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मंगलवार, 16 मार्च 2010

:: फागुनी दोहे :: ---आचार्य संजीव 'सलिल'

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महुआ महका, मस्त हैं पनघट औ' चौपाल।

बरगद बब्बा झूमते, पत्ते देते ताल।
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सिंदूरी जंगल हँसे, बौराया है आम।

बौरा-गौरा साथ लख, काम हुआ बेकाम।
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पर्वत का मन झुलसता, तन तपकर अंगार।

वसनहीन किंशुक सहे, पञ्च शरों की मार। ।
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गेहूँ स्वर्णाभित हुआ, कनक-कुञ्ज खलिहान।

पुष्पित-मुदित पलाश लख, लज्जित उषा-विहान।
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बाँसों पर हल्दी चढी, बंधा आम-सिर मौर,

पंडित पीपल बांचते, लगन पूछ लो और।
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तरुवर शाखा पात पर, नूतन नवल निखार।

लाल गाल संध्या किये, दस दिश दिव्य बहार।
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प्रणय-पंथ का मान कर, आनंदित परमात्म।

कंकर में शंकर हुए, प्रगट मुदित मन-आत्म।

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2 टिप्‍पणियां:

बेनामी : ने कहा…

It agree, rather useful phrase

अवनीश एस तिवारी ने कहा…

सुन्दर चित्रण |

अवनीश तिवारी