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बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

बृज सवैया डॉ. प्रतीक मिश्र

बृज पर्व
छंद सवैया
डॉ. प्रतीक मिश्र
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हौंसनि चित्र रच्यो है कबै, धौंसनि पूरी भई कबै साधा।
चाहना सों को कबै कवि-कोविद, थाहि सक्यो रस सिंधु अगाधा।
स्याम जू जौ लौं कृपालु न होहिं, तो क्यों रचि पावैं सवैया अबाधा।
नामु कौं कामु 'प्रतीक' कौं है इतै, बोलत कान्ह लिखावतीं राधा।
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जा पै मया करैं, ता पै दया करैं, पैरहि वा महासिंधु अगाधा।
बोल न जानै पै औचक बोलहि, तिंता औ' ता-ता, धिंधा औ' धा-धा।
लाखि बिरंचि लिखैं दुःख-दारिद, पै वे करैं, सब पूरन साधा।
जानहि नेही, 'प्रतीक' न आनहिं, जानहि नामु द्वै कान्ह औ' राधा।
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मातुहिं नैनन तारे गोपाल औ, नंद के लाल सलोने से छैया। 
राधिका के उर साँवरे स्याम औ, गोपिन के मन प्रान कन्हैया।
पूतना, कंस उधारन हार जे, बियर बली बलदाऊ के भैया। 
नेह कै धारि सम्हारि-सम्हारि कै, पारि करैंगे 'प्रतीक' कै नैया। 
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साभार  : बिरह बीथि      





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