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सोमवार, 29 मार्च 2010

दोहे: निर्झर -संजीव 'सलिल'

नेह निनादित ध्वनि मधुर, निर्झर रहा बिखेर.
देख सुनो मुद-मग्न हो, करो न किंचित देर..

पत्थर-दिल चट्टान से, सलिलामृत की धार.
तृषा मिटने आ गई, बन भू का श्रृंगार..

लहर-लहर में गूँजते, जीवन के शत राग.
उषा प्रिय की हँसी सी, संझा प्रीत-सुहाग..

हरियाली खुशियाँ लिए, आयी तेरे द्वार.
जोड़ न सबमें बाँट दे, अपने मन का प्यार..

'सलिल'-साधना स्नेह की, जो करता है धन्य.
देता है सन्देश नित, निर्झर सतत अनन्य..

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

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