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बुधवार, 31 मार्च 2010

नव गीत: रंगों का नव पर्व बसंती --संजीव 'सलिल'

नव गीत

संजीव 'सलिल'


*

रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया...
*
आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया...
*
कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया...
*
है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर.
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर.
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया...
*
divynarmada.blogspot.com

3 टिप्‍पणियां:

mcgupta44@gmail.com ने कहा…

सलिल जी,

बहुत सत्य लिखा है--


कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया...

--ख़लिश

smchandawarkar@yahoo.com ने कहा…

आचार्य सलिल जी,
बहुत सुन्दर गीत के लिए बधाई!

"भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया."

से
"मस्ज़िद में पीने दे वाइज़
या वो जगह दिखा जहाँ खुदा न हो"
याद आया।
आनातोल फ़्रान्स की एक बहुत मर्मस्पर्शी कथा "The Juggler" हमारे पाठ्य पुस्तक में थी, जो आज ६५ साल बाद याद आई। पूजा- अर्चा की विधियाँ न जानने से एक juggler चर्च में मदर मेरी को अपनी हाथ की चालाकी का काम, जिस को ’पाप’ (sin) समझा जाता था, समर्पित करता है। तब चर्च के अन्य धर्मोपदेशक यह देख कर उस को दण्ड देने की सोच ही रहे थे, कि देखते हैं कि मदर मेरी अपनी जगह से उतर कर आतीं हैं, और बडे प्यार से अपने नीले रेशमी परिधान से उस का पसीना पोंछती हैं!
सस्नेह
सीताराम चंदावरक

ahutee@gmail.com ने कहा…

आ० आचार्य जी,
परिवेश का सही एवं मार्मिक चित्रण करता सुन्दर नव-गीत के लिये
बधाई !
कमल