प्राचीन लिपियाँ
अरविंद व्यास
*
जितनी भी प्राचीन लिपियाँ पढी गई हैं उन्हें पढ पाने की कुञ्जियाँ किसी ऐसी लिपियों के माध्यम से मिली हैं जिन्हें हम पढ सकते हैं; अथवा किसी अन्य लिपि के माध्यम से पढ पाते हैं — अथवा तुलना कर पाते हैं। सौभाग्य से कुछ ऐसी लिपियाँ (यथा ग्रीक, लातिनी, हिब्रू, आदि) हैं जो दीर्घकाल से प्रचलन में हैं; और कुछ ऐसी लिपियाँ हैं, जिनको हम उनसे जन्मी लिपियों के माध्यम से पढ सकते हैं (यथा आरामी)। मिस्र की चित्रलिपि को रोसेटा प्रस्तर अभिलेख के माध्यम से पढ पाने में सफलता मिली। नेपोलियन के मिस्र विजय अभियान के मध्य 1799 में मिले इस अभिलेख ने मिस्र की चित्रलिपि पढ पाने का द्वार खोला। टोल्मी पञ्चम द्वारा 196 ईसा पूर्व में अङ्कित इस आदेश में मिस्र की चित्रलिपि के अतिरिक्त, मिस्र की देमोती लिपि (Demotic script), तथा प्राचीन (which is also Egyptian), तथा टोल्मी वंश की मातृभाषा पुरानी ग्रीक भी ग्रीक लिपि में लिखी गई है। तीनों लिपियों में एक ही आदेश भिन्न भाषाओं में मुद्रित किया गया है। ग्रीक लिपि का परिष्कृत स्वरूप, तथा ग्रीक भाषा अब भी प्रचलन में है। अतः इस शिलालेख में पुरातत्ववेत्ताओं तथा लिपि को पढने का प्रयास करने वालों के लिए एक आरम्भ बिन्दु था। इस शिलालेख की 14 पङ्क्तियाँ मिस्र की चित्रलिपि में है; 32 देमोती में, और 54 पुरानी ग्रीक लिपि में। पुरानी मिस्री भाषा से मिस्र की कोप्ती भाषा का उद्भव हुआ है; अतः यह भी एक अन्य सहायक बात हो गई। किन्तु, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मिस्र की चित्रलिपि तुरन्त पढी जा सकी। इसके लिए पहले नामों और फिर उनकी ध्वनियों के आधार पर अन्य शब्दों को पढने का प्रयास किया गया तथा कोप्ती भाषा के ज्ञान को आधार बनाकर अन्य शब्दों की ध्वनियों का अनुमान किया गया। किन्तु, इस चित्रलिपि के लगभग 3200 ईसा पूर्व से 300 ईस्वी तक लगातार प्रचलन में होते हुए भी आज तक भी शोधकर्ता मिस्र की चित्रलिपि को पूर्णरूपेण नहीं पढ पाते हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप की ब्राह्मी लिपि को ही लें; सम्राट अशोक के शिलालेख भारतीय उपमहाद्वीप में दूर-दूर तक मिलते हैं। किन्तु, हम इनकी लिपि को पढ नहीं पाते थे। अन्ततः श्रीलङ्का में संरक्षित कुछ प्राचीन पाली बौद्ध ग्रन्थों और एक श्रीलङ्काई बौद्ध भिक्षु रत्नपाल की सहायता से अङ्ग्रेज जेम्स प्रिन्सेप (James Prinsep, 20 अगस्त 1799 — 22 अप्रैल 1840)) ने 1832 में ब्राह्मी लिपि को पढने में सफलता पाई। इसमें छठी शताब्दी की गुप्त-कालीन ब्राह्मी (जिसमें देवनागरी लिपि का प्रारूप झलकता है) के 1785 में चार्ल्स विल्किन्स (Charles Wilkins, 1749 — 13 मई 1836) द्वारा सफलतापूर्वक पढे जाने का; तथा मौर्यकाल तथा गुप्तकाल के मध्य के साँची के अभिलेखों को पढ पाने का भी योगदान रहा। नॉर्वे के शोधकर्ता क्रिस्चियन लासेन (Christian Lassen, 22 अक्तूबर 1800 – 8 मई 1876)) के 1834 में यवन क्षत्रप अगथोक्लेस के ग्रीक और ब्राह्मी लिपि में मुद्रित सिक्के को पढने में सफलता का भी कुछ योगदान रहा है। प्रिन्सेप ने भी युनानी क्षत्रपों के सिक्कों, स्तूपों के अभिलेखों आदि को शनैः शनैः पढ पाने में सफलता पाई। इसमें अनेक स्तूपों पर लिखा शब्द दानं (दान) नामों के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार के शब्दों में प्रथम था।
प्रिन्सेप ने भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग की दाएँ से बाएँ लिखी जाने वाली लिपि को 1835 में पढने में सफलता पाई; स्वतन्त्र रूप से जर्मन कार्ल लुदविग ग्रोतेफेन्द (Carl Ludwig Grotefend, 22 दिसम्बर 1807 — 27 अक्तूबर 1874) ने 1836 में खरोष्ठी पढने में सफलता पाई। फिर भी ब्राह्मी लिपि को पढने में कुछ कठिनाई बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक भी आती रहीं। क्योंकि दक्षिण भारत में प्रचलित तमिऴ ब्राह्मी का स्वरूप कुछ भिन्न था।
ब्राह्मी लिपि के उद्गम पर भी अब तक पूर्ण सहमति नहीं है। कुछ शोधकर्ताओं (यथा योहान जेओर्ग बुह्लर (Johann Georg Bühler, 19 जुलाई 1837 – 8 अप्रैल1898)) ने इसे पश्चिमी एशिया की सेमेटिक लिपियों से रचा माना है; तो कुछ (यथा, जॉन मार्शल (John Hubert Marshall, 19 मार्च 1876 – 17 अगस्त 1958) ने इसे सिन्धु लिपि से प्रेरित भारती लिपि माना है। वहीं कुछ अन्य (यथा, रेमंड आल्चिन (Raymond Allchin, 9 जुलाई 1923 — 4 जून 2010 )) इसे मिश्रित मूल का कहते हैं। ध्यान दें कि खरोष्ठी लिपि का सेमेटिक उद्गम सुस्थापित है। अतः किसी भी लिपि को सफलतापूर्वक पढ पाने में माध्यमिक लिपियों का, उस काल की किसी ज्ञात लिखित भाषा का और अथक प्रयास का होना आवश्यक है।
सिन्धु लिपि लगभग चार हजार वर्ष पूर्व प्रयोग से बाहर हो चुकी थी। इसके लगभग बारह सौ वर्ष पश्चात ब्राह्मी लिपि प्रचलन आई! यह एक लम्बी अवधि है। इसके बीच में भारतीय उपमहाद्वीप में किसी प्रकार की लिपि के साक्ष्य विरल हैं। अतः कुछ भी निर्णय ले पाना कठिन है। क्योंकि माध्यमिक प्रमाणों का सर्वथा अभाव है। फिर भी, जो माध्यमिक अभिलेख मिले हैं उनके बारे में जानकारी प्रस्तुत है।
पद्म विभूषण से सम्मानित पुरातत्ववेत्ता ब्रज बासी (बी बी) लाल (2 मई 1921 — 20 सितम्बर 2022) ने द्वारिका के निकट एक छोटा अभिलेख खोजा; जिस पर अङ्कित शब्दों को उन्होंने सिन्धु लिपि तथा ब्राह्मी लिपि के मध्य की लिपि — एक प्रकार से ब्राह्मी लिपि का प्रारूप कहा है।
थर्मल ल्युमेनेसेंस विधि से ईसा पूर्व 1500 का आकलन किए इस अभिलेख को प्रोफेसर लाल ने सिन्धु लिपि और ब्राह्मी लिपि के मध्य का बताया है। यह चित्र मेरी अप्रकाशित पुस्तक Brahmi and her daughters में सङ्कलित है। इसे प्रोफेसर लाल ने बाएँ से दाएँ "महाकच्छ सहा प" (समुद्र के देवता महाकच्छ सहायता करें) पढा है। किन्तु, इसके समकालीन अन्य अभिलेखों की अनुपस्थिति से हम सिन्धु घाटी सभ्यता के बारे में कुछ अधिक कह नहीं सकते।
प्रोफेसर लाल ने सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के उपरान्त महापाषाण काल के कुछ मिट्टी के भाण्डों के टुकड़ों पर बने चिह्नों का अध्ययन कर 1962 में ही उनके सिन्धु लिपि तथा ब्राह्मी लिपि के माध्यमिक स्वरूप के होने पर विचार व्यक्त करते एक शोध-पत्र प्रकाशित किया था। किन्तु, ऐसे अधिक उदाहरण न मिलने से यह कार्य पूर्णता तक नहीं पहुँच पाया।
उनके शोध-पत्र से महापाषाण काल चिह्नों और सिन्धु लिपि की तुलना करते यह चित्र इन दोनों कालों के अभिलेखों में चिह्नों की अल्पता को दर्शाता है। (PDF भारतीय पुरातत्व सन्स्थान के पोर्टल से)
इनके समकालीन पुरातत्ववेत्ता डॉक्टर शिकारीपुरा रङ्गनाथ राव (1 जुलाई 1922 — 3 जनवरी 2013) का मत था कि फोनेशियाई लिपि जिससे ग्रीक, रोमन, हिब्रू, सीरिलिक, आरामी आदि लिपियाँ जन्मीं उनका उद्गम सिन्धु लिपि में है।
इस चित्र में डॉ॰ राव के मतानुसार सिन्धु और फोनेशियाई लिपियों में समानताएँ दिखाई गई हैं। उनके अनुसार सिन्धु लिपि के चिह्न शब्दों को तथा उनके घटक अक्षरों को व्यक्त करते हैं। इस बात पर भी सिन्धु घाटी सभ्यता के उपरान्त तथा ब्राह्मी लिपि के उद्भव पूर्व के अभिलेखों के अभाव में सहमति नहीं बन पाई है।
सिन्धु लिपि के अभिलेखों के अतिरिक्त उड़ीसा के झारसुगुडा के निकट एक साधु ज्ञानानन्द ने बिक्रमखोल गुफा में कुछ अभिलेख पाए। लगभग 1500 ईसा पूर्व के इन अभिलेखों को के पी जायसवाल ने अपनी 1933 की शोध में सिन्धु लिपि और ब्राह्मी लिपि के मध्य की कडी बताया था। किन्तु, इन्हें पढा नहीं जा सका है।
इसी प्रकार की कडियों के अध्ययन से और उन्हें पढ पाने से ही हम सिन्धु लिपि को भी पढ पाने में सक्षम हो सकते हैं।
सिन्धु लिपि के साथ सबसे अधिक कठिनाई वाली बात यह है कि इस लिपि में कोई भी लम्बे अभिलेख नहीं हैं।
सिन्धु लिपि का सबसे लम्बा अभिलेख मात्र 26 चिह्नों वाला है; इनमें 17 भिन्न चिह्न हैं। इसे M-314 कूट दिया गया है।
धोलावीरा के नामपट्ट में सबसे बडे (लगभग 37 सेंटीमीटर) मात्र 10 चिह्न ही हैं।
इनको अनेक व्यक्तियों ने चिह्नों को यदृच्छ वर्ण मान देकर भी उन्हे पढने का प्रयास किया है। यथा, सुजैन मैरी रेडालिया सुलिवन (Suzanne Marie Redalia Sullivan) के मान के अनुसार धोलावीरा के नामपट्ट को अस्पष्ट रूप से अक्षर रंगपुर पढ सकते हैं। उनका मानना है कि इनकी भाषा मुख्य रूप से संस्कृत है, इसमें अन्य भाषाएँ भी समाहित हैं, जिनसे सिन्धु घाटी सभ्यता के व्यापारिक सम्बन्ध थे। किन्तु, इस विधि को अवैज्ञानिक माना जाता है। क्योंकि यह ज्ञात तथ्यों पर आधारित न होकर बलात् (ब्रूट फोर्स से) किसी समाधान का प्रयास है। इसमें भिन्न व्यक्ति भिन्न परिणाम पाते हैं। अब भी कुछ शोधार्थी कम्प्यूटर तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता के सहारे इस विधि से यह पहेली सुलझाने में जुटे हैं। किन्तु, प्रमाण को सिद्ध करने में यह विधि अधिक उपयोगी नहीं है।
सिन्धु घाटी सभ्यता की भाषा क्या है इस पर भी एकमत नहीं है। अधिकांश शोधकर्ता (यथा, Asko Parpola — अस्को पारपोला (12 जुलाई 1941), तथा इरावतम् महादेवऩ्) इसे द्राविड भाषाओं के बोलने वालों की सभ्यता मानते हैं।
अस्को पारपोला सङ्कलित सिन्धु लिपि के चिह्न; लगभग पचास वर्षों में भी वे इनमें से कुछ ही के अर्थ प्रस्तावित कर पाए हैं। किन्तु वे भी स्वीकार्यता नहीं पा सके हैं।
इरावतम् महादेवऩ् (2 अक्तूबर 1930 — 26 नवम्बर 2018) ने ब्राह्मी लिपि पर बहुत शोध की है, तथा तमिऴ ब्राह्मी लिपि की विशिष्टता को पहचानने का कार्य उन्हीं का है। उन्होंने सिन्धु लिपि के चिह्नों की प्रथम व्यवस्थित वृहत्तर सूची बनाई; जिसे महादेवऩ् सूची (Mahadevan concordance) कहा जाता है। उनके अनुसार सिन्धु लिपि किसी द्राविड भाषा का प्रतिनिधित्व करती है। जिसमें मुरुगन आदि देवताओं का अङ्कन है। महादेवऩ् ने अनेक ऐसे स्रोतों का भी अपनी शोध वर्णन किया है, जो मूलतः द्राविड भाषाओं में नहीं हैं; किन्तु महादेवऩ् के अनुसार वे मूलतः द्राविड मान्यताएँ हैं, जिन्हें आर्यों ने अङ्गीकार किया। यथा, वैदिक दध्याञ्च को उन्होंने द्राविड उद्गम का माना है, जिसे वैदिक संस्कृति ने अपना लिया। अनेक वर्ष पूर्व अपने ब्लॉग पर मैंने अपने एक आलेख में लिखा है कि इस प्रतीक को बिना द्राविड मूल का कहे भी वैदिक परम्परा का माना जा सकता है। (लिंक [1])
कालीबङ्गा में मिले इस मृण-भाण्ड पर अङ्कित अस्थियों की आकृति को महादेवऩ् ने ऋग्वेद में वर्णित दधिक्र अश्व तथा दध्याञ्च से सम्बन्धित माना है।
किन्तु, इस अध्ययन में मैं महादेवऩ् का पासङ्ग भी नहीं हूँ। अतः उनसे मतैक्य न रखते हुए उनके शोध की प्रशंसा और इस विषय के विद्यार्थियों को उन्हें पढने की अनुशंसा करता हूँ।
यदि चिह्नों को प्रतीक कहा जाए तो प्रतीकों के सार्थक होने को भी स्वीकारने में आनाकानी कैसी? श्रीनिवास कल्याणरामऩ् इन चिह्नों को रेबस मानकर (जिसे उन्होंने म्लेच्छ विकल्प का नाम दिया है) सिन्धु लिपि को पढने का प्रयास कर रहे हैं। इस विधि में चिह्न को किसी विषय - वस्तु का प्रतीक मानकर उससे सम्बन्धित ध्वनि मान के आधार पर अन्य अर्थ निकाल सकते हैं। यह भी तभी सार्थक है जब भाषा ज्ञात हो। कल्याणरामऩ् जी ने भारतीय भाषा-क्षेत्र (Indian sparschbund) की परिकल्पना कर एक वृहद भारतीय भाषाओं के समानार्थी शब्दों का कोश सङ्कलित किया है। किन्तु, इसमें कुछ प्राचीन तो कुछ आधुनिक भाषाओं के समावेश से यह विधि तब की भाषा को न लेकर एक अटपटा सा विषम-सामायिक मिश्रण प्रस्तुत करती है। भाष के चयन में परिवर्तन होने से इस विधि से भिन्न परिणाम मिलेंगे। अतः जब तक सिन्धु घाटी सभ्यता की भाषा पर सहमति नहीं बन जाती यह एक विवादास्पद विषय ही रहेगा। चीनी लिपि कुछ इसी प्रकार की है; किन्तु, जब जापानी इसका प्रयोग करते हैं तो इस लिपि के आवरण में चीनी लिपि से इतर भिन्न उच्चारण वाली जापानी भाषा होती है।
बहुधा सिन्धु लिपि की समकालीन अन्य लिपियों के पढ़ें जा सकने का विवरण देकर यह कहा जाता है कि जानबूझकर सिन्धु लिपि को पढ़ा नहीं गया। किन्तु सिन्धु लिपि की पड़ोसी समकालीन एलामी सभ्यता की एलामी लिपि (Elamite Script) नहीं पढ़ी जा सकी है। यह लिपि लगभग 3200 ईसा पूर्व में अस्तित्व में आई।
इसकी सिन्धु लिपि से साम्यता है। यदि सिन्धु लिपि और सुमेरियाई क्यूनिफार्म लिपि के द्विभाषी अभिलेख मिल जाएँ तो हमारी इस समस्या का सुलझाव सम्भव है। अथवा सुमेरियाई और एलामी के द्विभाषी अभिलेखों के साथ एलामी और सिन्धु लिपि के द्विभाषी अभिलेख भी मिलें तो यह इस लिपि को पढ पाने में सहायता कर सकती है। अन्यथा हम अन्धेरे में तीर मारने का ही कार्य कर रहे हैं।
यही नहीं ईरान की लगभग 2200 ईसा पूर्व में विकसित जितरोफ लिपि, साइप्रस और मिनोअन लिपि (1550 ईसा पूर्व), चीन के दावेंकोउ चिह्न (2800 – 2500 ईसा पूर्व), चीन के लोंगशान चिह्न (2500 – 1900 ईसा पूर्व) श, चीन के वूचेंग चिह्न (1600 ईसा पूर्व), वादी अल होल लिपि (1800 ईसा पूर्व), बिब्लोस लिपि (1700 ईसा पूर्व), इत्यादि ऐसी अनेक समकालीन लिपियों को पढ़ा नहीं जा सका है। इनमें से कुछ लिपियाँ ऐसे क्षेत्र में हैं, जहाँ उनकी कुछ समकालीन लिपियों (जैसे सुमेरियाई क्यूनिफार्म लिपि) पढ़ी जा चुकी है।
वैसे, मेरी दृष्टि में प्रोफेसर बी बी लाल की विधि उत्तम है। किन्तु, इसके लिए हमें कुछ बडे और अधिक सङ्ख्या में अभिलेख चाहिएँ।
कुछ शोधकर्ताओं (यथा, Steve Farmer, Michel Witzel, Richard Sproat— स्टीव फार्मर, माइकल विट्ज़ेल, रिचर्ड स्प्रोट) का यह मानना है कि सिन्धु लिपि मात्र कुछ प्रतीक चिह्नों का निरूपण है; यह वास्तविक लिपि नहीं है। उन्होंने लगभग दो दशक पूर्व इसे लिपि सिद्ध करने के लिए दस हजार अमेरिकी डॉलर का पुरस्कार घोषित किया है।
[2] किन्तु अभी तक इस पुरस्कार के लिए उनसे किसी भी व्यक्ति ने सम्पर्क नहीं किया है। इस पुरस्कार की घोषणा का उद्देश्य यह है कि चिह्नों की अल्पता, जिस प्रकार चिह्न बनाए गए और दोहराए गए हैं हैं, उस आधार पर इन चिह्नों के किसी भाषा को व्यक्त करने की क्षमता का अभाव मानते हुए सिन्धु चिह्नों को लिपि नहीं माना है। पारपोला सहित अधिकांश अध्येता स्टीव फार्मर के दावे से सहमत नहीं हैं; किन्तु पिछले लगभग दो दशक में फार्मर को कोई भी व्यक्ति उपयुक्त चुनौती प्रस्तुत नहीं कर पाया है। यह सिन्धु लिपि की जटिलता दर्शाता है और भविष्य के शोधकर्ताओं के लिए भी एक सशक्त चुनौती प्रस्तुत करता है।
किसी को भी दोषी मानने से पूर्व यह अवश्य विचार करें कि क्या हमने स्वयं इस दिशा में प्रयास किया है? इस विषय में मेरी रुचि होने से मैं स्वयं इस लेख में वर्णित कुछ अध्येताओं के सम्पर्क में रहने का सौभाग्य प्राप्त हूँ। इनमें से कुछ ने व्यक्तिगत रूप से अनेक शोध-पत्र तथा अन्य उपयोगी जानकारी (चित्र आदि) भी साझा किए हैं (विशेषकर स्टीव फार्मर तथा एस कल्याणरामऩ् ने, जो कि परस्पर विरोधी विचारधारा के हैं)।
पिछले दो दशक में इस विषय पर मेरी जानकारी तो बढ़ी है; परन्तु अब भी स्वयं को सिन्धु लिपि की पहेली का समाधान खोजने में उतना ही असमर्थ पाता हूंँ, जितना कि पहले था।
© अरविन्द व्यास, सर्वाधिकार सुरक्षित।
इस आलेख को उद्धृत करते हुए इस लेख के लिंक का भी विवरण दें। इस आलेख को कॉपीराइट सूचना के साथ यथावत साझा करने की अनुमति है। कृपया इसे ऐसे स्थान पर साझा न करें जहाँ इसे देखने के लिए शुल्क देना पडे।
फुटनोट
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें