कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 11 मार्च 2010

दोहे - मुक्तक : --'सलिल'

दोहे - मुक्तक :

पर्वत शिखरों पर बसी धूप-छाँव सँग शाम.
वृक्षों पर कलरव करें, पंछी पा आराम..
*
बिना दाम मेहनत करे, रवि बँधुआ मजदूर.
आसमान चुप सिसकता, शोषण है भरपूर..
*
आँख मिचौली खेलते, बदल-सूरज संग.
यह भगा वह पकड़ता, देखे धरती दंग..
*
पवन सबल निर्बल लता, वह चलता है दाँव.
यह थर-थर-थर कांपती, रहे डगमगा पाँव..
*
कली-भ्रमर मद-मस्त हैं, दुनिया से बेफिक्र.
त्रस्त तितलियाँ हो रहीं, सुन-सुनकर निज ज़िक्र..
*
सदा सुहागिन रच रही, प्रणय ऋचाएँ झूम.
जूही-चमेली चकित चित, तकें 'सलिल' मासूम..
*
धूल जड़ों को पोसकर, खिला रही है धूल.
सिसक रही सिकता 'सलिल', मिले फूल से शूल..

समय बदला तो समय के साथ ही प्रतिमान बदले.
प्रीत तो बदली नहीं पर प्रीत के अनुगान बदले.
हैं वही अरमान मन में, है वही मुस्कान लब पर-
वही सुर हैं वही सरगम 'सलिल' लेकिन गान बदले..
*
रूप हो तुम रंग हो तुम सच कहूँ रस धार हो तुम.
आरसी तुम हो नियति की प्रकृति का श्रृंगार हो तुम..
भूल जाऊँ क्यों न खुद को जब तेरा दीदार पाऊँ-
'सलिल' लहरों में समाहित प्रिये कलकल-धार हो तुम..
*
नारी ही नारी को रोके इस दुनिया में आने से.
क्या होगा कानून बनाकर खुद को ही भरमाने से?.
दिल-दिमाग बदल सकें गर, मान्यताएँ भी हम बदलें-
'सलिल' ज़िंदगी तभी हँसेगी, क्या होगा पछताने से?
*
ममता को सस्मता का पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
*

कोई टिप्पणी नहीं: