारे; जा कर्मों द्वारा चरितार्थ कर। 
जो कर्मों को जान जपेंगे, सुख पाएँगे नारी-नर।। 
तामित्युक्त्वा महालक्ष्मी: स्वरूपमपरं नृप। 
सत्त्वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेंदुप्रभं दधौ।।१४।।
महालक्ष्मी ने यह कहकर, रूप दूसरा प्रगट किया।
सत्वगुणी अति शुद्ध शशि सदृश प्रभापूर्ण नव रूप लिया।। 
अक्षमालाङ्कुशधरा वीणा पुस्तक धारिणी।
सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ।।१५।। 
अक्षमाल अंकुश सहित, वीणा पुस्तक थाम।
महीयसी को रमा ने, दिए अलौकिक नाम।।
महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती। 
आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्वरी।।१६।।
महाविद्या महावाणी, भारती वाक् सरस्वती। 
आर्या ब्राह्मी कामधेनु, वेदगर्भा व धीश्वरी।।
अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीं। 
युवां जनयतां देव्यौ मिथुन स्वानुरूपत:।।१७।।
महाकाली सरस्वती से, महा लक्ष्मी ने कहा। 
देवियों! दो जन्म निज, अनुरूप जोड़ों को अभी।।
इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मी: ससर्ज मिथुनं स्वयं। 
हिरण्यगर्भौ रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलसानौ।।१८।।
महालक्ष्मी ने यह कहकर आप मिथुन कर सृजन किया। 
कनकगर्भ प्रगटे नारी-नर, कमलासन आसीन किया।।
ब्रह्मन् विधे विरंचेति धातरित्याह तं नरं। 
श्री: पद्मे कमले लक्षिमत्याह माता च तां स्त्रियं।।१९।।
ब्रह्मन विधे विरंचि धात:, दिए पुरुष को नाम। 
श्री पद्मा कमला लक्ष्मी, नामित नारि ललाम।।
महाकाली भारती च मिथुन सृजत: सह। 
एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते।।२०।। 
महाकाली भारती ने, भी युग्म दो पैदा किये। 
रूप गुण उनके हुए कैसे, बताता हूँ तुम्हें।।
नीलकण्ठं रक्तबाहुं श्वेतांग चंद्रशेखरं। 
जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियं।।२१।।
नील कंठ भुज लाल श्वेत तन चंद्र शीश पर।
जन्मा नर; माँ काली से गोरी नारी सँग।। 
स रूद्र: शंकर: स्थाणुः कपर्दी च त्रिलोचन:।
त्रयी विद्या कामधेनु: सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा।।२२।। 
पुरुष रूद्र शंकर स्थाणु कपर्दी त्रिलोचन। 
स्त्री त्रयी विद्या कामधेनु भाषाक्षरा स्वरा।।
सरस्वती स्त्रियाँ गौरीन कृष्णं च पुरुषं नृप। 
जनयामास नामानि तयोरपि वदामि ते।।२३।।
सरस्वती से गोरी नारी श्यामल पुरुष हुए राजन!।
उन दोनों को नाम मिले जो कहता हूँ, वे भी सुन लो। 
विष्णु: कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दन:। 
उमा गौरी सती चंडी सुंदरी सुभगा शिवा।।२४।।
विष्णु कृष्ण हृषिकेश वासुदेव जनार्दन नाम पुरुष के। 
उमा गौरी सती चंडी सुंदरी सुभगा शिवा स्त्री के।।
एवं युवतय: सद्य: पुरुषत्वं प्रपेदिरे। 
चक्षुष्मंतो नु पश्यंति नेतरेsतद्विदो जना:।।२५।।
हुईं शीघ्र ही तीन नारियाँ तीनों पुरुष रूप को प्राप्त। 
देख न सकते चर्म चक्षु यह, देखें ज्ञान नेत्र ही आप्त।। 
ब्रह्मणे प्रददौ पत्नीं महालक्ष्मीर्नृप त्रयीम्।
रुद्राय गौरी वरदां वासुदेवाय च श्रियम्।।२६।।
महालक्ष्मी ने ब्रह्मा को सौंपी त्रयी पत्नि राजन!।
और रूद्र को गौरी दी, दी वासुदेव को श्री नृपवर!।।
स्वरया सह संभूय विरिंचोsण्डमजीजनत्।
विभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान्।।२७।।
स्वर के साथ मिले ब्रह्मा जी, तब ब्रह्माण्ड यहाँ जन्मा। 
वीर्यवान शिव ने गौरी के साथ किया भेदन उसका।।
अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप। 
महाभूतात्मकं सर्वं जगत्स्थावरजंगमम्।।२८।।
अंड मध्य में मूल मुख्य कारज से भू जन्मी राजन।
महाभूतमय है समस्त जड़-जंगम कहते विद्वज्जन।।
पुपोष पालयामास तल्लक्षम्या सह केशव:।
संजहार जगत्सर्वं सह गौर्या महेश्वर:।।२९।।
पोषण-पालन किया जगत का साथ लक्ष्मी के केशव ने। 
और किया संहार सर्व का गौरी साथ महेश्वर ने।।
महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्वमयीश्वरी। 
निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत।।३०।।
महाराज! है महालक्ष्मी तत्वमयी सर्वेश्वरी। 
निराकार-साकार वही हैं नाना नाम उन्हीं के हैं।।
नामांतरैर्निरूप्यैषा नाम्ना नान्येन केनचित्।।३१।।
नाम भेद से करें निरूपण, एक नाम से हो न सके।।
(टीप - नामभेद सत्य, ज्ञान, चित्, महामाया आदि)
***
चिंतन
दुर्गा पूजा
*
एक प्रश्न
बचपन में सुना था ईश्वर दीनबंधु है, माँ पतित पावनी हैं।
आजकल मंदिरों के राजप्रासादों की तरह वैभवशाली बनाने और सोने से मढ़ देने की होड़ है।
माँ दुर्गा को स्वर्ण समाधि देने का समाचार विचलित कर गया।
इतिहास साक्षी है देवस्थान अपनी अकूत संपत्ति के कारण ही लूट को शिकार हुए।
मंदिरों की जमीन-जायदाद पुजारियों ने ही खुर्द-बुर्द कर दी।
सनातन धर्म कंकर कंकर में शंकर देखता है।
वैष्णो देवी, विंध्यवासिनी, कामाख्या देवी अादि प्राचीन मंदिरों में पिंड या पिंडियाँ ही विराजमान हैं।
परम शक्ति अमूर्त ऊर्जा है किसी प्रसूतिका गृह में उसका जन्म नहीं होता, किसी श्मशान घाट में उसका दाह भी नहीं किया जा सकता।
थर्मोडायनामिक्स के अनुसार इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायड, कैन ओनली बी ट्रांसफार्म्ड।
अर्थात ऊर्जा का निर्माण या विनाश नहीं केवल रूपांतरण संभव है।
ईश्वर तो परम ऊर्जा है, उसकी जयंती मनाएँ तो पुण्यतिथि भी मनानी होगी।
निराकार के साकार रूप की कल्पना अबोध बालकों को अनुभूति कराने हेतु उचित है किंतु मात्र वहीं तक सीमित रह जाना कितना उचित है?
माँ के करोड़ों बच्चे बाढ़ में सर्वस्व गँवा चुके हैं, अर्थ व्यवस्था के असंतुलन से रोजगार का संकट है, सरकारें जनता से सहायता हेतु अपीलें कर रही हैं और उन्हें चुननेवाली जनता का अरबों-खरबों रुपया प्रदर्शन के नाम पर स्वाहा किया जा रहा है।
एक समय प्रधान मंत्री को अनुरोध पर सोमवार अपराह्न भोजन छोड़कर जनता जनार्दन ने सहयोग किया था। आज अनावश्यक साज-सज्जा छोड़ने के लिए भी तैयार न होना कितना उचित है?
क्या सादगीपूर्ण सात्विक पूजन कर अपार राशि से असंख्य वंचितों को सहारा दिया जाना बेहतर न होगा?
संतानों का घर-गृहस्थी नष्ट होते देखकर माँ स्वर्णमंडित होकर प्रसन्न होंगी या रुष्ट?
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दुर्गा पूजा परंपरा : सामाजिक उपादेयता 
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ 
[लेखक परिचय: जन्म २०-८-१९५२, आत्मज - स्व. शांति देवी - स्व. राजबहादुर वर्मा, शिक्षा - डिप्लोमा सिविल इंजी., बी. ई., एम.आई.ई., एम.आई. जी.एस., एम.ए. (अर्थशास्त्र, दर्शन शास्त्र) विधि स्नातक, डिप्लोमा पत्रकारिता), संप्रति - पूर्व संभागीय परियोजना प्रबंधक/कार्यपालन यंत्री, अधिवक्ता म.प्र. उच्च न्यायालय, प्रकाशित पुस्तकें - ७, सहलेखन ५ पुस्तकें, संपादित पुस्तकें १५, स्मारिकाएँ १७, पत्रिकाएँ ७, भूमिका लेखन ५० पुस्तकें, समीक्षा ३०० पुस्तकें, तकनीकी शोध लेख २०, सम्मान - १२ राज्यों की संस्थाओं द्वारा १५० से अधिक सम्मान। उपलब्धि - इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा तकनीकी लेख ‘वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ’ को राष्ट्रीय स्तर पर सेकेण्ड बेस्ट पेपर अवार्ड। ] 
सनातन धर्म में भक्त और भगवान का संबंध अनन्य और अभिन्न है। एक ओर भगवान सर्वशक्तिमान, करुणानिधान और दाता है तो दूसरी ओर 'भगत के बस में है भगवान' अर्थात भक्त बलवान हैं। सतही तौर पर ये दोनों अवधारणाएँ परस्पर विरोधी प्रतीत होती किंतु वस्तुत: पूरक हैं। सनातन धर्म पूरी तरह विग्यानसम्मत, तर्कसम्मत और सत्य है। जहाँ धर्म सम्मत कथ्य विग्यान से मेल न खाए वहाँ जानकारी का अभाव या सम्यक व्याख्या न हो पाना ही कारण है।
परमेश्वर ही परम ऊर्जा 
सनातन धर्म परमेश्वर को अनादि, अनंत, अजर और अमर कहता है। थर्मोडायनामिक्स के अनुसार 'इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायडट, कैन बी ट्रांसफार्म्ड ओनली'। ऊर्जा उत्पन्न नहीं की जा सकती इसलिए अनादि है, नष्ट नहीं की जा सकती इसलिए अमर है, ऊर्जा रूपांतरित होती है, उसकी परिसीमन संभव नहीं इसलिए अनंत है। ऊर्जा कालातीत नहीं होती इसलिए अजर है। ऊर्जा ऊर्जा से उत्पन्न हो ऊर्जा में विलीन हो जाती है। पुराण कहता है - 
'ॐ पूर्णमद: पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्णस्यते 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते' 
ॐ पूर्ण है वह पूर्ण है यह, पूर्ण है ब्रम्हांड सब 
पूर्ण में से पूर्ण को यदि दें घटा, शेष तब भी पूर्ण ही रहता सदा। 
अंशी (पूर्ण) और अंश का नाता ही परमात्मा और आत् का नाता है। अंश का अवतरण पूर्ण बनकर पूर्ण में मिलने हेतु ही होता है। इसलिए सनातनधर्मी परमसत्ता को निरपेक्ष मानते हैं। कंकर कंकर में शंकर की लोक मान्यतानुसार कण-कण में भगवान है, इसलिए 'आत्मा सो परमात्मा'। यह प्रतीति हो जाए कि हर जीव ही नहीं; जड़ चेतन' में भी उसी परमात्मा का अंश है, जिसका हम में है तो हम सकल सृष्टि को सहोदरी अर्थात एक माँ से उत्पन्न मानकर सबसे समता, सहानुभूति और संवेदनापूर्ण व्यवहार करेंगे। सबकी जननी एक है जो खुद के अंश को उत्पन्न कर, स्वतंत्र जीवन देती है। यह जगजननी ममतामयी ही नहीं है; वह दुष्टहंता भी है। उसके नौ रूपों का पूजन नव दुर्गा पर्व पर किया जाता है। दुर्गा सप्तशतीकार उसका वर्णन करता है- 
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। 
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते।। 




मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य भगवान से त्रिदेवों और त्रिदेवियों की उत्पत्ति हुई जिन्हें क्रमश: सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और विनाश का दायित्व मिला। ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण को सृष्टि का मूल मानता है। शिव पुराण के अनुसार शिव सबके मूल हैं। मार्कण्डेय पुराण और दुर्गा सप्तशती शक्ति को महत्व दें, यह स्वाभाविक है। 




भारत में शक्ति पूजा की चिरकालिक परंपरा है। संतानें माँ को बेटी मानकर उनका आह्वान कर, स्वागत, पूजन, सत्कार, भजन तथा विदाई करती हैं। अंग्रेजी कहावत है 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' अर्थात 'बेटा ही है बाप बाप का'। संतानें जगजननी को बेटी मानकर, उसके दो बेटों कार्तिकेय-गणेश व दो बेटियों शारदा-लक्ष्मी सहित मायके में उसकी अगवानी करती हैं। पर्वतेश्वर हिमवान की बेटी दुर्गा स्वेच्छा से वैरागी शिव का वरण करती है। बुद्धि से विघ्नों का निवारण करनेवाले गणेश और पराक्रमी कार्तिकेय उनके बेटे तथा ज्ञान की देवी शारदा व समृद्धि की देवी लक्ष्मी उनकी बेटियाँ हैं। 




दुर्गा आत्मविश्वासी हैं, माता-पिता की अनिच्छा के बावजूद विरागी शिव से विवाहकर उन्हें अनुरागी बना लेती हैं। वे आत्मविश्वासी हैं, एक बार कदम आगे बढ़ाकर पीछे नहीं हटातीं। वे अपने निर्णय पर पश्चाताप भी नहीं करतीं। पितृग्रह में सब वैभव सुलभ होने पर भी विवाह पश्चात् शिव के अभावों से भरे परिवेश में बिना किसी गिले-शिकवे या क्लेश के सहज भाव से संतुष्ट-सुखी रहती हैं। शुंभ-निशुम्भ द्वारा भोग-विलास का प्रलोभन भी उन्हें पथ से डिगाता नहीं। शिक्षा के प्रसार और आर्थिक स्वावलंबन ने संतानों के लिए मनवांछित जीवन साथी पाने का अवसर सुलभ करा दिया है। देखा जाता है की जितनी तीव्रता से प्रेम विवाह तक पहुँचता है उतनी ही तीव्रता से विवाहोपरांत घटता है और दोनों के मनों में उपजता असंतोष संबंध विच्छेद तक पहुँच जाता है। 




शिव-शिवा का संबंध विश्व में सर्वाधिक विपरीत प्रवृत्तियों का मिलन है। शिव सर्वत्यागी हैं, उमा राजा हिमवान की दुलारी पुत्री, राजकुमारी हैं। शिव संसाधन विहीन हैं, उमा सर्व साधन संपन्न हैं। शिव वैरागी हैं, उमा अनुरागी। शिव पर आसक्त होकर उमा प्राण-प्रणसे जतन कर उन्हें मनाती हैं और स्वजनों की असहमति की चिंता किये बिना विवाह हेतु तत्पर होती हैं किंतुपितृ गृह से भागकर पिता की प्रतिष्ठा को आघात नहीं पहुँचातीं, सबके सहमत होने पर ही सामाजिक विधि-विधान, रीति-रिवाजों के साथ अपने प्रियतम की अर्धांगिनी हैं। समाज के युवकों और युवतियों के लिये यह प्रसंग जानना-समझना और इसका अनुकरण करना जीवन को पूर्णता प्रदान करने के लिए परमावश्यक है। शिव साधनविहीनता के बाद भी उमा से इसलिए विवाह नहीं करना चाहते कि वह राजकुमारी है। वे उमा की सच्ची प्रीति और अपने प्रति प्रतिबद्धता जानने के पश्चात ही सहमत होते हैं। विवाह में वे कोई दहेज़ या धन नहीं स्वीकारते, केवल उमा के साथ श्वसुरालय से विदा होते हैं। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि सामाजिक और पारिवारिक मान-मर्यादा धन-वैभव प्रदर्शन में नहीं, संस्कारों के शालीनतापूर्वक संपादन में है। 




विवाह पश्चात नववधु उमा को पितृ-गृह से सर्वथा विपरीत वातावरण प्रिय-गृह में मिलता है। वहाँ सर्व सुविधा, साधन, सेविकाएँ उपलब्ध थीं यहाँ सर्वअसुविधा, साधनहीनता तथा ‘अपने सहायक आप हो’ की स्थिति किंतु उमा न तो अपने निर्णय पर पछताती हैं, न प्रियतम से किसी प्रकार की माँग करती हैं। वे शिव के साथ, नीर-क्षीर तरह एकात्म हो जाती हैं। वे मायके से कोई उपहार या सहायता नहीं लेतीं, न शिव को घर जमाई बनने हेतु प्रेरित या बाध्य करती हैं। शिव से नृत्य स्पर्धा होने पर माँ मात्र इसलिए पराजय स्वीकार लेती हैं कि शिव की तरह नृत्यमुद्रा बनाने पर अंग प्रदर्शन न हो जाए। उनका संदेश स्पष्ट है मर्यादा जय-पराजय से अधिक महत्वपूर्ण है, यह भी कि दाम्पत्य में हार (पराजय) को हार (माला) की तरह सहज स्वीकार लें तो हार ही जीत बन जाती है। यह ज्ञान लेकर श्वसुरालय जानेवाली बेटी बहू के रूप में सबका मन जीत सकेगी। उमा पराक्रमी होते हुए भी लज्जाशील हैं। शिव भी जान जाते हैं कि उमा ने प्रयास न कर उन्हें जयी होने दिया है। इससे शिव के मन में उनका मान बढ़ जाता है और वे शिव की ह्रदय-साम्राज्ञी हो पाती हैं। पाश्चात्य जीवन मूल्यों तथा चित्रपटीय भूषा पर मुग्ध तरुणियाँ दुर्गा माँ से अंग प्रदर्शन की अपेक्षा लज्जा निर्वहन का संस्कार ग्रहण कर मान-मर्यादा का पालन कर गौरव-गरिमा सकेंगी। उमा से अधिक तेजस्विनी कोई नहीं हो सकता पर वे उस तेज का प्रयोग शिव को अपने वश में करने हेतु नहीं करतीं, वे शिव के वश में होकर शिव का मन जीतती हैं हुए अपने तेज का प्रयोग समय आने पर अपनी संतानों को सुयोग्य बनाने और शिव पर आपदा आने पर उन्हें बचने में करती हैं। 




उमा अपनी संतानों को भी स्वावलंबन, संयम और स्वाभिमान की शिक्षा देती हैं। अपनी एक पुत्री को सर्वप्रकार की विद्या प्राप्त करने देती हैं, दूसरी पुत्री को उद्यमी बनाती हैं, एक पुत्र सर्व विघ्नों का शमन में निष्णात है तो दूसरा सर्व शत्रुओं का दमन करने में समर्थ। विश्व-इतिहास में केवल दो ही माताएँ अपनी संतानों को ऐसे दुर्लभ-दिव्य गुणों से संपन्न बना सकी हैं, एक उमा और दूसरी कैकेयी। 




लगभग १२०० वर्ष पुराने मार्कण्डेय पुराण के देवी महात्म्य में वे अनाचार के प्रतिकार हेतु सिंहवाहिनी होकर महाबलशाली महिषासुर का वध और रक्तबीज का रक्तपान करती हैं। अत्यधिक आवेश में वे सब कुछ नष्ट करने की दिशा में प्रेरित होती हैं तो शिव प्रलयंकर-अभ्यंकर होते हुए भी उनके पथ में लेट जाते हैं। शिव के वक्ष पर चरण रखते ही उन्हें मर्यादा भंग होने का ध्यान आता है और उनके विकराल मुख से जिव्हा बाहर आ जाती है। तत्क्षण वे अपने कदम रोक लेती हैं। उनसे जुड़ा हर प्रसंग नव दंपतियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। जरा-जरा सी बात में अहं के कारण राई को पर्वत बनाकर टूटते संबंधों और बिखरते परिवारों को दुर्गा पूजन मात्र से संतुष्ट न होकर, उनके आचरण से सीख लेकर जीवन को सुखी बनाना चाहिए। एकांगी स्त्री-विमर्श के पक्षधर शिव-शिवा से जीवन के सूत्र ग्रहण कर सकें तो टकराव और बिखराव के कंटकाकीर्ण पथ को छोड़कर, अहं विसर्जन कर समर्पण और सहचार की पगडंडी पर चलकर परिवार जनों को स्वर्गवासी किये बिना स्वर्गोपम सुख पहुँचा सकेंगे। 




स्त्री को दासी समझने का भ्रम पालनेवाले नासमझ शिव से सीख सकते हैं कि स्त्री की मान-मर्यादा की रक्षा ही पुरुष के पौरुष का प्रमाण है। शिव अनिच्छा के बाद भी उमा के आग्रह की रक्षा हेतु उनसे उनसे विवाह करते हैं किन्तु विवाह पश्चात् उमा का सुख ही उनके लिए सर्वस्व हो जाता है। लंबे समय तक प्रवास पश्चात् लौटने पर गृह द्वार पर एक अपरिचित बालक द्वारा हठपूर्वक रोके जाने पर शिव उसका वध कर देते हैं। कोलाहल सुनकर द्वार पर आई उमा द्वारा बालक की निष्प्राण देह पर विलाप करते हुए यह बताये जाने पर कि वह बालक उमा का पुत्र है और शिव ने उसका वध कर दिया, स्तब्ध शिव न तो उमा पर संदेह करते हैं, न लांछित करते हैं अपितु अपनी भूल स्वीकारते हुए बालक की चिकित्सा कर उसे नवजीवन देकर पुत्र स्वीकार लेते हैं। समाज में हर पति को शिव की तरह पत्नी के प्रति अखंड विश्वास रखना चाहिए। इस प्रसंग के पूर्व, पूर्वजन्म में शिव द्वारा मना करने के बाद भी सती (उमा का पूर्व जन्म में नाम) पिता दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में गईं, स्वामी शिव की अवहेलना और निंदा न सह पाने के कारण यज्ञ वेदी में स्वयं को भस्म कर लिया। शिव ने यह ज्ञात होने पर यज्ञ ध्वंस कर दोषियों को दंड दिया तथा सती की देह उठाकर भटकने लगे। सृष्टि के हित हेतु विष्णु ने चक्र से देह को खंडित कर दिया, जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे वहाँ शक्ति पीठें स्थापित हुईं। 
शिव ने समाधि लगा ली। तारकासुर के विनाश हेतु शिवपुत्र की आवश्यकता होने पर कामदेव ने शिव का तप भंग किया किन्तु तपभंग से क्रुद्ध शिव की कोपाग्नि में भस्म हो गए। अति आवेश से स्खलित शिववीर्य का संरक्षण कृतिकाओं ने किया, जिससे कार्तिकेय का जन्म हुआ। पार्वती ने बिना कोई आपत्ति किये शिव पुत्र को अपना पुत्र मानकर लालन-पालन किया। क्या आज ऐसे परिवार की कल्पना भी की जा सकती है जिसमें पति का पुत्र पत्नी के गर्भ में न रहा हो, पत्नी के पुत्र से पति अनजान हो और फिर भी वे सब बिना किसी मतभेद के साथ हों, यही नहीं दोनों भाइयों में भी असीम स्नेह हो। शिव परिवार ऐसा ही दिव्य परिवार है जहाँ स्पर्धा भी मनभेद उत्पन्न नहीं कर पाती। कार्तिकेय और गणेश में श्रेष्ठता संबंधी विवाद होने पर शिव ने उन्हें सृष्टि परिक्रमा करने का दायित्व दिया। कार्तिकेय अपने वाहन मयूर पर सवार होकर उड़ गए, स्थूल गणेश ने मूषक पर जगत्पिता शिव और जगन्माता पार्वती की परिक्रमा कर ली और विजयी हुए। इस प्रसंग से शक्ति पर बुद्धि की श्रेष्ठता प्रमाणित हुई। 




दुर्गापूजा में माँ दुर्गा की प्रतिमा के साथ भगवान शिव, गणेशजी, लक्ष्मीजी, सरस्वती जी और कार्तिकेय जी की पूजा पूरे विधि-विधान के साथ की जाती है। श्री दुर्गासप्तशती पाठ (स्रोत,गीताप्रेस,गोरखपुर) के द्वितीय अध्याय में देह दुर्ग को जीतकर दुर्गा विरुद से विभूषित शक्ति द्वारा महिषासुर वध के पूर्व उनकी ज्येष्ठ पुत्री महालक्ष्मी का ध्यान किया गया है - 
ॐ अक्षस्त्रक्परशुंगदेषुकुलिशम् पद्मं धनुष्कुण्डिकाम्, दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम् 
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तै: प्रसन्नानां, सेवे सैरभमर्दिनिमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम् 




ॐ अक्षमाल फरसा गदा बाण वज्र धनु पद्म, कुण्डि दंड बल खड्ग सह ढाल शंख मधुपात्र 
घंटा शूल सुपाश चक्र कर में लिए प्रसन्न, महिष दैत्य हंता रमा कमलासनी भजामि 




श्री दुर्गासप्तशती पाठ (स्रोत,गीताप्रेस,गोरखपुर) के पंचम अध्याय में इस बात की चर्चा है कि महासरस्वती अपने कर कमलों घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं। शरद ऋतु के शोभा सम्पन्न चन्द्रमा के समान उनकी मनोहर कांति है। वे तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करने वाली हैं। पंचम अध्याय के प्रारम्भ में निम्न श्लोक दृष्टव्य है- 




ॐ घंटा शूलहलानि शंखमूसले चक्रं धनुं सायकं, हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम् 
गौरी देहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महापूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुंभादिदैत्यार्दिनीम् 




ॐ घंट शूल हल शंख मूसल चक्र धनु बाण, करकमलों में हैं लिए, शरत्चंद्र सम कांति गौरिज जगताधार पूर्वामत्र सरस्वती, शुम्भ दैत्यमर्दिनी नमन भजूं सतत पा शांति 
उल्लेखनीय है कि दुर्गाशप्तशती में माँ की दोनों पुत्रियों को महत्व दिया गया है किन्तु दोनों पुत्रों कार्तिकेय और गणेश नहीं हैं। सरस्वती जी पर केंद्रित ‘प्राधानिकं रहस्यं’ उपसंहार के अंतर्गत है। स्वयं शिव का स्थान भी माँ के स्वामी रूप में ही है, स्वतंत्र रूप से नहीं। इसका संकेत आरम्भ में अथ सप्तश्लोकी दुर्गा में शिव द्वारा देवताओं को माँ की महिमा बताने से किया गया है। विनियोग आरम्भ करते समय श्री महाकाली, महालक्ष्मी व् महासरस्वती का देवता रूप में उल्लेख है। स्त्री-पुरुष समानता के नाम पर समाज को विखंडित करनेवाले यदि दुर्गासप्तशती का मर्म समझ सकें तो उन्हें ज्ञात होगा कि सनातन धर्म लिंग भेद में विश्वास नहीं करता किंतु प्रकृति-पुरुष को एक दूसरे का पूरक मानकर यथावसर यथायोग्य महत्त्व देते है। त्रिदेवियों की महत्ता प्रतिपादित करती दुर्गा सप्तशती और माँ के प्रति भक्ति रखनेवालों में पुरुष कम नहीं हैं। यह भी कि माँ को सर्वाधिक प्यारी संतान परमहंस भी पुत्र ही हैं। 
दुर्गा परिवार - विसंगति से सुसंगति 
दुर्गा परिवार विसंगति से सुसंगति प्राप्त करने का आदर्श उदाहरण है। शिव पुत्र कार्तिकेय (स्कंद) उनकी पत्नी के पुत्र नहीं हैं। स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव-वरदान पाकर अति शक्तिशाली हुए अधर्मी राक्षस तारकासुर का वध केवल केवल शिवपुत्र ही कर सकता था। वैरागी शिव का पुत्र होने की संभावना न देख तारकासुर तीनों लोकों में हाहाकार मचा रहा था। त्रस्त देवगण विष्णु के परामर्श पर कैलाश पहुँचे। शिव-पार्वती देवदारु वन में एक गुफा में एकांतवास पर थे। अग्नि देव शिव से पुत्र उत्पत्ति हेतु प्रार्थना करने के उद्देश्य से गुफा-द्वार तक पहुँचे। शिव-शिवा अद्वैतानंद लेने की स्थिति में थे। परपुरुष की आहट पाते ही देवी ने लज्जा से अपना सुंदर मुख कमलपुष्प से ढक लिया, वह रूप लज्जा गौरी के नाम से प्रसिद्ध है। कामातुर शिव का वीर्यपात हो गया। अग्निदेव उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण कर, तारकासुर से बचाकर जाने लगे। वीर्य का उग्र ताप अग्निदेव से सहन नहीं हुआ। अग्नि ने वह अमोघ वीर्य गंगा को सौंप दिया किंतु उसके ताप से गंगा का पानी उबलने लगा। भयभीत गंगा ने वह दिव्य अंश शरवण वन में स्थापित कर दिया किंतु गंगाजल में बहते-बहते छह भागों में विभाजित उस दिव्य अंश से छह सुंदर-सुकोमल शिशुओं का जन्म हुआ। उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं ने उन बालकों का कृतिकालोक ले जाकर पालन-पोषण किया। नारद जी से यह वृतांत सुन शिव-पार्वती कृतिकालोक पहुँचे। पार्वती ने उन बालकों को इतने ज़ोर से गले लगाया कि वे छह शिशु एक शिशु हो गए जिसके छह शीश थे। शिव-पार्वती कृतिकाओं से बालक को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं द्वारा पालित उस बालक को कार्तिकेय (स्कन्द, षडानन, पार्वतीनंदन, तारकजित्, महासेन, शरजन्मा, सुरसेनानी, अग्निभू, बाहुलेय, गुह,विशाख, शिखिवाहन, शक्तिश्वर, कुमार, क्रौंचदारण) कहा गया। कार्तिकेय ने बड़े होकर राक्षस तारकासुर का संहार किया। देवी अपने गर्भ से उत्पन्न न होने पर भी पति शिव के पुत्र को अपना मान लेती हैं। 
पार्वती पुत्र गणेश उनके पति शिव के पुत्र नहीं हैं। शिव पुराण के अनुसार पार्वती जी शिव के प्रवास काल में स्नान करते समय द्वार पर प्रवेश निषेध के लिए अपने शरीर के मैल से पुतले का निर्माण कर प्राण डाल देती हैं। शिव को प्रवेश करने से रोकते हुए युद्ध में गणेश शहीद होते हैं। कोलाहल सुनकर बाहर आने पर वे पुत्र के लिए शोक करती हैं। शिव बिना कोई शंका या प्रश्न किये तुरंत उपचार हेतु सक्रिय होते हैं और मृत बालक के धड़ के साथ गज शिशु का मुख जोड़कर उसे अपना पुत्र बना लेते हैं। सृष्टि परिक्रमा की स्पर्धा होने पर गणेश कार्तिकेय को हराकर अग्रपूजित हो जाते हैं। यहाँ बल पर ज्ञान की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है। 




युद्ध की देवी दुर्गा पर्व-पूजा के समय पितृ गृह में विश्राम हेतु पधारती हैं। हर बंगाली उन्हें अपनी पुत्री मानकर उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखता है जबकि भारत के अन्य हिस्सों में उन्हें मैया मानकर पूजा जाता है। सप्तमी, अष्टमी और नवमी में पति गृह जाने के पूर्व कन्या के मन-रंजन हेतु स्वादिष्ट व्यंजनों का भोग लगाया जाता है, गायन और नृत्य के आयोजन होते हैं। बंगाल में धुनुची नृत्य और सिन्दूर पूजा का विशेष महत्व है जबकि गुजरात में गरबा और डांडिया नृत्य किया जाता है। विजयादशमी के पश्चात् दुर्गा प्रतिमा बाड़ी या आँगन के बाहर की जाती है तब भावप्रवण बांगला नर-नारियाँ अश्रुपात करते देखे जा सकते हैं। एक अलौकिक शक्ति को लौकिक नाते में सहेजकर उससे शक्ति अर्जित करना सनातन धर्मियों का वैशिष्ट्य है। हमारी सामाजिक मान्यताएँ, रीति-रिवाज और जीवन मूल्य प्रकृति और पुरुष को एक साथ समेटते हुए जीवंत होते हैं। 
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[संपर्क - विश्व वाणी हिंदी संस्थान ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष - ७९९९५५९६१८ जिओ, ९४२५१८३२४४ वाट्सएप, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com] 
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