*
कचनार
बीज पर्ण जड़ छाल अरु, फूल फली निष्काम।
मानव को कचनार दे, सहता कष्ट तमाम।।
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वास्तु सूत्र
धन संचय
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धन के दो अर्थ होते हैं, पहला योग या जोड़ना अर्थात संचय तथा दूसरा संपत्ति। अर्जित धन में से कम व्यय कार बचाए धन को संचित कर संपत्ति बनाई जाति है। इसीलिए धन-संपत्ति शब्द युग्म का प्रयोग संपन्नता हेतु किया जाता है। धन कई प्रकार का होता है। मुद्रा, जेवर, भूमि, विद्या, स्वास्थ्य, चरित्र आदि को प्रसंगानुसार धन कहा जा सकता है। अंग्रेजी उक्ति है- ''वेल्थ इस लॉस्ट नथिग इस लॉस्ट, हेल्थ इस लॉस्ट सम थिंग इस लॉस्ट, कैरेक्टर इस लॉस्ट एवरी थिंग इस लॉस्ट'' अर्थात धन खोया तो कुछ नहीं खोया, स्वास्थ्य खोया तो कुछ खोया, चरित्र खोया तो सब कुछ खोया।
भारत में धन संबंधी धारणा निम्न श्लोकों में वर्णित हैं। इन्हें पढ़ें, समझें और परिस्थिति के अनुसार उपयोग में लाइए। व्यावहारिक धरातल पर धन-संचय, यथा समय समुचित उपयोग तथा भावी पीढ़ी के लिए छोड़ना सबका महत्व है। संचित धन की सुरक्षा और वृद्धि संबंधी वास्तु सूत्र अंत में दिए गए हैं।
अतितॄष्णा न कर्तव्या तॄष्णां नैव परित्यजेत्।
शनै: शनैश्च भोक्तव्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम् ॥
अत्यधिक तृष्णा (कामना) न करें, न पूरी तरह छोड़ दें। अपने श्रम से कमाए धन का उपभोग धीरे धीरे भोग करें।।
स हि भवति दरिद्रो यस्य तॄष्णा विशाला।
मनसि च परितुष्टे कोर्थवान् को दरिद्रा:॥
वास्तव में दरिद्र वह है जिसकी कामनाएँ बड़ी हैं। जो मन से संतुष्ट है उसके लिए धनी या दरिद्र होना कोई अर्थ नहीं रखता।
अर्थानाम् अर्जने दु:खम् अर्जितानां च रक्षणे।
आये दु:खं व्यये दु:खं धिग् अर्था: कष्टसंश्रया:॥
पहले धन कमाने में कष्ट होता है, बाद में धन की रक्षा करने में भी कष्ट होता है। जिसधन की आय और व्यय दोनों दुःख है, ऐसे धन को धिक्कार है।
वॄत्तं यत्नेन संरक्ष्येद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत:॥
चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करें, धन आता-जाता रहता है। धन-नाश से मनुष्य का नाश नहीं होता, चरित्र-नाश से जीवित मनुष्य भी मृत समान हो जाता है।
नाम्भोधिरर्थितामेति सदाम्भोभिश्च पूर्यते।
आत्मा तु पात्रतां नेय: पात्रमायान्ति संपद:।।
समुद्र कभी जल की इच्छा नहीं करता तब भी सदा जल से भर रहता है। खुद को पात्र बनाएँ सम्पति अपने आप मिलेगी।
गौरवं प्राप्यते दानात्,न तु वित्तस्य संचयात्।
स्थिति: उच्चै: पयोदानां, पयोधीनां अध: स्थिति:॥
दान से गौरव प्राप्त होता है, धन-संचय से नहीं। जल देने वालेबादल ऊपर है जबकि जल-संचय करनेवाला समुद्र नीचे है।
दातव्यं भोक्तव्यं धनं सञ्चयो न कर्तव्यः।
पश्येह मधुकरीणां सञ्चितार्थं हरन्त्यन्ये॥
धन का दान अथवा उपभोग करें, धन-संचय न करें। मधु-मक्खी द्वारा मधु संचित मधु कोई और ही ले जाता है।
सहसा विदधीत न क्रियाम् अविवेकः परमापदां पदम्।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥
मन में एकाएक आए विचार को कार्यान्वित नहीं करना चाहिए। ऐसा बुद्धिहीन कार्य करनेवाला मुसीबत में पद जाता है। धैर्य और विवेक से कार्य करें तो सद्गुण का संपत्ति स्वयं वरण करती है।
दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीयागतिर्भवति॥
धन की तीन गतियाँ दान, उपभोग तथा नाश हैं। धन का दान अथवा उपभोग न कर, संचय करने पर धन-नाश हो जाता है।
सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्।
कुतस्तद्धनलुब्धानां एतश्चेतश्च धावताम्॥
संतोष रूपी अमृत से तृप्त व्यक्ति सुखी और शांत रहता है। धन के पीछे भागनेवालों को सुख-शांति नहीं मिल सकती।
अधमा: धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमा: ।
उत्तमा: मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् ।।
अधम मनुष्य केवल धन की कामना करते हैं, मध्यम कोटी के मनुष्य धन-मान दोनों चाहते हैं परन्तु उत्तम मनुष्य केवल मान चाहता है, महान व्यक्तिओ के लिए मान ही धन है।
यस्यास्ति वित्तं स वरः कुलिनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनं आश्रयन्ते ॥
जिसके पास धन है उसे ही कुलीन, विद्वान, गुणी, विद्वान तथा सुंदर माना जाता है क्योंकि ये सभी गुण धन (स्वर्ण) द्वारा मिलते हैं।
वैद्यराज नमस्तुभ्यम् यमराज सहोदर: ।
यमस्तु हरति प्राणान् वैद्य: प्राणान् धनानि च ।।
वैद्यराज (चिकित्सक) को प्रणाम है जो यमराज के भाई हैं। यम केवल प्राण हरते हैं किंतु वैद्य प्राण और धन दोनों हर लेता है ।
कॄपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति ।
अस्पॄशन्नेव वित्तानि य: परेभ्य: प्रयच्छति ।।
कंजूस के समान दानवीर न हुआ, न होगा क्योंकि वह जीवन भर कमाया धन अन्यों के लिए छोड़ जाता है।
अर्था भवन्ति गच्छन्ति लभ्यते च पुन: पुन:।
पुन: कदापि नायाति गतं तु नवयौवनम्।।
धन बार बार आता है, जाता है परंतु नवयौवन एक बार जाने के बाद दुबारा कभी नहीं आता।
परस्य पीडया लब्धं धर्मस्यौल्लंघेनेन च ।
आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय वै।।
दूसरों को दुख देकर, धर्म का उल्लंघन कर तथा अपमानित होकर कमाया हुआ धन कभी सुख नहीं देता।
नालसा: प्राप्नुवन्त्यर्थान न शठा न च मायिनः।
न च लोकरवाद्भीता यं न च शश्वत्प्रतीक्षिणः।।
आलसी, शठ, लुटेरे, लोगों सेसे भयभीत रहनेवाले तथा अपने कर्तव्य का पालन न करनेवाले धनार्जन नहीं कर सकते।
उक्त श्लोकों में कही गई बातें ठीक होते हुए भी पूरी तरह व्यवहार में नहीं लाई जा सकतीं। धन कमाने, उपयोग करने, बचाने, सुरक्षित रखने, दान देने तथा भावी पीढ़ी के लिए छोड़ने सबका महत्व है। वास्तु शास्त्र के अनुसार धन को सुरक्षित रखने तथा बढ़ाने के लिए सुझाए गए उपायों को पढ़-समझकर अपनि आवश्यकता व बुद्धि अनुसार प्रयोग करें।
१. धन-संपत्ति लक्ष्मी माँ का प्रसाद है। इसका दुरुपयोग न करें। संचित धन व मूल्यवान रतन, गहने आदि ईशान अथवा पूर्व दिशा में रखें। हर सुबह लक्ष्मी जी का स्मरणकर संचित धन
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दोहा सलिला
करे रतजगा चंद्रमा, हो जाता तब पीत।
उषा रश्मियों से कहे, कभी न होना भीत।।
दिन करने दिनकर चला, साथ लिए आलोक।
९-१२-२०२२
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जय जय जय कामाख्या माता।
सकर सृष्टि तेरी संतति है, सारा जग तेरे गुण गाता।
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सत्य कहाँ-क्या समझ न आए, है असत्य माया फैलाए।
माटी से उपजी यह काया, माटी में वापिस मिल जाए।
भवसागर में फँसा हुआ मन, खुद ही खुद को है भरमाता।
जय जय जय कामाख्या माता।
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जगत्पिता-जगजननी तारो, हर संकट हर हे हर! तारो।
सदा सुलभ हों दर्शन मैया!, हृदय विराजो मातु! उबारो।
सुख में तुम्हें भूलते, दुख में नाम तुम्हारा ही है भाता।
जय जय जय कामाख्या माता।
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इस माटी में सलिल मिला दो, कूट-पीट कर दीप बना दो।
सफल साधना नव आशा हो, तुहिना- वृत्ति सदा अमला हो।
श्वास गीतिका मन्वन्तर तक, सदय शारदा हरि कमला हो।
चित्र गुप्त तव देख सकें मन, रहे हमेशा तुमको ध्याता।
जय जय जय कामाख्या माता।
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संजीव
श्री कामाख्या धाम, गुवाहाटी
१५•०३, ६-१२-२०२२
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गीत
नीलाभित नभ सिंदूरी हो गया किसी के नाम से।
सूर्य प्रणम्य प्रतीत हो रहे सुधिमय नम्र प्रणाम से।।
•
रश्मि रश्मि शाकुंतल सुषमा लिए सूर्य दुष्यंत सम।
नयन नयन से कहें-सुनें क्या; पूछो मौन दिगंत सम।।
पंछी गुंजाते शहनाई; लहरें गातीं मंगल गान-
वट पल्लव कर मंत्र-पाठ; आहुतियाँ देते संत सम।।
फुलबगिया में सँकुचाई सिय; अकथ कह गई राम से।
शाम मिली फिर मुग्धा राधा, हुलस पुलक घनश्याम से।
सूर्य प्रणम्य प्रतीत हो रहे सुधिमय नम्र प्रणाम से।
नीलाभित नभ सिंदूरी हो गया किसी के नाम से।।
•
ब्रह्मपुत्र नद किसको ध्याए, कल कल कल कर टेरता।
लहर लहर उत्कंठित पल पल, किसका पथ छिप हेरता।।
मेघदूत से यक्ष पठाता; व्यथा-कथा निज पाती में।
बैरागी मन को रागी चित; दसों दिशा से घेरता।।
उस अनाम को ही संबोधित; करते शत-शत नाम से।
वह आकुल मिलता है; खुद ही आकर निष्काम से।।
सूर्य प्रणम्य प्रतीत हो रहे सुधिमय नम्र प्रणाम से।
नीलाभित नभ सिंदूरी हो गया किसी के नाम से।।
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किसे सुमिरता है युग युग से, लिए सुमिरनी गति-यति की।
व्यथा उमा-नंदा की कह-सुन; समय साक्ष्य दे जन-मति की।।
कहे गुवाहाटी शिव तनया गंगा से जा मिलो गले।
ब्रह्मपुत्र मंदाकिनी भेटें, लीला सरस समयपति की।।
नखत नवाशा जगा दमकते, खास बन गए आम से।
करतल ध्वनि कर मुदित शांत जन; लगते पूर्ण विराम से।।
सूर्य प्रणम्य प्रतीत हो रहे सुधिमय नम्र प्रणाम से।
नीलाभित नभ सिंदूरी हो गया किसी के नाम से।।
•
संजीव
६-१२-२०२२,७-५४
रॉयल डे कासा, गुवाहाटी
•••
सॉनेट - गीत
सैनिक
*
सैनिक कभी नहीं मरते हैं
*
चुनौतियों से टकराते हैं।
जैसे हों अपराजित चीते।।
देवोपम गरिमा पाते हैं।।
नित्य मौत से टकराते हैं।
जीते जी बनते उदाहरण।
मृत्युंजय बन जी जाते हैं।।
जूझ मौत का विहँस कर वरण।।
कीर्ति कथाएँ लोक सुनाता।
अपने दिल में करे प्रतिष्ठित।
उन्हें याद कर पुष्प चढ़ाता।।
श्रद्धा सुमन करे रो अर्पित।।
शत्रु नाम सुनकर डरते हैं।
सैनिक नहीं मरा करते हैं।।
*
सैनिक जिएँ तानकर सीना।
कठिन चुनौती हर स्वीकारें।
मार मौत को जानें जीना।।
नित आपद को अंगीकारें।।
अस्त्र-शस्त्र ले पग-पग बढ़ते।
ढाल थाम झट करते रक्षा।
लपक वक्ष पर अरि के चढ़ते।।
अरि माँगे प्राणों की भिक्षा।
हर बाधा से डटकर जूझें।
नहीं आपदाओं से डरते।
हर मुश्किल सवाल को बूझें।।
सदा देश का संकट हरते।।
होते अमर श्वास तजते हैं।
सैनिक नहीं मरा करते हैं।।
*
मत रोएँ संकल्प करें सब।
बच्चा-बच्चा बिपिन बनेगा।
मधूलिका हो हर बच्ची अब।।
हर मोर्चे पर समर ठनेगा।।
बने विरासत शौर्य-पराक्रम।
काम करें निष्काम भाव से।
याद करे दुश्मन बल-विक्रम।।
बच्चे सैनिक बनें चाव से।।
आँख आँख में डाल शत्रु की।
आँख निकाल लिया करते हैं।
जान बचाने देश-मित्र की।।
बाँह पसार दिया करते हैं।।
वीर-कथा गा कवि तरते हैं।
सैनिक नहीं मरा करते हैं।।
९-१२-२०२१
***
सूर्य चंद्र धरती गगन, रखें समन्वय खूब।
लोक तंत्र रख संतुलन, सके हर्ष में डूब।।
बोलिए भारत माँ की जय
*
सूर्य-लोक हैं केंद्र में, इन्हें साध्य लें मान।
बोलिए भारत माँ की जय
*
चंद्र सदा रवि से ग्रहण, करता सतत उजास।
तंत्र लोक से शक्ति ले, करे लोक-हित खास।।
बोलिए भारत माँ की जय
*
धरती धरती धैर्य चुप, घूमे-चल दिन रैन।
कभी देशहित मत तजें, नहीं भिगोएँ नैन।।
बोलिए भारत माँ की जय
*
गगन बिन थके छाँह दे, कहीं न आदि न अंत।
काम करें निष्काम हम, जनहित में बन संत।।
बोलिए भारत माँ की जय
*
लोकतंत्र की शक्ति है, जनता शासक दास।
नेता-अफसर-सेठ झुक, जन को मानें खास।।
बोलिए भारत माँ की जय
***
९-१२-२०२१
नव गीत
*
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा।
*
छायद तरु
नर बना कुल्हाड़ी
खोद रहा अरमान-पहाड़ी
हुआ बस्तियों में जल-प्लावन
मनु! तूने ही बात बिगाड़ी।
अनगिन काटे जंगल तूने
अब तो पौधा नया लगा
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
*
टेर; नहीं
गौरैया आती
पवन न गाती पुलक प्रभाती
धुआँ; धूल; कोलाहल बेहद
सौंप रहे जहरीली थाती
अय्याशी कचरे की जननी
नाता एक न नेह पगा
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
*
रिश्तों की
रजाई थी दादी
बब्बा मोटी धूसर खादी
नाना-नानी खेत-तलैया
लगन-परिश्रम से की शादी
सुविधा; भोग-विलास मिले जब
संयम से तब किया दगा
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
*
रखा काम से
काम काम ने
छोड़ दिया तब सिया-राम ने
रिश्ते रिसती झोपड़िया से
बेच-खरीदी करी दाम ने
नाम हुआ पद; नाम न कोई
संग रहा न हुआ सगा
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
*
दोष तर्जनी
सबको देती
करती मोह-द्रोह की खेती
संयम; त्याग; योग अंगुलियाँ
कहें; न भूलो चिंतन खेती
भौंरा बना नचाती दुनिया
मन ने तन को 'सलिल' ठगा
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
६-१०-२०१९
***
एक रचना
घुटना वंदन
*
घुटना वंदन कर सलिल, तभी रहे संजीव।
घुटने ने हड़ताल की, जीवित हो निर्जीव।।
जीवित हो निर्जीव, न बिस्तर से उठने दे।
गुड न रेस्ट; हो बैड, न चलने या झुकने दे।।
छौंक-बघारें छंद, न कवि जाए दम घुट ना।
घुटना वंदन करो, किसी पर रखो न घुटना।।
*
मेदांता अस्पताल दिल्ली में डॉ. यायावर के घुटना ऑपरेशन पर भेंट
९.१२.२०१८
***
मुक्तक
शिखर पर रहो सूर्य जैसे सदा तुम
हटा दो तिमिर, रौशनी दो जरा तुम
खुशी हो या गम देन है उस पिता की
जिसे चाहते हम, जिसे पूजते तुम
दोहा
पौधों, पत्तों, फूल को, निगल गया इंसान
मैं तितली निज पीर का, कैसे करूँ बखान?
*
करें वंदना शब्द की ले अक्षर के हार
सलिल-नाद सम छंद हो, जैसे मंत्रोच्चार
*
लोकतंत्र का हो रहा, भरी दुपहरी खून.
सद्भावों का निगलते, नेता भर्ता भून.
***
बुंदेली दोहा
सबखों कुरसी चाइए, बिन कुरसी जग सून.
राजनीति खा रई रे, आदर्सन खें भून.
*
मन में का? के से कहें? सुन हँस लैहें लोग.
मन की मन में ही धरी, नदी-नाव संजोग.
९-१२-२०१७
***
क्षणिका
*
बहुत सुनी औरों की
अब तो
मनमानी कुछ की जाए.
दुनिया ने परखा अब तक
अब दुनिया भी परखी जाए
*
मुक्तक
चोट खाते हैं जवांदिल, बचाते हैं और को
खुद न बदलें, बदलते हैं वे तरीके-तौर को
मर्द को कब दर्द होता, सर्द मौसम दिल गरम
आजमाते हैं हमेशा हालतों को, दौर को
***
कार्यशाला
छंद बहर दोउ एक है - ९
रगण यगण गुरु = २१२ १२२ २
सात वार्णिक उष्णिक जातीय, बारह मात्रिक आदित्य जातीय छंद
बहर- फाइलुं मुफाईलुं
*
मुक्तक
मेघ ने लुभाया है
मोर नाच-गाया है
जो सगा नहीं भाया
वह गया भुलाया है
*
मौन मौन होता है
शोर शोर बोटा है
साफ़-साफ़ बोले जो
जार-जार रोता है
*
राजनीति धंधा है
शीशहीन कंधा है
न्याय कौन कैसे दे?
क्यों प्रतीक अँधा है
*
सूर्य के उजाले हैं
सेठ के शिवाले हैं
काव्य के सभी प्रेमी
आदमी निराले हैं
*
आपने बिसरा है
या किया इशारा है?
होंठ तो नहीं बोला
नैन ने पुकारा है
*
कौन-कौन आएगा?
देश-राग गायेगा
शीश जो कटाएगा
कीर्ति खूब पायेगा
*
नवगीत
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
वायवी हुए रिश्ते
कागज़ी हुए नाते
गैर बैर पाले जो
वो रहे सदा भाते
संसदीय तूफां की
है नहीं रही रेखा?
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
लोकतंत्र पूछेगा
तंत्र क्यों दरिंदा है?
जिंदगी रही जीती
क्यों मरी न जिंदा है?
आनुशासिकी कीला
क्यों यहाँ नहीं मेखा?
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
क्यारियाँ कभी सींचें
बागबान ही भूले
फूल को किया रुस्वा
शूल को मिले झूले
मौसमी किए वादे
फायदा नहीं सदा पेखा
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
***
मेखा = ठोंका, पेखा = देखा
८-१२-२०१६
***
मुक्तक सलिला
*
नाग नाथ को बिदा किया तो साँप नाथ से भी बचना
दंश दिया उसने तो इसने भी सीखा केवल डँसना
दलदल दल का दल देता है जनमत को सत्ता पाकर-
लोक शक्ति नित रहे जागृत नहीं सजगता को तजना।
*
परिवर्तन की हवा बह रही इसे दिशा-गति उचित मिले
बने न अंधड़, कुसुम न जिसमें जन-आशा का 'सलिल' खिले।
मतदाता कर्तव्यों को अधिकारों पर दे वरीयता-
खुद भ्रष्टाचारी होकर नेता से कैसे करें गिले?
*
ममो सोनिया राहुल डूबे, हुई नमो की जय-जयकार
कमल संग अरविन्द न लेकिन हाल एक सा देखो यार
जनता ने दे दिया समर्थन पर न बना सकते सरकार-
कैसी जीत मिली दोनों को जिसमें प्रतिबिंबित है हार
*
वसुंधरा शिव रमन न भूलें आगे कठिन परीक्षा है
मँहगाई, कर-भार, रिश्वती चलन दे रहा शिक्षा है
दूर करो जन गण की पीड़ा, जन-प्रतिनिधि सुविधा छोडो-
मतदाता जैसा जीवन जी, सत्ता को जन से जोड़ो
८-१२-२०१३
*
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